अर्चना कुमारी। आजादी के 75 साल बीतने के बावजूद बिहार की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं । आज भी सत्ता उन्हीं को हासिल होता है, जिन के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा जातीय गोलबंदी होती है। पिछड़ी जातियों में शामिल यादव और कुर्मी का ऐसा जातीय राजनीतिक गठजोड़ बना कि बीते कई दशक से इन्हीं जातियों के लोग बिहार में सत्ता पर आसीन होते रहे है। लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक के कार्यकाल में यादवों और कुर्मी जाति का बोलबाला तो रहा ही, अन्य पिछड़ी जातियों, मुस्लिम तथा दलित भी खुद को सत्ता का हिस्सेदार मानने लगे ।
90 के दशक में एक वक्त ऐसा भी आया जब लोकतंत्र की जननी जन्मस्थली बिहार में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के गठजोड़ सत्ता से धकियाए गए सवर्ण समाज के लोगों पर हमला अचानक शुरू कर दिया । लाल सलाम नारों की गूंज के बीच भूमि के संरक्षक माने जाने वाले भूमिहार समाज को मुख्य तौर पर टारगेट रखते हुए इस समाज को नेस्तनाबूद कर देने के लिए नरसंहार का दौर शुरू हुआ । इसकी वजह यह बताई गई कि, भूमिहार समाज उस समय तक इकलौता अधिक जमीन जोतने वाला वर्ग था और सत्ता से बेदखली होने पर उन्हें अब कोई जीने का हक नहीं रह गया था।
भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे सुधीर सिंह बताते हैं कि इन्हीं सब कारणों के चलते रणवीर सेना का उदय हुआ और इसके जनक ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ बरमेश्वर मुखिया को स्वर्ण समाज में भगवान का दर्जा दिया गया । उन्होंने ट्वीट करते हुए कहा कि बरमेश्वर मुखिया के शिष्य के तौर पर जाने वाले बिंदु सिंह एक अपराधी था और भारतीय दण्ड विधान ने उसे वर्षों तक सलाखों में बंद रखा ।लेकिन भूमिहार समाज उसे अपराधी मानने को कभी तैयार नहीं हुआ । गौरतलब है कि पिछले दिनों जेल में बंद रहे कुख्यात बिंदु सिंह की अस्पताल में उपचार के दौरान मौत हो गई थी ।
बिंदु सिंह के भाई ,उसकी बहन और उसके पिता की नक्सलियों द्वारा हत्या कर दी गयी थी । वह आगे बताते हैं कि बिहार स्थित जहानाबाद ,गया और भोजपुर के नक्सली उन्माद की कहानी किसे नहीं मालूम है । भूमिहार समाज के नरसंहार के लिए चर्चित सेनारी संहार के बाद न्यायालय ने दम तोड़ दिया था । सीआरपीसी के अनुसार जहाँ न्यायाधीश उपस्थित होता है ,वहाँ न्यायालय बन जाता है ।लेकिन सेनारी नरसंहार के बाद माननीय उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश मृतकों की ढेर को देखते ही गिरकर दम तोड़ देता है ।
वह सवाल उठाते हैं इस नरसंहार के लिए क्या हत्यारों को दंड की वेदी पर चढ़ाया गया था ? धरीक्षण चौधरी और ब्रह्मेश्वर मुखिया जैसे लोगों को भी ऐसी ही त्रासदी झेलनी पड़ी थी । उन दिनों बिहार में दलित और पिछड़े समुदाय के लोग गाँवों में दिन के उजाले में उपद्रव मचाते थे और द्रौपदियों का चीरहरण करने को आमादा रहते थे । दलित और पिछड़े अत्याचार पर अत्याचार किये जा रहे थे ,पर सरकारी मशीनरी के कानों पर जूं नहीं रेंग रहे थे ।सच तो यह है कि एसपी, डीएसपी जैसे पदाधिकारी भी भूमिहारों की दुर्दशा देखकर या तो मौन थे या आनंदमग्न हो रहे थे ।
भूमिहार समाज कई वर्षों तक बृहन्नला की तरह अपनी द्रौपदियों का चीर हरण मौन रहकर देखता रहा था । लेकिन एक दिन तो गांडीव की टंकार करनी ही थी ।वही हुआ और तब न बचे नक्सली ,न उसके समर्थक दोगले नुमाइंदे । भूमिहार समाज से संबंध रखने वाले सुधीर सिंह एक बानगी पेश करते हुए बताया कि मैं बक्सर में मुख्यालय डीएसपी था ।मेरे एसपी थे अशोक कुमार वर्मा ।जाति के कोयरी थे ।बक्सर एसडीपीओ थे ददन जी शर्मा ।यूपी के भाट थे । डुमराँव के एसडीपीओ थे अनुभव हुसैन । लेकिन सभी भूमिहारों की मौत पर चुप ,खामोश और बेबस थे । वरिष्ठ आईपीएस सुधीर सिंह बताते हैं कि
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है –यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ,अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।किसी भी देश की सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह है ।सदस्य गण कभी कभी इस संघ का तिरस्कार करने को बाध्य हो जाते हैं ।ऐसा कल हुआ था ,आज भी हो रहा है ,कल भी होगा । तभी तो बरमेश्वर सिंह के देखरेख में रणवीर सेना की स्थापना 1995 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई थी। इसकी स्थापना के पीछे की प्रमुख वजह बिहार के सवर्ण और बड़े और मध्यम वर्ग के किसानों का भाकपा माले नामक नक्सली संगठन से त्रस्त होना था।
खुद को गरीबों का कथित शुभचिंतक बताने वाले नक्सली संगठन माले के सदस्य किसी भी किसान के जमीन पर लाल झंडा लगा देते थे, और उस किसान को धमकी दिया करते थे कि अगर वो वहां पहुंचा तो उसकी खैर नहीं, इसके बाद उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया जाता था। ऐसे में परेशान किसान किसी ठोस लेकिन प्रभावी विकल्प की तलाश में थे। किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार करनी शुरू की।
इसी क्रम में बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महासंघ के गठन का ऐलान किया गया। उस समय तक खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह सहित कई लोगों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। बताते हैं कि इन लोगों ने गांव -गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। शुरू के दिनों में आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे, फिर अवैध हथियारों का जखीरा भी जमा होने लगा। भोजपुर तथा आसपास के इलाकों के वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे।
जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था। बताया जाता है करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी। खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में काम करने से जबरन रोक दिया जाता था। कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह तथा अन्य सामाजिक धार्मिक जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थी।
इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया। रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है और इसे ही ब्रह्मेश्वर सिंह ने साकार किया। उनके ही नेतृत्व में स्वर्ण समाज ने कथित तौर पर बदला लेने का संकल्प किया हालांकि उनकी कार्यशैली को लेकर उनकी मुखर आलोचना की गई ।
क्योंकि वह नरसंहार का बदला नरसंहार के तौर पर ही देना शुरू किया था । नक्सली से लेकर बिहार पुलिस और पैरामिलिट्री फोर्स के जवान तक उनसे घबराते थे । जब तक ब्रह्मेश्वर सिंह जीवित रहे उन्हें कोई भी पुलिस पकड़ नहीं पाई। बताया तो यह भी जाता है कि उनकी एक तस्वीर तक बिहार पुलिस के पास मौजूद नहीं थी। बाद में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या भी कर दी गई और इसके बाद जमकर हिंसा का तांडव हुआ था। ब्रह्मेश्वर सिंह की मौत की गुत्थी सुलझाने के लिए सीबीआई जांच तक बिठा दी गई लेकिन उनकी मौत की गुत्थी अब तक नहीं सुलझ पाई है ।
नोट -इस बारे में और जानकारी के लिए निकट भविष्य में एक पुस्तक प्रकाशित की जा रही है जिसके जरिए आप रणवीर सेना और ब्रह्मेश्वर मुखिया के बारे में जान पाएंगे