मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने साफ शब्दों में सुप्रीम कोर्ट को चेताया है कि वह समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश न करे! बोर्ड ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसके शरिया कानूनों में दखल नहीं दे सकता है! ‘मोहम्मडन लॉ’ भारतीय संविधान से अलग है। यह किसी भी रूप में भारतीय संविधान का अंग नहीं है। शरिया के नियम कुरान पर आधारित हैं और यह सुप्रीम कोर्ट के दायरे में नहीं आते हैं!
दरअसल मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक कह कर पत्नियों को छोड़ने की प्रथा पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं संज्ञान लिया था और इसमें संशोधन पर विचार करने की बात कही थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने जवाब देते हुए कहा कि देश की सर्वोच्च अदालत के क्षेत्राधिकार में यह नहीं आता है! यह संसद से पास किया हुआ कोई कानून नहीं है। यह कानून सीधा कुरान से लिया गया है इसलिए इसमें तब्दीली की बात सोची भी नहीं जा सकती है!
बोर्ड ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की जरूरत को भी चुनौती देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय अखंडता और एकता की कोई गारंटी नहीं है! बोर्ड ने तो यहां तक कह दिया कि साझी आस्था ईसाई देशों को दो विश्व युद्धों से बचाने में नाकाम रही है!
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने वकील एजाज मकबूल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में बताया है कि विधायिका द्वारा पारित कानून और धर्म से निर्देशित सामाजिक मानदंडों के बीच एक स्पष्ट लकीर होनी चाहिए! मोहम्मडन लॉ की स्थापना पवित्र कुरान और इस्लाम के पैगंबर की हदीस से की गई है। इसे संविधान के दायरे में लाकर लागू नहीं किया जा सकता। मुसलमानों के पर्सनल लॉ विधायिका द्वारा पास नहीं किए गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए शपथपत्र में ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है, मुस्लिम पर्सनल लॉ एक सांस्कृतिक मामला है, जिसे इस्लाम से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए इसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत (अंत:करण की स्वतंत्रता के मुद्दे) अनुच्छेद 29 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इस शपथपत्र में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का भी हवाला दिया गया है जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को लेकर चुनौती नहीं दी सकती है!
ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद से ही मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की जांच करने का फैसला किया था। इसमें पाया गया कि मुस्लिम पुरुषों द्वारा एकतरफा तलाक दिए जाने के बाद ये महिलाएं बिल्कुल असहाय हो जाती हैं। इस पर 43 साल पुराने मुस्लिम बोर्ड ने कहा कि समय-समय पर समाज के एक तबके से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर शोर मचाया जाता है। यदि मुस्लिम महिलाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट स्पेशल नियम बनाता है तो यह अपने आप में जूडिशल कानून होगा।
मुस्लिम बोर्ड ने उल्टा सुप्रीम कोर्ट से सवाल किया कि क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए जरूरी है? यदि जरूरी है तो ईसाई देशों की आर्मी के बीच दो विश्व युद्ध नहीं होने चाहिए थे?
यूनिफॉर्म सिविल कोड के विचार का विरोध करते हुए बोर्ड ने तर्क दिया कि 1956 में हिन्दू कोड बिल लाया गया था लेकिन इससे हिन्दुओं में विभिन्न जातियों को बीच दीवार खत्म नहीं हुई। इसलिए समान नागरिक संहिता का विचार एक लिहाज से नाकाम हो गया है।
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