शिव-परिवार एक आध्यात्मिक रहस्य है।
साधारणतया लोग शिव को ‘योगीश्वर’ कहते हैं, परंतु वास्तव में वे गृहस्थों के ईश्वर हैं, विवाहित दम्पती के उपास्य देवता हैं। विवाहित स्त्रियाँ जो उन्हें पूजती हैं, इसमें अवश्य ही कुछ तत्त्व है। बात यह है कि शिवजी स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता को अभिव्यक्ति हैं। इसी कारण वे उन्हें पूजती हैं। हमें किसी भी वस्तु को, उसके गुण-दोष का विचार करते हुए उसके यथार्थ स्वरूप में देखना चाहिये और उसी रूपमें उसके महत्त्व को समझना चाहिये। हमें परस्पर विरोधी द्वन्द्रों की विषमता को दूर करने की चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि यही तो वास्तविक योग है।
कहा भी है – ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात् समताका नाम ही ‘योग’ है। स्थूल जगत्की सारी विषमताओं से घिरे रहनेपर भी अपनी चित्तवृत्तिको शान्त एवं स्थिर बनाये रखना ही योग का स्वरूप है। भगवान् शिव अपने पारिवारिक सम्बन्धों से हमें इसी योग को शिक्षा देते हैं। देखिये न, बाह्यदृष्टि से आपका परिवार विषमता का जीता-जागता नमूना है। सबके अपने-अपने रास्ते हैं। किसी का किसी के साथ मेल नहीं। आप बैल पर चढ़ते हैं, तो भगवती भवानी सिंहवाहिनी हैं, दोनों का कैसा जोड़ मिला है? आप भुजंगभूषण हैं, तो स्वामी कार्तिकेय को मोर की सवारी पसन्द है और उधर बोदर गणेशजी महाराजको चूहेपर चढ़नेमें ही सुभीता सूझता है। आपने गंगाजीको सिरपर चढ़ा रखा है, जिससे पार्वतीजीको दिन-रात सौतियाडाह हुआ करता होगा। इस प्रकार आपकी गृहस्थी क्या है, मानो झंझट की पिटारी है, मानसिक शान्ति और पारिवारिक सुखके लिये कैसा सुन्दर साज जुटा है? परंतु भगवान् शिव तो प्रेम और शान्ति के अथाह समुद्र एवं सच्चे योगी ठहरे। उनके मंगलमय शासन में सभी प्राणी अपना स्वाभाविक वैर-भाव भुलाकर आपस में तथा संसार के अन्य सब जीवोंके साथ पूर्ण शान्तिमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं। स्वयं उनका तो किसी के साथ द्वेष है नहीं, वे तो आनन्दरूप ही हैं, जो कोई उनके सम्पर्कमें आता है, वह भी आनन्दरूप बन जाता है। उनके चारों ओर आनन्दके ही परमाणु फैले रहते हैं। यही महेशका सबसे महान् गुण है और इसीलिये आप ‘शिव’ (कल्याणरूप) एवं ‘शंकर’ (आनन्ददाता) कहलाते हैं। सारे विरोधोंका सामंजस्यकर उस शान्तिकी उपलब्धि करनी चाहिये, जो बुद्धिसे परेकी वस्तु है, यही अमूल्य शिक्षा हमें शिवजीके चरित्रसे मिलती है।
हम क्षुद्र जीवों को गृहस्थाश्रम में रहकर ही भगवान् शिवको इस शिक्षा को अमल में लाना चाहिये। हममें से प्रत्येक को चाहिये कि वह पार्वती-जैसी योग्य पत्नीका वरणकर स्वामिकार्तिकेय और गणेशजी-जैसी विरुद्ध स्वभाववाली संततिका प्रेमपूर्वक लालन-पालन करे। अपनी धर्मपत्नी के साथ पूर्ण एकात्मता का अनुभव कर, उसकी आत्मामें आत्मा मिलाकर ही मनुष्य आनन्दरूप शिवकी उपलब्धि कर सकता है। वास्तविक योग का स्वरूप यही है, जिसकी सिद्धि संसार में रहकर ही हो सकती है।
यह बिलकुल सीधी-सी बात है कि किसी जंगल में अथवा हिमालय की चोटी पर रहकर कोई भी समता का व्यवहार कर सकता है, परंतु अपने दैनिक जीवन में, नाना प्रकारञ के झंझटों का सामना करते हुए भी जो अक्षुब्ध रह सकता है, वही शिवका सच्चा भक्त है। यही सच्ची समता, जो सत् और चित्के पूर्ण संयोग से उत्पन्न होती है, अर्धनारीश्वर के विग्रह में अभिव्यक्त हुई है।
इसमें पुरुष प्रकृति के संयोगद्वारा माया (द्वन्द्वमय जगत्) के आवरण को भेदकर आनन्दरूप पूर्णताको प्राप्त कर लेता है। तब सारे विरोध मिट जाते हैं और मनुष्य उस स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ न पुरुष है, न प्रकृति, न स्त्री है, न पुरुष- केवल एक अद्वितीय वस्तु – ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ही शेष रह जाता है। वही अनन्त आनन्दकी मूर्ति अर्ध-नारीश्वर शिव हैं। उनका परिवार इस द्वन्द्वात्मक जगत्में ऐक्य का प्रतीक है, जो प्रेम और शान्ति का सन्देश देता है।