अनुज अग्रवाल । पांच राज़्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव कई मायने में विचित्र और अनूठे हें। अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने और विस्तार के क्रम में भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, अकाली और आआपा सहित अन्य दल रोज नए हथकंडे अपना रहे हें।
उत्तरपूर्व के आसाम में पकड़ बना चुकी भाजपा अब मणिपुर कब्जाने के लिए जोर आजमा रही है। भाजपा की ईसाई नगाओं पर पकड़ खासी मजबूत हो गयी है जिसके कारण मौजूदा कांग्रेसी सरकार नित नए हथकंडे अपना रही है। सरकार द्वारा नये जिलों के निर्माण की घोषणा ने प्रदेश को अराजकता और बंद की आग में झोंक दिया है, यह आग, हिंसा और अराजकता चुनाव प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही थमेगी, ऐसी उम्मीद है।
भाजपा ने ईसाइयों को लुभाने के लिए गोवा में भी बड़े खेल खेल हें, उदार चेहरा बनने के चक्कर में भाजपा से संघ का एक धड़ा ही टूट गया और अब उस धड़े ने शिवसेना व महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी से गठजोड़ कर भगवा वोटो में सेंध लगा दी है। उधर कांग्रेस के सेकुलर वोटों पर भाजपा के साथ साथ आम आदमी पार्टी ने भी दावा ठोंक दिया है, इस छोटे से राज्य के मतदाता के लिए यह विचित्र स्थिति है। दिल्ली के बाद पंजाब और अब गोवा में आआपा अगर सफल हो गयी तो कांग्रेस पार्टी की बड़ी फजीहत तय है और अगर गोवा का हिन्दू कट्टरपंथी धड़ा सफल हो गया तो देशभर में भाजपा से खफा हिन्दू कट्टरपंथी एक होने की राह पर आते जायेंगे और संघ परिवार के लिए बड़ी चुनोती का समय होगा।
पंजाब की राजनीति में अकाली- भाजपा एक साथ तो हें, किंतू भाजपा में अंदर से एक धड़ा अकालियों से गठजोड़ के खिलाफ है। कुटिल रणनीति के तहत दिल्ली में आम आदमी पार्टी के कारनामो को पटल पर लाने में अकाली – भाजपा गठजोड़ का साथ कांग्रेस ने भी दिया है और फिर आआपा के एक धड़े के सुच्चा सिंह के नेतृत्व में टूटने पर उसे अलग पार्टी बनाने में भी परोक्ष सहायता दी गयी। नाराज नवजोत सिंह सिद्धू को आआपा की जगह कांग्रेस पार्टी में भेजने में भी एक सोची समझी चाल और दबाब प्रयोग किया गया जिससे अब कांग्रेस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की संभावनाएं बढ़ गयी और सबसे आगे चल रही आआपा अब तीसरे नंबर पर धकेल दी गयी। कुल मिलाकर अकाली- कांग्रेस की नूर कुश्ती बनी रहे और आपस में सत्ता की अदला बदली की परंपरा बनी रहे इसकी कोशिशें जारी हें।
उत्तराखंड राजनितिक रूप से मजाक बन चूका है। भाजपा ने हरीश रावत गट को छोड़ पूरी कांग्रेस पार्टी ही अपने में विलय कर ली है, यहाँ तक की रंगीले नबाब नारायण दत्त तिवारी तक पर हाथ साफ करने में भी भाजपा ने कोई गुरेज नहीँ की। कांग्रेस मुक्त देश से कांग्रेस युक्त भाजपा तक की इस पटकथा को लिख मोदी- शाह की जोड़ी क्या सन्देश देने जा रही है, यह समझ से परे है।
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक कथा तो दंगो, लूट, भ्रष्टाचार और अराजकता के बीच समाजवादी पार्टी में वंशवाद की नींव पूरी तरह मजबूत करने के लाइव ड्रामे के बीच लिखी जा रही है, उधर मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए नित नए मगर असफल प्रयोगों से खीजी बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती और सर्वग्राही भाजपा जो लगातार अपने क्षत्रपो को दूलत्ती मारती पहले नंबर पर तो जरूर आती दिख रही है, किंतू अपने मूल स्वरूप को ही खो बैठी दिख रही है और अस्तित्व के संघर्ष में उलझी कांग्रेस पार्टी सपा की बची खुची सीटों के सहारे बिहार के प्रयोगों को स्थायी बनाने और केंद्र की सत्ता में सेकुलर खेमे की वापसी की नींव मजबूत करने की जुगत में है। सच तो यह भी है कि जल्द होने वाले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों में अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के साथ ही राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा जुटाने और सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में फिर से अपनी सरकार बनाने के लिए भाजपा और मोदी के लिए यह अग्निपरीक्षा का समय है। साथ ही विमुद्रिकरण के मोदी सरकार के फैसले पर जनता का रुख देश की अर्थनीतियों की आगे की दिशा भी तय करेगा।
अनुज अग्रवाल (संपादक, डायलॉग इंडिया)