श्वेता पुरोहित-
एक नगर में एक सन्त रहते थे। वे प्रसन्न रहते और सात्त्विक जीवन जीते थे। अपनी जीविका चलाने के लिये टोपियाँ सिलकर बेचते और जो भी आमदनी होती, उसमें से एक पैसे की बचत कर के दान कर दिया करते थे। सन्त की कुटिया के सामने ही एक सेठजी रहते थे। सन्त को इस तरह दान करते देख सेठजी के मन में भी एक बात आयी और उन्होंने भी अपनी कमाईसे कुछ राशि निकालकर अलग रखनी शुरू कर दी। जब कुछ राशि जमा हो गयी तो उन्होंने सन्त से जाकर पूछा- ‘महाराज! मैं राशि का क्या करूँ ?’ सन बोले- इसे दीन-दुःखियों को बाँट दो।’
सन्त के कहे अनुसार सेठजी ने वह राशि एक गरीब दुर्बल व्यक्ति को दे दी। सेठजी को आशीर्वाद देता हुआ वह चला गया। सेठजी ने वह दान सहज रूप से नहीं दिया था, केवल सन्त को दान देते देखकर उनके मन में ऐसी भावना जाग्रत् हुई थी। इसलिये सेठजी उस व्यक्ति के पीछे यह देखने चल पड़े कि आखिर वह व्यक्ति मेरे दिये हुए पैसों को किस तरह खर्च करता है। सेठजी ने देखा कि उस व्यक्ति ने उन रुपयों को गलत वस्तुओं के खरीदने में खर्च किया। सेठजी ने जब अपनी राशि का इस तरह दुरुपयोग होते देखा तो उन्हें बड़ी ग्लानि हुई।
उन्होंने पूरी बात सन्त को आकर बतायी। तब सन्त ने उन्हें अपनी आमदनी का एक पैसा देकर कहा- जाओ, इसे किसी आवश्यकता वाले को दे देना और कल अपनी बात का उत्तर लेकर आना। सेठजीने वह एक पैसा भिक्षा माँग रहे एक व्यक्ति को दे दिया और परिणाम जाननेके लिये वे उत्सुकतासे उसके पीछे चल दिये। उन्होंने देखा कि उस व्यक्तिने अपनी झोली से एक चिड़िया निकाली एवं उसे खुले आसमानमें छोड़ दिया और उस एक पैसेसे चने खरीदकर खाये।
सेठसे रहा न गया, आगे बढ़कर उन्होंने उस भिखारीको रोका और पूछा ‘तुमने ऐसा क्यों किया ?’ वह भिखारी बोला- ‘मैं भूखा था, आज कुछ भिक्षा न पाकर मैं चिड़िया पकड़कर लाया था कि भूनकर खा लूँगा, लेकिन जब मुझे एक पैसा मिल गया तो मैंने सोचा कि मैं हत्या क्यों करूँ ?’
यह पूरी घटना भी सेठजी ने सन्त को सुना दी और दोनों घटनाओं का समाधान जानना चाहा। सन्तने कहा – ‘वत्स! महत्ता केवल दान देने की नहीं होती। हमने जो दान दिया है, वह किस साधना से प्राप्त किया है, यह भावना भी धन के साथ जुड़ जाती है। तुम्हारी अनीति की कमाई और बिना परिश्रम का पैसा पाकर उस व्यक्तिने उसे अनीति के कार्यों में लगा दिया और इसमें तुम्हें भी उसका भागीदार होना पड़ेगा और मेरा मेहनत का पैसा जिसके पास गया, उसने उस धनका उचित उपयोग किया। दान करना एक पुण्य कार्य है। दान वह है, जो दानदाता विनम्र और निःस्वार्थ होकर देता है। अपने यश के लिये दिया गया दान, दान न होकर एक व्यवसाय होता है।’