श्वेता पुरोहित-
अकूरजी का जन्म यदुवंश में ही हुआ था। ये कुटुम्ब के नाते से वसुदेवजी के भाई लगते थे। इनके पिता का नाम श्वफल्क था। ये कंस के दरबार के एक दरवारी थे। कंस के अत्याचारों से पीड़ित होकर बहुत-से यहुभ इधर-उधर भाग गये थे, किंतु ये जिस-किसी प्रकार कंस के दरबार में ही पड़े हुए थे।
जब अनेक उपाय करके भी कंस भगवान् को नहीं मरवा सका, तब उसने एक चाल चली। उसने एक धनुषयज्ञ रचा और उस में मल्लों के द्वारा मरवा डालने के लिये गोकुल से गोप-ग्वालों के सहित श्रीकृष बलराम को बुलवाया। उन्हें आदरपूर्वक लाने के लिये अक्रूरजी को भेजा गया। कंस की आज्ञा पाकर अक्रूरजी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। वे भगवान के दर्शन के लिये बड़े उत्कण्ठित थे। किसी-न-किसी प्रकार है भगवान के दर्शन करना चाहते थे। भगवान्ने स्वतः ही कृपा करके ऐसा संयोग जुटा दिया।
जीव अपने पुरुषार्थ से प्रभु के दर्शन करना चाहे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा है। कोटि जन्म में भी उतनी पवित्रत वैसी योग्यता जीव नहीं प्राप्त कर सकता कि जिससे वह परात्पर प्रभुके सामने पुरुषार्थ के बल पर पहुँच सके। जब प्रभु ही अपनी अहैतु की कृपा के द्वारा जीव को अपने समीप बुलाना चाहें, तभी वह वहाँ जा सकत है। प्रभु ने कृपा करके घर बैठे ही अक्रूरजी को बुला दिया।
प्रातःकाल मथुरा से रथ लेकर वे नन्दगाँव भगवान को लेने चले। रास्ते में अनेक प्रकार के मनोरथ करते जाते थे। सोचते थे-अहा, उन पीताम्बरधारी बनवारी को मैं इन्हीं चक्षुओं से देखूँगा, उनके सुन्दा मुखारविन्द को, घुँघराली काली-काली अलकावली से युक्त सुकपोलों को निहारूँगा। वे जब मुझे अपने सुकोमल करकमलों से स्पर्श करेंगे, उस समय मेरे समस्त शरीर में बिजली-सी दौड़ जायगी। वे मुझसे हँस- हँसकर बातें करेंगे। मुझे पास बिठायेंगे। बार-बार प्रेम पूर्वक चाचा-चाचा कहेंगे। मेरे लिये वह कितने सुखकी स्थिति होगी। इस प्रकार भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करते हुए वे वृन्दावन के समीप पहुँचे। वहाँ उन्होंने वज्र, अंकुश, यव, ध्वजा आदि चिह्नोंसे विभूषित श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंको देखा। बस, फिर क्या था। वे उन घनश्यामके चरणचिह्नोंको देखते ही रथसे कूद पड़े और उनकी वन्दना करके उस धूलिमें लोटने लगे। उन्हें उस धूलिमें लोटनेमें कितना सुख मिल रहा था, यह कहनेकी बात नहीं है। जैसे-तैसे व्रज पहुँचे। सर्वप्रथम बलदेवजीके साथ श्यामसुन्दर ही उन्हें मिले। उन्हें छातीसे लगाया, घर ले गये। कुशल पूछी, आतिथ्य किया और सब समाचार जाने।
दूसरे दिन रथपर चढ़कर अक्रूरके साथ श्यामसुन्दर और बलराम मथुरा चले। गोपियों ने उनका रथ घेर लिया, बड़ी कठिनता से वे आगे बढ़ सके। थोड़ी दूर चलकर यमुना किनारे अक्रूरजी नित्य-कर्म करने ठहरे। स्नान करनेके लिये ज्यों ही उन्होंने डुबकी लगायी कि भीतर चतुर्भुज श्रीश्यामसुन्दर दिखायी दिये। घबराकर ऊपर आये तो दोनों भाइयोंको रथपर बैठे देखा। फिर डुबकी लगायी तो फिर वही मूर्ति जलके भीतर दिखायी दी। अक्रूरजी को ज्ञान हो गया कि जल में, स्थलमें, शून्य में कोई भी ऐसा स्थान नहीं, जहाँ श्यामसुन्दर विराजमान न हों। भगवान् उन्हें देखकर हँस पड़े। वे भी प्रणाम करके रथपर बैठ गये। मथुरा पहुँच कर भगवान् रथपर से उतर पड़े और बोले- हम अकेले ही पैदल जायँगे। अक्रूरजीने बहुत प्रार्थना की- आप रथपर पहले मेरे घर पधारें, तब कहीं अन्यत्र जायें। भगवान्ने कहा- आपके घर तो तभी जाऊँगा, जब कंसका अन्त हो जायगा। अक्रूरजी दुखी मन से चले गये।
कंसको मारकर भगवान् अक्रूरजी के घर गये। अब अक्रूरजी के आनन्द का क्या ठिकाना ! जिनके दर्शन के लिय योगीन्द्र-मुनीन्द्र हजारों-लाखों वर्ष तपस्या करते हैं, वे स्वतः ही बिना प्रयासके घरपर पधार गये। अक्रूरजी ने उनकी विधिवत् पूजा की और कोई आज्ञा चाही। भगवान्ने अक्रूरजी को अपना अन्तरंग सुहृद् समझकर आज्ञा दी कि हस्तिनापुरञमें जाकर हमारी बूआ के लड़के पाण्डवों के समाचार ले आइये। हमने सुना है, धृतराष्ट्र उन्हें दुःख देता है। भगवान की आज्ञा पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गये और धृतराष्ट्र को सब प्रकार से समझाकर और पाण्डवों के समाचार लेकर लौट आये।
भगवान् जब मथुरापुरी को त्यागकर द्वारका पधारे, तब अक्रूरजी भी उनके साथ ही गये। अक्रूरजी इतने पुण्यशील थे कि वे जहाँ रहते, वहाँ खूब वर्षा होती, अकाल नहीं पड़ता। किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते। एक बार वे जब किसी कारणवश द्वारका से चले गये थे, तब द्वारका में दैविक और भौतिक दुःखों से प्रजा को बड़ा भारी मानसिक और शारीरिक कष्ट सहना पड़ा था। आखिर भगवान्ने उनको ढूँढ़वा कर वापस बुलवाया। ये सम्बन्ध में भगवान् श्रीकृष्ण के चाचा होनेपर भी उनके सच्चे भक्त थे। अन्त में भगवान के साथ ही वे परम धाम को पधारे।
ऐसे परम भागवत भक्त अक्रूरजी को कोटि कोटि प्रणाम 🙏🪷
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥
- श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रम्
अक्रूर भगवान विष्णु का ही एक नाम है।
अक्रूर का अर्थ होता है जिनमे क्रूरता नहीं होती। क्रूरता मन का धर्म है, वह क्रोध से उत्पन्न होने वाला अभिनिवेश युक्त आन्तरिक सन्ताप है, आप्तकाम होने से तथा कामनाओं का अभाव होने से भगवान् में क्रोध का अभाव है, अतः भगवान् में क्रूरता नहीं हैं, इसलिए वे अक्रूर हैं।