विपुल रेगे। सन 2000 में पहली बार भारत में एक सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट ‘ऑरकुट’ से भारत का परिचय होता है। ये एक छोटी लहर थी, जो ठीक दो दशक बाद सूचनाओं की बड़ी सुनामी लेकर आने वाली थी। भारत का आमजन इस विधा से भयंकर ढंग से प्रभावित होने जा रहा था। ऑरकुट, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्वीटर वर्तमान भारत के सोशल मीडियाई स्तंभ बन चुके हैं। विगत चौबीस वर्ष में सोशल मीडिया ने भयंकर ढंग से अपना विस्तार किया है। इसका विस्तारित रुप डराने लगा है। इसकी विकृतियाँ समाज में उभरने लगी है। भारत में उभरता जा रहा ‘रील कल्चर’ एक नई समस्या बन गया है। इसे देखने वाले और इसे बनाने वाले एक मानसिक विकृति की ओर चल पड़े हैं लेकिन उन्हें इस बात का अहसास तक नहीं रहा है।
शुरुआती दौर में सोशल मीडिया का प्रभाव नगण्य था। टीवी और सिनेमा ही मनोरंजन का मुख्य स्रोत हुआ करता था। सन 2000 में ‘रील’ जैसे साधनों के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। जब हम फेसबुक पर पहुंचे तो वह शुरुआती दौर में केवल लिखने और फोटो पोस्ट करने की अनुमति देता था। बाद में इस पर वीडियो फीड की एक नई प्रथा शुरु कर दी गई। उस समय समाज के जागरुक लोगों ने ये चेतावनी दी थी कि सोशल मीडिया अब हमारे जीवन को प्रभावित करने के लिए पूरी तरह तैयार है। हालाँकि जागरुक लोगों की बात इस समाज ने कब मानी थी। आज 2024 में हम स्वयं को सोशल मीडिया पोस्ट और वीडियो रील्स की फीड में दबे पा रहे हैं।
एक मनुष्य होने के नाते हमारी जागरुकता, हमारी संवेदना कितनी ख़त्म हुई है, ये तो शोध का विषय है। जब एक रीलन (रील बनाने वाली लड़की ) प्रधानमंत्री के कट आउट के संग खड़ी होकर रील बनाने लगे तो समझ लेना चाहिए कि ‘रीलबाज़ी’ में भारत किस स्तर पर जा पहुंचा है। दिल्ली मेट्रो में प्रतिदिन यात्रा करने वाले इन रील बनाने वालों के कारण दहशत में हैं। रेलवे स्टेशन, सब्जी मंडी, नेता का कटआउट, ट्रेफिक सिग्नल तक नहीं छोड़ा है इन लोगों ने। सार्वजनिक स्थान पर ठुमके लगाते इन युवाओं के कारण जनता कितनी असहज हो जाती है, काश ये जान पाते। सिविक सेन्स यानि नागरिकता के बोध का यूँ विलुप्तीकरण हो जाना डराता है।
भारत में रील कल्चर 2020 तक लोगों ने स्वीकार करना शुरु कर दिया था। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में इंस्टाग्राम पर बिताया जाने वाला औसत समय 3.5% बढ़ गया है। कई लोग इस सुविधा को स्क्रॉल करने और यहां तक कि अपनी पोस्ट रिकॉर्ड करने में घंटों बिता रहे हैं। यानि रील से देखने वाला और दिखाने वाला दोनों ही संक्रमित हो रहे हैं। लगातार रील्स देखने से मानसिक अवसाद और बेचैनी बढ़ती जा रही है। रील्स का सम्मोहन ऐसा है कि तीस-तीस सेकंड की रील देखते-देखते घंटों बीत जा रहे हैं। रोजमर्रा का कार्य प्रभावित होने लगा है। जल्दी पैसा और शोहरत कमाने का लालच इन रील बनाने वालों से कुछ भी करा रहा है। रील बनाने का जुनून मानसिक रोग बनता जा रहा है।
इसी साल की शुरुआत में बिहार के बेगूसराय में एक व्यक्ति की उसकी पत्नी और ससुराल वालों ने गला दबाकर हत्या कर डाली। महेश्वर कुमार राय ने अपनी पत्नी के रील बनाने का विरोध किया था और ये विरोध उसकी जान पर भारी पड़ गया। अभी दो दिन पहले 17 फरवरी को ही छत्तीसगढ़ में रचना नामक एक महिला ने आत्महत्या कर ली क्योंकि पति उसे सोशल मीडिया पर रील नहीं बनाने दे रहा था। रील बनाने वाले इन दिनों ‘वंदे भारत एक्सप्रेस’ पर टिड्डों की तरह टूट पड़े हैं। युट्यूबर्स और वीडियो ब्लॉग बनाने वालों के कारण ट्रेन में इतनी भीड़ हो गई है कि रेलवे प्रशासन को चालानी कार्रवाई करनी पड़ रही है। जब रेलवे ने स्टेशन पर आरपीएफ के जवानों को इनसे निबटने के लिए तैनात करना शुरु किया तो इन रीलवालों ने उनके भी वीडियो बनाने शुरु कर दिए। उन्हें हर हाल में एक सनसनीखेज वीडियो चाहिए होता है। या तो उसमे लड़की ठुमके लगा रही हो या उसमे कोई न कोई विवाद हो।
इसी माह वेलेंटाइन डे के एक दिन बाद 15 फरवरी को कर्नाटक के चामराज नगर में रहने वाले कुमार ने आत्महत्या कर ली। कुली का काम करने वाले कुमार को पसंद नहीं था कि उसकी पत्नी रील बनाकर इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर रही थी। कुमार ने पेड़ से लटककर फांसी लगा ली। पिछले साल आईआइएम अहमदाबाद ने सोशल मीडिया पर एक शोध किया था। इस स्टडी में पता चला कि भारत में लोग अपने दिन के 3 घंटे 14 मिनट सोशल मीडिया पर बिताते हैं। इस स्टडी से ये भी पता चला कि कि इंस्टाग्राम पर एक दिन में 1 करोड़ 76 लाख घंटे की रील्स देखी जाती हैं। ये आंकड़ा केवल एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का है।
रील्स बनाने का शौक संबंधों को तोड़ रहा है। मध्यप्रदेश के एक कुटुंब न्यायालय में एक पति अपनी गुहार लेकर आया था। पत्नी अक्सर उस पर रील बनाने का दबाव बनाती रहती है। पता चला है कि एक साल में कुटुंब न्यायालय में करीब 70 प्रतिशत ऐसे मामले आए हैं, जिसमें पत्नियों द्वारा इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय होने के कारण दंपती के बीच रिश्ते दरकना एक बड़ा कारण माना जा रहा है। जो किस्सा सन 2000 से शुरु हुआ था, उसके साइड इफेक्ट्स समाज में झलकने लगे हैं।
इन चौबीस वर्षों में सोशल मीडिया रिश्ते तक तुड़वाने के लिए ज़िम्मेदार बन गया है। यदि इसे यहाँ न रोका गया तो अगले दस वर्ष में देश का माहौल क्या होगा, ये समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। इसकी शुरुआत के समय भी कुछ जागरुक लोगों ने चेतावनी दी थी लेकिन समाज नहीं माना। एक मोबाइल अभी और कितना कहर ढाएगा, कहना मुश्किल है।