शंकर शरण : केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने न्यायिक नियुक्तियों की कोलेजियम वाली मौजूदा व्यवस्था को अनुचित बताया है। उन्होंने कहा कि इस व्यवस्था से लोग अप्रसन्न हैं और यह न्यायाधीशों की आपसी राजनीति से ग्रस्त हो गई है। वरिष्ठ न्यायाधीश अपने मूल दायित्व से अधिक अगली नियुक्तियों की चिंता में रहते हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि जजों का आधा समय और दिमाग अगला जज तय करने में खर्च होता है और ऐसी नियुक्ति व्यवस्था संविधान की भावना से भी परे है। जजों का काम न्याय करना है। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं कि जज ही जजों की नियुक्ति करे।
नि:संदेह रिजिजू के शब्द में आलोचना का कटु स्वर सुनाई पड़ सकता है, लेकिन लंबे समय से इस पर चर्चा हो रही है। सुप्रीम कोर्ट के कई जज भी बदलाव के लिए आवाज उठा चुके हैं। कुछ वर्ष पहले जस्टिस कर्णन मामले पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए थे। तब कानून मंत्री ने तो यहां तक कह दिया था कि जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका कर रही थी, तब तक कर्णन जैसे न्यायाधीश नहीं हुए।
उनका संकेत साफ था कि जबसे न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं न्यायपालिका ने अपने हाथ में ली, तबसे नियुक्तियों की गुणवत्ता में गिरावट देखने को मिली है। यह बात सच के करीब लगती है। इस व्यवस्था में ऐसे-ऐसे न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट आ गए, जो हाई कोर्ट में ही रोजाना घंटों विलंब से आते थे। कई न्यायाधीशों ने पूरे कार्यकाल में कोर्ट में एक शब्द तक नहीं कहा। न ही कोई फैसला लिखा। एक न्यायाधीश ने जजमेंट लिखने में देरी के सवाल पर तुनक कर जबाव दिया था कि उन्हें ‘जजमेंट लिखने का वेतन नहीं मिलता।’ ऐसे उदाहरण दिखाते हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार न्यायपालिका के पास आने के बेहतर परिणाम नहीं मिले।
न्यायाधीशों की नियुक्ति में आपसी राजनीति, भाई-भतीजावाद और अनुचित व्यवहार की चर्चा सुप्रीम कोर्ट के गलियारों में भी आम है। यदि किसी शीर्ष न्यायाधीश का कार्यकाल कुछ महीने भर का हो तो उसे कोलेजियम मीटिंग में भी अन्य वरिष्ठ जजों का सहयोग नहीं मिलता। भाई-भतीजावाद पर तो ‘अंकल जज’ का मुहावरा ही बन गया है। अनुपयुक्त व्यवहार के अन्य उदाहरण भी दिखते रहे हैं। हाल में एक जज ने एक कार्यक्रम में उस व्यक्ति के साथ बैठकर उसी से सम्मान ग्रहण किया, जिसका मामला सुप्रीम कोर्ट की पीठ में चल रहा था।
कोलेजियम पद्धति में एक गड़बड़ी यह भी है कि अगले न्यायाधीशों की अनुशंसा करने वाली बैठक का कोई ब्योरा नहीं रखा जाता। यानी बैठक में किन प्रस्तावित नामों पर किस जज ने क्या कहा, किसी की अनुशंसा करने, न करने के पक्ष-विपक्ष में क्या बातें कही गईं, आदि का कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। यह विचित्र है, क्योंकि निचले स्तर की सरकारी बैठकों तक के विवरण दर्ज करना एक नियम है। इससे निर्णय की प्रामाणिकता और पारदर्शिता रिकार्ड में रहती है। ऐसे में न्यायाधीशों की नियुक्ति की अनुशंसा करने की कार्रवाई का कोई विवरण न रखना आश्चर्यजनक है। इससे निर्णयों का औचित्य और प्रामाणिकता भी संदिग्ध हो जाती है।
यह अनजाने भी नहीं हो रहा है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ जज ने यह मांग की थी और मांग नहीं माने जाने पर कोलेजियम बैठक में शामिल होने से मना कर दिया था। इसके बाद भी वही प्रक्रिया चलती रही। इसे जैसे भी देखें, उचित ठहराना कठिन है। सभी से पारदर्शिता की मांग करना, जबकि स्वयं द्वारा की जाने वाली नियुक्ति के विवरण को दर्ज न करना आश्चर्यजनक है।
रिजिजू की यह बात भी अकाट्य है कि संविधान ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका को दिया था। 1950 से 1993 तक यही व्यवस्था रही। फिर सुप्रीम कोर्ट ने सर्वोच्च न्यायाधीश से ‘सलाह’ लेने का अर्थ उसकी ‘स्वीकृति’ जैसा करके अपनी अनुशंसा वाली ‘कोलेजियम’ व्यवस्था बना दी, जबकि कोई सलाह मानना या न मानना वैकल्पिक होता है। कोलेजियम व्यवस्था का तीन दशकों का अनुभव दिखाता है कि उसके परिणाम अच्छे नहीं हुए। इस पर न्यायाधीशों ने भी अपनी आपत्ति उठाई है। इसलिए कोलेजियम पद्धति पर पुनर्विचार जरूरी हो गया है। न्यायपालिका में आंतरिक अवमूल्यन को लेकर भी जस्टिस सव्यसाची मुखर्जी और जस्टिस रूमा पाल आदि ने भी जो प्रश्न उठाए हैं, उनका निराकरण जरूरी है।
मौजूदा व्यवस्था के बचाव में ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ का तर्क दिया जाता है, लेकिन ध्यान रहे कि संविधान ने राजव्यवस्था के तीनों अंगों को स्वतंत्रता दी है। अतः उस तर्क से संसद और विधानसभाओं तथा केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडलों को भी अपने अगले उत्तराधिकारी स्वयं तय कर लेने की छूट होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों के कोलेजियम की तर्ज पर वरिष्ठ सांसदों या मंत्रियों का कोलेजियम ही अनुशंसा करे कि अगले सांसद और मंत्री कौन-कौन होंगे। आखिर न्यायिक स्वतंत्रता की तरह विधायिका, कार्यपालिका को भी स्वतंत्रता उसी संविधान ने दी है। इसीलिए आदर्श राजव्यवस्था में तीनों अंगों के बीच ‘शक्तियों का पृथक्करण’ किया गया है। अमेरिका में भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका करती है। फिर उस चयन की स्वीकृति या अस्वीकृति विधायिका देती है। यानी अमेरिका में भी जज स्वयं अगले जजों की अनुशंसा नहीं करते हैं। यही सरकार के तीनों अंगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ उनकी निगरानी एवं संतुलन वाली व्यवस्था है।
भारतीय कोलेजियम व्यवस्था एक विकृति ही है। न्यायाधीशों का अपने उत्तराधिकारी तय करना और सेवानिवृत्ति के बाद भी राजकीय आयोगों, अधिकरणों में नियुक्ति और यहां तक कि किसी पार्टी का कार्यकर्ता और सांसद बनने का विकल्प खुला रखना जैसे पहलू उनके मूल न्यायिक कार्य को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करते हैं। ये संभावनाएं किसी रिटायर होने वाले जज पर अवांछनीय प्रभाव डाल सकती हैं। इसीलिए, पूर्व कानून मंत्री अरुण जेटली ने भी सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की पुनः उच्च राजकीय पदों पर नियुक्ति को अनुपयुक्त कहा था। स्पष्ट है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और सेवानिवृत्ति के बाद उनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया में परिवर्तन आवश्यक है।