कोरोना वायरस को लेकर ज्यों ज्यों विश्व की नाराजगी चीन से बढ्ती जा रही है, वैसे वैसे दूसरे मुद्दों को लेकर चीन की वर्षों से चली आ रही दमनकारी नीतियों पर भी सवाल उठना शुरू हो गये हैं.
हाँग कांग और ताइवान से लेकर तिब्बत की आजादी के मुद्दे ने भी अब तूल पकड़ किया है. चीन ने सोचा कि पूरा विश्व तो कोरोना वायरस से उबरने में व्यस्त है. ऐसे में उसे लगा कि वह हाँग कांग, ताइवान, तिब्बत आद्दि मुद्दों पर अपनी मनमानी करेगा और किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाएगा.
लेकिन इस बार भू राजनीतिक समीकरणों की गणित को नापने के मामले में चीन से बहुत बड़ी गलती हो गयी. सबसे बड़ा झटका उसे भारत से लगा जिसने न सिर्फ उसकी 59 एप्स प्रतिबंधित कर दीं बल्कि गलवान मुठ्भेड़ में भी भारत उस पर भारी पड़ा. और फिर प्रधानमंत्री मोदी ने लद्दाख में जो वक्तव्य दिया और बिना नाम लिये चीन पर ज़ोरदार प्रहार किया, यह भारत की चीन के प्रति बदलती नीति का सशक्त द्योतक है.
एक ऐसा मुद्दा जिसने गलवान मुठ्भेड़ के बाद सबसे ज़्यादा आग पकड़ ली है, वह है तिब्बत की स्वतंत्रता का मुद्दा. कोरोना वायरस की वजह से चीन की अंतराष्ट्रीय मंच पर बढ़्ती आलोचना के चलते अब तिब्बती लोगों को और वहां की सरकार में अब यह विश्वास प्रबल हो उठा है कि तिब्बत बहुत जल्द ही चीन की गिरफ्त से बाहर होगा, तिब्बत बहुत जल्द ही एक आज़ाद राष्ट्र होगा.
सेंटृल टिबेटन एसोसियेशन के अध्यक्ष लोबसांग संगाय ने इस सोमवार को कहा कि वूहान से शुरू हुई महामारी की वजह से तिब्बत अपने अधिकारों की लड़ाई से पीछे नहीं हटेगा. इसके विपरीत तिब्बती लोग अपने अधिकारों की लड़ाई में निरंतर आगे बढ्ते रहेंगे. संगाय ने भारत को हमेशा से तिब्बती लोगों के अधिकारों का समर्थन करने के लिये धन्यवाद दिया. उन्होने कहा कि भारत ने हमेशा से ही ऐसे समय में तिब्बतियों के अधिकारों का समर्थन किया है जब तिब्बत की निर्वासित सरकार भारत से ही चल रही है.
भारत में बसे तिब्बती लोग हमेशा से ही यह चाहते हैं कि भारत तिब्बत को चीन से स्वतंत्रता दिलाने में महत्व्पूर्ण भूमिका निभाये. और कहीं न कहीं उन्हे ऐसी उम्मीद भी है कि भारत सही समय आने पर अवश्य ऐसा करेगा. और गलवान मुट्ठ्भेड़ के बाद यह उम्मीद और भी अधिक प्रबल हो गयी है. वैसे भू राजनीतिक विशेषज्ञों का भी यही कहना है कि तिब्ब्बत की चीन से स्वतंत्रता भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी बहुत ज़रूरी है. यदि तिब्बत स्वतंत्र हो जायेगा तो भारत और चीन के मिले जुले बार्डर का सारा खतरा ही समाप्त हो जायेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस सरकार के अतर्गत शायद देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि चीन के तेवर आक्रामक से डिफेंसिव हो चले हैं. यानि चीन अब चिंता में दिखाई पड़ा है जिसकी एक बड़ी वजह भारत द्वारा किया गया चीनी सामान का आर्थिक बांयकाट भी है. लेकिन तिब्बत के मुद्दे की ओर वापस आते हुए, चीन की भारत में जो ज़रूरत से ज़्यादा दिलचस्पी रही है, उसकी एक बड़ी वजह तिब्बत का मुद्दा है. 1950 के दशक में चीन ने तिब्बत को हथियाने में भी दोस्ती और भाईचारे की आड़ में भारत का बखूबी इस्तेमाल किया. स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री कम्यूनिज़्म के प्रति अपने मोह की वजह से चीन के साथ लगतार ज़रुरत से कहीं अधिक नरमी से पेश आते रहे और कम्यूनिस्ट चीन को मौके पर मौके मिलते रहे अपने सैनिकों को धीरे धीरे भारत की धरती में घुसाकर लाइन आंफ कंट्रोल को अपने मन मुताबिक बदलने के.
क्लाउड अरपी , एक विश्व विख्यात पत्रकार, लेखक और इतिहासकर हैं. ये फ्रान्सीसी मूल के हैं, इनका जन्म फ्रांस का है लेकिन ये कई वर्षों से भारत में ही रहते हैं. अरपी तिब्बत के मामलों के विशेष जानकर हैं. इन्होने तिब्बत. चीन और भारत, तीनों के आपसी संबंधों पर काफी कुछ लिखा है. तो क्लाउड अरपी ने अपने एक लेख में इस बात का खुलासा किया है कि किस प्रकार पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासन काल में, 1950 के दशक में, भारत चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिकों को चावल सप्लाई कर रहा था! वही आर्मी जो कि उस समय धीरे धीरे कर तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा जमा रही थी, उसी आर्मी की भोजन संबंधी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये भारत उसे चावल मुहैया करा रहा था.
क्लाउड अरपी का यह विस्तृत लेख उनके ब्लाग पर भी मौजूद है जहां आप सब इसे पढ सकते हैं. लेख में उन्होने पूरे एतिहासिक घट्नाक्रम का तथ्यों के सथ उल्लेख करते हुए बड़े ही रोचक तरीके से समझाया है कि किस प्रकार पंडित जवाहरलान नेहरू ने तिब्बत पर कब्ज़ा करने के लिये तैनात चीनी सैनिकों को राशन यानि चावल मुहैया कराने के लिये एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया. और किस प्रकार 1959 में चीन के तिब्बत पर कब्ज़ा कर लेने के बाद भी उनकी आंखें नही खुलीं और वे चीन को अपीज़ करने में, उसे खुश करने में मग्न रहे. 1962 के भारत चीन युद्ध से पहले के घट्नाक्रम का भी इस लेख में उल्लेख है कि किस प्रकार नेहरू ने चीन की तरफ से बढ्ते खतरे को गंभीरता से नही लिया , उससे जुड़ी हर चेतावनी को हल्के में लिया जिसका परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ा.
क्लाउड अरपी इस बात की ओर सबका ध्यान केंद्रित करते हैं कि किस प्रकार नेहरू ने भारत चीन दोस्ती की दुहाई दे देकर एक के बाद एक चीन से संबधित गलत फैसले लेकर उसे तिब्बत पर कब्ज़ा करने का, अपनी खुद की सीमा में घुसपैठ करने का खुला न्यौता दिया.
http://claudearpi.blogspot.com/2014/10/when-india-was-feeding-pla.html
पंडित जवाहरलाल नेहरू की इन गलतियों का खामियाजा राष्ट्र आज भी भुगत रहा है. और इस समय इस बात को याद करने की इसीलिये आवश्यकता है क्योंकि नेहरू के काल में बनाई गयी चाइनीज़ अपीज़मेंट नीति से अब भारत काफी दूर जा चुका है. जिस देश की सरकार ने अपनी खुद की ही सीमा पर घुसपैठ की तैयारी कर रहे सैनिकों को चावल मुहैया कराया, वही देश आज उस पड़ोसी मुल्क की एप्स पर प्रतिबंध लगा रहा है, उस देश के लोग वहां की वस्तुओ को आग में जलाकर उनका बहिष्कार कर रहे हैं. तो भारत सरकार के लिये शायद यही सही समय है कि वह तिब्बत की आजादी के मुद्दे को बड़ी ही साफगोई से उठाये. उसे अब चीन के साथ डिफेंसिव रहने की कोई आवश्यकता नहीं है. और चीन एक ऐसा देश है जिसके साथ अगर शांत और नरम रहो तो वह दूसरे को मूर्ख समझ कर और प्रहार करता है. और यह बात अब भारत सरकार को भली भांति समझ आ चुकी है.