शंकर शरण। जब हमास द्वारा इजरायल पर अचानक हमले और त्योहार मनाते यहूदी नागरिकों पर वीभत्स हिंसा, महिलाओं से बर्बरता और नन्हें शिशुओं को निर्ममता से मारने के घृणित वीडियो खुद हमास द्वारा जारी हुए तो देश-विदेश के अनेक बौद्धिकों एवं नेताओं ने फलीस्तीन की चिंता में बयान दिए। यह विचित्र नजारा दशकों से लगभग एकतरफा चल रहा है। फलस्तीन की आड़ लेकर इजरायल के खात्मे की खुली कोशिश हो रही है। इस पर इसलिए ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि स्वयं भारत की स्थिति कई मामलों में इजरायल जैसी ही है। यह इतना प्रमाणिक, किंतु ओझल किया हुआ सत्य है कि उसे जानकर किसी को भी हैरत हो सकती है। खुद हमास के घोषणा पत्र में आरंभ में ही हसन अल-बन्ना को उद्धृत करते लिखा गया है, ”इस्लाम इजरायल को मिटा देगा, जैसे उसने पहले औरों को मिटाया है।”
हसन अल-बन्ना ने यह बात इजरायल के बनते ही कही थी। हसन अल-बन्ना ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ का संस्थापक था। हमास उसी की स्वघोषित शाखा है। इस तरह फलस्तीन एक बहाना है, जिससे दुनिया भर के बौद्धिक और नेता छिपाते हैं। हमास के घोषणा पत्र में यह भी स्पष्ट अंकित है कि फलस्तीनी लोग इजरायल से कोई समझौता नहीं कर सकते। कोई भी फैसला ‘केवल शरीयत के अनुसार होगा’। हमास का घोषणा पत्र किसी भी शांतिपूर्ण समझौते को ‘इस्लाम के विरुद्ध’ बताता है और इसीलिए उसे अमान्य ठहराता है। हर हाल में इजरायल का खात्मा ही हमास का एक मात्र घोषित लक्ष्य है।
फलस्तीनी मुद्दे की असलियत भी बिलकुल भिन्न है। ‘पेलेस्टीन’ शब्द इस्लाम के पैदा होने से लगभग दो हजार वर्ष पहले से प्रचलन में है। व्यवहार में भी उस पूरे क्षेत्र को आदिकाल से ‘जूडिया’ (यहूदी) कहा जाता रहा है, जो ‘जूडो-क्रिश्चियन’ सांस्कृतिक परंपरा का मूल क्षेत्र है। इसी जूडिया क्षेत्र को दूसरी सदी में एक शासक हेड्रियन ने ‘सीरियन पेलेस्टाइन’ का नाम दिया, क्योंकि उसे यहूदियों से शत्रुता थी। इसलिए इस्लाम की पैदाइश के सदियों पहले से फलस्तीन शब्द और क्षेत्र, दोनों ही ऐतिहासिक रूप से यहूदियों से जुड़े हैं।
आज ‘फलस्तीनी जनता’ का जो रोना चलता है, वह 1964 से शुरू हुआ। यह सोवियत गुप्तचर संस्था केजीबी की देन है, जिसने यासिर अराफात को समर्थन, संसाधन और मंच देकर पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रभाव कमजोर करने की योजना बनाई थी। ‘फलस्तीन मुक्ति’ उसका एक आकर्षक बहाना बना। तभी से ‘फलस्तीनी जनता’ का जुमला भी चला, जो उससे पहले किसी रिकॉर्ड में नहीं मिलता। अराफात खुद मिस्र के थे और अमेरिका विरोधी गतिविधियों में लिप्त थे। उन्हें ‘फलस्तीनी जनता’ का नेता केजीबी ने बनाया। इसे ‘फलस्तीनी मुक्ति संगठन’ यानी पीएलओ के नेता भी बखूबी जानते हैं। उसके नेता जुहैर मोहसिन के शब्दों में, ”फलस्तीनी जनता करके कोई चीज नहीं है।
फलस्तीन राज्य बनाना इजरायल के विरुद्ध अरब एकजुटता बनाने का साधन भर है। राजनीतिक और रणनीतिक कारणों से लोग जियनवाद के विरुद्ध ‘फलस्तीनी जनता’ की बात करते हैं। यह अरब हितों की मांग है। वरना अलग से फलस्तीनी जनता का कोई अस्तित्व नहीं है।” मोहसिन ने यह बात अपने देहांत से दो वर्ष पहले कही थी। इसकी पुष्टि एक रोमानियन जनरल और गुप्तचर सेवा प्रमुख इयोन मिहाई पाचेपा की बातों से भी होती है। उन्होंने ‘वाल स्ट्रीट जरनल’ में अपने एक लेख में लिखा था कि यासिर अराफात केजीबी के गुप्त एजेंट थे। मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति नासिर के सहयोग से सोवियत सत्ता ने पीएलओ में अराफात को जमाया, उन्हें वैचारिक ट्रेनिंग और नारे दिए। ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद-जियनवाद’ का मुहावरा सोवियत प्रचार में नियमित मिलता है। इसी को अराफात आजीवन दोहराते रहे। यह सब यासिर अराफात की जीवनी से भी झलकता है।
मिस्र में जन्मे और फ्रांस में रहते हुए मरे अराफात की प्रसिद्धि और शक्ति के पीछे सोवियत संघ का कूटनीतिक, भौतिक समर्थन साफ-साफ दिखता है। उसके समर्थन के बिना संयुक्त राष्ट्र में पीएलओ को जगह मिलना अकल्पनीय था। उस जमाने में पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट वैचारिकता का दबदबा था, जिसने फलस्तीन की मुक्ति जैसा आडंबरपूर्ण उद्देश्य प्रचारित किया। स्वयं अरब देशों में उसके प्रति कोई विशेष लगाव नहीं रहा, क्योंकि वे पिछला इतिहास और वर्तमान अंतरराष्ट्रीय राजनीति, दोनों से परिचित हैं। फलस्तीन का मामला पूरी तरह रूस-अमेरिकी शीतयुद्ध युग की पैदावार है। इसीलिए1960 से पहले इतिहास, भूगोल में भी ‘फलस्तीनी जनता’ जैसी किसी अस्मिता का उल्लेख नहीं मिलता। केवल क्षेत्र के रूप में उसका नाम सुना गया था और उसमें कुछ भी इस्लामी तत्व नहीं मिलता। स्वयं इस्लामी मूल ग्रंथों में ‘फलस्तीन’ शब्द नहीं है। उस क्षेत्र का उल्लेख सदैव सीरिया के रूप में मिलता है।
सीरिया भी तब यहूदी-क्रिश्चियन देश था। बाद में भी उसे लेवांत और फिर साइप्रस सीरिया कहा गया। ऐतिहासिक दावेदारी में उस क्षेत्र का इस्लाम से जुड़ना बहुत बाद की बात है। वस्तुत: हमास इसी बात को अपने तरीके से कहता है। हमास के घोषणा पत्र की धारा 11 में साफ शब्दों में लिखा है, ”जिस भी जमीन को मुसलमानों ने एक बार बलपूर्वक कब्जा कर लिया, वह कयामत तक उनकी मिल्कियत है। हमास और मुस्लिम ब्रदरहुड की यह घोषणा हू-ब-हू भारत पर भी लागू होती है, जिस पर कभी मुसलमानों ने बलपूर्वक कब्जा किया था। भारत के बारे में ठीक ऐसा ही दावा अल कायदा, इस्लामिक स्टेट और अनेकानेक मौलाना भी दोहराते रहे हैं, कितुं भारत में इन बातों को लगभग गुम रखा गया है। इसका कारण भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही सोवियत दबदबा और वामपंथी मतवाद का वर्चस्व ही है।
चूंकि प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू स्वयं सोवियत कम्युनिज्म और मार्क्सवाद के मुरीद थे, इसलिए सोवियत प्रोपेगंडा भारत की राजकीय, शैक्षिक, वैचारिक मानसिकता में बहुत गहरे जमने में सफल हुआ। इस हद तक कि कांग्रेस ही नहीं, अधिकांश दलों में उसके वैचारिक तत्वों का वर्चस्व पीढ़ियों से बना हुआ है। फलत: हमारे नेता और बुद्धिजीवी अपने ही देश के इस्लामी नेताओं, संगठनों की खुली घोषणाओं की उपेक्षा करते हुए वही सब रटते रहते हैं, जो एक राजनीतिक प्रोपेगंडा है। भारत में फलस्तीन के लिए हाय-तौबा करने वालों को हमास ही नहीं, बल्कि जैशे-मुहम्मद, इंडियन मुजाहिदीन और ऐसी ही अन्य जमातों की घोषणाओं और उनके दस्तावेजों का अध्ययन करना चाहिए। तब उन्हें असलियत समझ में आएगी- न केवल इजरायल और फलस्तीन की, बल्कि भारत और पाकिस्तान की भी।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)