केसी त्यागी। सुप्रीम कोर्ट की ओर से सामान्य वर्ग के निर्धनों को दस प्रतिशत आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को उचित ठहराने के बाद जिस तरह झारखंड सरकार ने आरक्षण की सीमा 77 प्रतिशत करने का एक प्रस्ताव पारित किया, उससे स्पष्ट है कि इस फैसले का दूरगामी असर होने जा रहा है। 1990 में मंडल कमीशन की अनुशंसा लागू किए जाने के बाद जब आरक्षण विरोधी आंदोलन जोर पकड़ रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करेगी। उनके इस्तीफे के बाद यह प्रश्न मृतप्राय हो गया।
इसके पहले ऐसी ही पहल बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने की थी। 1971 में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण के स्वरूप को समावेशी बनाने के लिए मुंगेरी लाल कमीशन का गठन किया था। 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने पर वह दोबारा मुख्यमंत्री बने और 1978 में उन्होंने न सिर्फ पिछड़े वर्गों को दो भागों में बांटकर उनके आरक्षण की सीमा रेखा निर्धारित की, बल्कि आजादी के बाद पहली बार सामान्य वर्गों और महिलाओं के लिए अलग से तीन-तीन प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। यह अपनी तरह की अनूठी पहल थी। कर्पूरी ठाकुर सरकार ने आठ प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों और 12 प्रतिशत अति-पिछड़ों के लिए तय किया। जनता पार्टी के अंदर ही इन प्रस्तावों का तीव्र विरोध हुआ और कर्पूरी ठाकुर को इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद 2011 में नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग का गठन कर इन वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक आधार की जांच पड़ताल करने की हिमायत की। आयोग ने अपनी रपट भी तैयार कर ली, लेकिन उसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सका।
1991 में केंद्र की नरसिंह राव सरकार ने सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया, लेकिन 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया। 2003 में वाजपेयी सरकार द्वारा भी इसी सिलसिले में एक मंत्री समूह का गठन किया गया, लेकिन 2004 में यह सरकार सत्ता से बाहर हो गई और इस तरह यह प्रश्न पुन: ठंडे बस्ते में चला गया। 2006 में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने एक कमेटी का गठन कर आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण व्यवस्था के दायरे में लाने का प्रयास किया, पर इसका भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।
2019 में मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण से संबंधित 103वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित कराया। इसके विरुद्ध करीब 50 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं। हाल में इन याचिकाओं पर पांच न्यायाधीशों की पीठ ने खंडित, लेकिन बहुमत से फैसला देकर आरक्षण और सामाजिक न्याय के संदर्भ में नई अवधारणाओं को जन्म दिया है। इस फैसले को लेकर प्रतिक्रियाओं का सिलसिला कायम है। इसलिए और भी कायम है, क्योंकि 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ सर्वसम्मत फैसला सुना चुकी है कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ेगी, जबकि ताजा फैसले के बाद यह सीमा 60 प्रतिशत हो गई है।
तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अस्वीकार कर दिया है। उसने इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की घोषणा की है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक समेत तमिलनाडु के अन्य दलों ने भी इसका विरोध करने का फैसला किया है। इनमें कांग्रेस पार्टी भी शामिल है। इसी के साथ जातिगत जनगणना की मांग तेज हो गई है और ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने की भी। इसके अतिरिक्त आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग भी तेज हो रही है। वास्तव में इस मांग को राष्ट्रीय स्तर पर पूरा करने का समय आ गया है।
वर्तमान में तमिलनाडु में 79, हरियाणा में 70, महाराष्ट्र में 68, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में 59.5-59.5 प्रतिशत आरक्षण है। झारखंड ने हाल में आरक्षण सीमा 77 प्रतिशत करने का विधेयक पारित किया है, लेकिन वह तभी कानून बन सकता है, जब उसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। एक तरह से गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है। जो भी हो, अब आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग को लंबे समय तक स्थगित किया जाना असंभव सा है। बिहार में नीतीश सरकार इसी दिशा में सक्रिय है।
आरक्षण के भीतर आरक्षण की एक पहल राजनाथ सिंह ने तब की थी, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने आरक्षण के भीतर आरक्षण लागू करने के लिए एक समिति का गठन किया था, जिसने 79 पिछड़ी जातियों को तीन हिस्सों में बांटकर आरक्षण देने की बात की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की ओर से इसे खारिज कर दिया गया। केंद्र सरकार की ओबीसी आरक्षण सूची में कुल 2,633 जातियों में 19 जातियों को 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिला है। इनमें 25 प्रतिशत जातियां 97 प्रतिशत आरक्षण का लाभ ले रही हैं। इसके अलावा 983 जातियां ऐसी हैं, जिन्हें आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है।
2017 में केंद्र सरकार ने जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था, ताकि वह ओबीसी आरक्षण के उप-वर्गीकरण की संभावना तलाश सके। कहा जा रहा है कि रिपोर्ट लगभग तैयार है। जो भी हो, अब इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। यदि इस रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर अमल किया जाता है तो इसके दूरगामी सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम निकलेंगे। जो भी हो, यह संतोषजनक है कि सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार मानने को लेकर अभी बहस की संभावना न के बराबर है।