श्वेता पुरोहित-
एक बार की बात है। भक्तराज हनुमान् रामसेतु के समीप ध्यान में अपने परम प्रभु श्रीराम की भुवनमोहिनी झाँकी का दर्शन करते हुए आनन्दविह्वल थे। ध्यानावस्थित आंजनेय को बाह्य जगत्की स्मृति भी न थी।
उसी समय सूर्यपुत्र शनि समुद्रतट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे – ‘मुझ में अतुलनीय शक्ति है। सृष्टि में मेरी समता करनेवाला कोई नहीं है।’
इस प्रकार विचार करते हुए शनिकी दृष्टि ध्यानमग्न श्रीरामभक्त हनुमान्पर पड़ी। उन्होंने वज्रांग महावीरको पराजित करनेका निश्चय किया। युद्धका निश्चयकर शनि आंजनेयके समीप पहुँचे। उस समय सूर्यदेवकी तीक्ष्णतम किरणों में शनि का रंग अत्यधिक काला हो गया था। भीषणतम आकृति थी उनकी।
पवनकुमार के समीप पहुँचकर अतिशय उद्दण्डताका परिचय देते हुए शनिने अत्यन्त कर्कश स्वरमें कहा- ‘बन्दर! मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूँ और तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। तुम पाखण्ड त्यागकर खड़े हो जाओ।’
तिरस्कार करनेवाली अत्यन्त कटुवाणी सुनते ही भक्तराज हनुमान्ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शान्तिसे पूछा- ‘महाराज! आप कौन हैं और यहाँ पधारनेका आपका उद्देश्य क्या है?’
शनिने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया- ‘मैं परम तेजस्वी सूर्यका परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत् मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुषकी कितनी ही गाथाएँ सुनी हैं। इसलिये मैं तुम्हारी शक्तिकी परीक्षा करना चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशिपर आ रहा हूँ।’
अंजनानन्दनने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा- ‘शनिदेव ! मैं वृद्ध हो गया हूँ और अपने प्रभुका ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यवधान मत डालिये। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’
मदमत्त शनिने सगर्व कहा- ‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहाँ जाता हूँ, वहाँ अपना प्राबल्य और प्राधान्य तो स्थापित ही कर देता हूँ।’
कपिश्रेष्ठने शनिदेवसे बार-बार प्रार्थना की- ‘महात्मन् ! मैं वृद्ध हो गया हूँ। युद्ध करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान् श्रीरामका स्मरण करने दीजिये। आप यहाँसे जाकर किसी और वीरको ढूँढ़ लीजिये। मेरे भजन – ध्यानमें विघ्न उपस्थित मत कीजिये।’
‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती।’ अत्यन्त उद्धत शनिने मल्लविद्याके परमाराध्य वज्रांग हनुमान्की अवमाननाके साथ व्यंग्यपूर्वक तीक्ष्णस्वरमें कहा- ‘तुम्हारी स्थिति देखकर मेरे मनमें करुणाका संचार हो रहा है, किंतु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूँगा।’
इतना ही नहीं, शनिने दुष्टग्रहनिहन्ता महावीरका हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्धके लिये ललकारने लगे। हनुमान्ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। युद्धलोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमान्का हाथ पकड़कर उन्हें युद्धके लिये खींचने लगे।
‘आप नहीं मानेंगे।’ धीरे-से कहते हुए पिशाचग्रह- घातक कपिवरने अपनी पूँछ बढ़ाकर शनिको उसमें लपेटना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षणोंमें अविनीत सूर्यपुत्र क्रोधसंरक्तलोचन समीरात्मजकी सुदृढ़ पुच्छमें आकण्ठ आबद्ध हो गये। उनका अहंकार, उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वे सर्वथा अवश, असहाय और निरुपाय होकर दृढ़तम बन्धनकी पीड़ासे छटपटा रहे थे।
‘अब रामसेतुकी परिक्रमाका समय हो गया।’ अंजनानन्दन उठे और दौड़ते हुए सेतुकी प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेवकी सम्पूर्ण शक्तिसे भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। भक्तराज हनुमान्के दौड़नेसे उनकी विशाल पूँछ वानर-भालुओंद्वारा रखे गये शिलाखण्डोंपर गिरती जा रही थी। वीरवर हनुमान् दौड़ते हुए जान- बूझकर भी अपनी पूँछ शिलाखण्डोंपर पटक देते थे।
शनिकी बड़ी अद्भुत एवं दयनीय दशा थी। शिलाखण्डोंपर पटके जानेसे उनका शरीर रक्तसे लथपथ हो गया। उनकी पीड़ाकी सीमा नहीं थी और उग्रवेग हनुमान्की परिक्रमामें कहीं विराम नहीं दीख रहा था। तब शनि अत्यन्त कातर स्वरमें प्रार्थना करने लगे – ‘करुणामय भक्तराज ! मुझपर कृपा कीजिये। अपनी उद्दण्डताका दण्ड मैं पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिये। मेरे प्राण छोड़ दीजिये।’
दयामूर्ति हनुमान् खड़े हुए। शनि का अंग-प्रत्यंग लहूलुहान हो गया था। असह्य पीड़ा हो रही थी, उनकी रग-रगमें। विनीतात्मा समीरात्मजने शनिसे कहा- ‘यदि तुम मेरे भक्तकी राशिपर कभी न जानेका वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूँगा।’
‘सुरवन्दित वीरवर ! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशिपर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ासे छटपटाते हुए शनिने अत्यन्त आतुरतासे प्रार्थना की – ‘आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धनमुक्त कर दीजिये।’
शरणागतवत्सल भक्तप्रवर हनुमान्ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी मारुतात्मजके चरणोंमें सादर प्रणाम किया और वे चोटकी असह्य पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देहपर लगाने के लिये तेल माँगने लगे। उन्हें जो तेल प्रदान करता है, उसे वे सन्तुष्ट होकर आशिष देते हैं। कहते हैं, इसी कारण अब भी शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है ।
🌿🪷 इसीलिए ज्योतिष में शनि मंगल की मेष राशि में नीच के हो जाते हैं और शनि की मकर राशि में मंगल उच्चता को प्राप्त होते हैं।
ॐ हं हनुमंताय नम:
ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय
सर्वशत्रुसंहारणाय
सर्वरोग हराय
सर्ववशीकरणाय
रामदूताय स्वाहा
जय सियाराम 🙏🚩
मंगलमूर्ति सब का कल्याण करें 🙏🚩