पवन त्रिपाठी। वैसे तो डेनमार्क,जापान तथा दुनियाँ के कई देशो में में भी कुछ मजहबों के शवों को दफनाने की अनुमति नहीं है परन्तु पिछले हफ्ते चीन ने एक बहुत बड़ा फैसला अपने राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर किया है। चीन ने अपने देश में हर तरह के शवों के अंतिम संस्कार पर बड़ा फैसला किया है। फैसले के मुताबिक चीन के कई राज्यों और महानगरो में अब शवों को जमीन में दफ़न करने पर रोक का लगा दी गयी है। वह उनके मुरदों को समुन्द्र में दफनाने की व्यवस्था करने की बात कह रहे हैं। यदि किसी ने वहां की सरकार से मदद मांगी तो फिर सागर की गहराई में दफ़न करवाने का इंतजाम वहां की सरकार कर सकती है। हर शव का अंतिम संस्कार जलाकर किया जायेगा और सभी धर्म के लोगों पर, आस्तिक और नास्तिक सभी पर ये नियम लागु होंगे।
ध्यान रहे सेमेटिक-सम्प्रदायों को छोड़कर समस्त विश्व में अपने शवो को जलाने की प्रथा है। सेमेटिक से मतलब है अरब की सामी जमीन से निकले यहूदी, ईसाई और इस्लाम मजहब। चीन में अब सभी शवो को जलाना ही होगा। मजे की बात है यह पहले दिन से ही बिना किसी विरोध के सभी सम्प्रदायों ने मान भी लिया है। चीन का कहना है की मरने के बाद किसी व्यक्ति को जमीन में गाड़ने से जमीन बर्बाद होती है।कब्रिस्तान की जगह कुछ और बनाये जा सकते है, जो जिन्दा लोगो के काम आएगी।कब्रिस्तान तो मरे हुए लोगो के काम आती है। जरुरत ये है की जिन्दा लोगो का ख्याल रखा जाये।
दुनिया भर में अंतिम संस्कार के तीन तरीके हैं शवदाह, शव को दफनाना और शवों को खुला छोड़ देना या पानी में बहा देना। जब किसी शव को जमीन में गाड़ते हैं तो उसके सड़ने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस दौरान उसका pH बैलेंस बहुत अधिक होता है, जिससे शरीर के अच्छे तत्व बाहर नहीं निकल पाते। शरीर के तत्वों के विघटित होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है जिससे बहुत अधिक बदबू पैदा होती है। आप किसी भी कब्रिस्तान के आसपास जाएं, वहां हवा में आपको अजीबोगरीब बदबू हर वक्त महसूस होगी।
जमीन को बचाने के लिए चीन ने ये फैसला किया है। ये फैसला सभी पर लागू होगा, यानि मुस्लिम और ईसाई जो बड़े बड़े कब्रिस्तान बनाकर शव दफनाते है। अब इसपर भी रोक लग गई है, और सभी को अपने शवों को जलाकर ही अंतिम संस्कार करना होगा। एरिया में चीन भारत से 3 गुना से भी अधिक बड़ा है, पर चीन ने अपनी जमीन को बचाने के लिए इतना बड़ा फैसला कर लिया।जबकि भारत में जमीन चीन से काफी कम है। चीन आतंकियों को मारकर खत्म करता है,चीन ने काफी पहले ही कुरआन-अरबी नाम,पहनावे,बोली और जीवन शैली पर खुलेआम प्रतिबंध लगा देता है,चीन ने अपने मुस्लिम बहुल इलाके शिंगजियांग प्रांत में बुर्के, नकाब और लंबी दाढ़ी रखने पर पाबंदी लगा दी है।
यह बात सही है कि दाह संस्कार के लिए काफी लकड़ी इस्तेमाल होती है, जिसके लिए पेड़ कटते हैं। शव को जलाने से उठने वाला धुआं भी प्रदूषण का कारण बनता है। लेकिन यह बात भी सही है कि शवों के अंतिम संस्कार के दुनिया भर में प्रचलित तरीकों में शव को जलाने का तरीका ही सबसे वैज्ञानिक और कम प्रदूषण वाला है। मुसलमानों और ईसाइयों में शव को दफनाया जाता है, जो वास्तव में ज्यादा खर्चीला और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला होता है।
जुआन कैरोल क्रूज़ ने 1977 में आई अपनी किताब The Incorruptibles: A Study of the Incorruption of the Bodies of Various Catholic Saints and Beati में लिखा है कि गहराई में दफनाने के बावजूद भी शवों के सड़ने की भयंकर बदबू शहरी कब्रिस्तानों के आसपास फैली रहती है। ये वो गैसें होती हैं जो आसपास रहने वालों के स्नायु तंत्र (nerves system) पर बुरा असर डालती हैं। कब्रिस्तानों की जमीन में सोडियम की मात्रा 200 से 2000 गुना अधिक होती है, जिससे पेड़-पौधों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। यही कारण है कि कब्रिस्तान में कुछ खास तरह के पेड़-पौधे ही पनप पाते हैं। मृत शरीर सड़ने पर जमीन में कई तरह के बैक्टीरिया और जानलेवा टॉक्सिन बन जाते हैं। जो ग्राउंड वॉटर में मिलकर भयानक बीमारियां पैदा करते हैं। कैंसर के कई मरीजों के शरीर में बोटूलिनम (Botulinum) नाम का टॉक्सिन पाया गया है जो कब्रिस्तान के आसपास की जमीन से निकले पानी के जरिए शरीर में पहुंचता है। इसके अलावा आर्सेनिक, फार्मेल्डिहाइड, मर्करी, कॉपर, लेड और जिंक जैसे तत्व भी शरीर से बाहर आते हैं जो ग्राउंड वाटर में जहर की तरह घुल जाते हैं।
दुनिया के अन्य देशों में भी झाँके तो कहने को तो इंसान को दफनाने में सिर्फ दो गज जमीन लगती है। लेकिन हालत ये है कि कई देशों में दफनाने के लिए वेटिंग लिस्ट तैयार होने लगी है। एबीपी न्यूज की एक रिपोर्ट के अनुसार एक रिसर्च में ये भी सामने आया कि हांगकांग में मर चुके लोगों की समाधि बनाने के लिए 5 साल की वेटिंग चल रही है। यहाँ जगह की कमी के कारण 1970 के बाद से नए कब्रिस्तान नहीं बन रहे हैं। आप दुनिया की सारी दौलत देकर भी स्थाई कब्र की जगह नहीं ले सकते हैं। अगले 24 साल में अमेरिका को लास वेगस के बराबर की जमीन चाहिए होगी। फिलीपींस की राजधानी मनीला में जगह की कमी के कारण कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने पड़ रहे हैं। मनीला में कब्र का किराया 5 साल बाद नहीं दिया तो वो जगह किसी और को दे दी जा रही है। जापान में कब्रिस्तान की कमी के कारण इंतजार करना पड़ता है तो लोगों को तब तक शव रखने के लिए एक होटल अपनी सर्विस देता है। इंटरनेशनल क्रिमेशन स्टेटिस्टिक्स के मुताबिक दुनिया के कई देशों में शवों को दफनाने की जगह जलाने का प्रचलन बढ़ा है।
केवल दिल्ली में ही 2013 के आंकड़ों के मुताबिक 100 से ज्यादा छोटे-बड़े मुस्लिम कब्रिस्तान हैं। सीलमपुर और कोंडली में सरकार ने कब्रिस्तान के लिए नई जमीनें भी अलॉट की हैं, क्योंकि पुराने कब्रिस्तानों में जगह कम पड़ रही थी। इसके अलावा ईसाइयों के 11 कब्रिस्तान भी हैं। इस तरह से शहरी जमीन का एक बड़ा हिस्सा कब्रिस्तानों के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। इनके आसपास रहने वाले लोगों को यहां की जहरीली हवा और पानी का शिकार होना पड़ता है।
इसके मुकाबले हिंदुओं की इतनी बड़ी आबादी का काम निगमबोध, लोधी रोड और गाजीपुर जैसे 5-6 शवदाह स्थलों से काम चल जाता है। ये भी आम तौर पर यमुना के किनारे की खुली जगहों पर बने हैं, जिससे धुएं के कारण किसी को दिक्कत भी नहीं होती। आजकल दाह संस्कार की लकड़ी भी ज्यादातर फर्नीचर या दूसरे सामान बनाने में बेकार बचा हुआ हिस्सा ही होती है। इसके अलावा हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग खुद ही सीएनजी से शवदाह के लिए तैयार होने लगा है। फिर भी जो लोग लकड़ी पर शवदाह करते हैं उनके पीछे बड़ा कारण धार्मिक आस्था और मान्यताएं होती हैं। सवाल ये है कि क्या दिल्ली सरकार ऐसे करोड़ों हिंदुओं की धार्मिक भावना को चोट पहुंचाते हुए शवदाह पर पाबंदी क्यों लगाना चाहती है? दूसरी तरफ मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कब्रिस्तान की नई-नई जमीनें उपलब्ध कराई जा रही हैं।
अमेरिका में 1960 में जहां दाह संस्कार करने वाले सिर्फ 3.8 फीसदी थे, उसी अमेरिका में 2015 में 49 फीसदी लोगों ने अंतिम संस्कार के लिए दफनाने की जगह दाह संस्कार की प्रथा को अपनाया कनाडा में 1970 में जहां शवों को जलाकर अंतिम कर्म क्रिया करने वाले 5.89 प्रतिशत थे। अब कनाडा में दाह संस्कार करने वाले 68.4 फीसदी हो चुके हैं। इंटरनेशनल क्रेमेशन स्टैटिस्टिक्स 2008 के अनुसार दुनिया भर में भारत की तरह शवों को जलाने का चलन बढ़ रहा है।
जापान में लगभग 100 फीसदी, भारत में 85 फीसदी, चीन में 46 फीसदी, ताइवान में 93 फीसदी लोगों के शव जलाए गए। दूसरी तरफ यूरोपीय देशों में जहां पहले शवदाह का प्रतिशत 72 फीसदी तक पहुंच चुका है। 1960 में ये सिर्फ 35 फीसदी हुआ करता था। फ्रांस में तो सरकार बाकायदा लोगों को शवदाह के लिए बढ़ावा दे रही है क्योंकि शव दफनाने के लिए जमीन कम पड़ रही है।आज वहां लगभग आधे लोग शवदाह ही पसंद करते हैं। 1960 में यह आंकड़ा सिर्फ 3.5 फीसदी हुआ करता था। विदेशों में शवदाह के अलग-अलग तरीके प्रचलित हैं, इनमें सबसे बड़ा तरीका लकड़ी या दूसरी ज्वलनशील चीजों पर शव को रखकर जलाने का ही है।
फिलहाल चीन में मुसलमानों पर लंबी दाढ़ी रखने, टोपी पहनने पर प्रतिबंध लगा रखी है, महिलाएं भी नहीं पहन सकतीं बुर्का, सार्वजनिक नमाज, रोजा पर प्रतिबन्ध लगा देता है, मस्जिद बनाने से रोक देता है, नए नियमों के तहत सरकारी रेडियो, टेलीविजन देखना-सुनना और अन्य सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल करना जरूरी कर दिया गया है। बता दें कि ऐसी धारणा है कि मुस्लिमों में रेडियो और टीवी देखने से बचा जाता है। साथ ही बच्चों को स्कूल जाने से रोकने, फैमिली प्लानिंग नीतियों का पालन न करने को लेकर भी प्रावधान बनाया गया है।
वहीं, किसी दूसरे के धार्मिक मामले में दखल करने पर मुकदमा भी चलाया जाएगा। इसाई मिशनरियो को कन्वर्जन से रोक देता है,चीन पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों को मार देता है पर हमारे हिन्दुस्तान में जो की 1947 में मजहब के नाम पर बाँट लिया गया था(बचा हुआ हिस्सा केवल हिन्दुओ के लिए था) यहाँ तो आतंकियों को भी जलाने की बात होती है तो बहुत से लोग हंगामा करने लग जाते है। मरने के बाद भी आतंकियों तक ने भारत की जमीनों पर कब्ज़ा किया हुआ है। माओ-वादियों का राष्ट्रवादी काम देख-देखकर अब मेरा मन माओवादी-माओवादी टाइप हो रहा है। लेकिन समझ में नही आता भारत के कम्युनिष्टो को कांग्रेस ने कौन सी सेखुलरिया बूटी सुंघा दी है!
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URL: Chinese funeral rituals: What do the Chinese do with their dead?
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