एक पूर्व सैनिक की आत्महत्या पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की राजनीति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। कल दिन भर चले हंगामे और तमाशाई प्रदर्शन से ये साफ़ पता चलता है कि सारी कवायद कुछ नेता अपनी मंद होती राजनीति और लुप्त हो रही प्रासंगिकता को बचाने के लिए कर रहे हैं।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल चूँकि इसी प्रकार के प्रदर्शनों और आंदोलनों की उपज हैं इसलिए वे एक राज्य के मुख्यमंत्री होने के बाद भी देश भर में व्यवस्था के खिलाफ होने वाले ऐसे आंदोलनों की कमान सँभालने के लिए बेताब रहते हैं। इसीलिये वे कभी हैदराबाद में होते हैं, कभी पंजाब में तो कभी गोवा में। हालांकि दुनिया जहान के फिक्रमंद इस नेता को सिर्फ यही नहीं पता कि दिल्ली को कैसे चलाया जाए ?
यही हाल राहुल गांधी का भी है। वे जिस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं उसको एक मैनेजर के भरोसे ऑटो मोड में छोड़ने के बाद वे देश की मैनेजरी करने का ख़्वाब देखने लगे हैं और उसके लिए तमाम जतन भी कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी के लोग उनके तमाम भेष बदल-बदल कर जनता के सामने ले जा रहे हैं; कभी छात्र नेता के रूप में, कभी युवा शक्ति के रूप में, कभी किसानों का हमदर्द बनाकर तो कभी महिलाओं की आवाज बनाकर लेकिन जनता उनको हर बार पहचान जाती है और बेदर्दी से नकार देती है। श्री गांधी में इस बात को समझने के सलाहियत नही हैं और नेहरू-गांधी परिवार के नाम से पेट भरने वाले नेतागण उन्हें हकीकत से परिचित नहीं करवाना चाहते।
वन रैंक वन पेंशन को लेकर ये जो शोर और चिंताएं हैं। केंद्र सरकार उसको लेकर गंभीर है । सरकार ने अपना वादा निभाया है तथापि कुछ कमियां और सुधार रह भी गए हैं तो सरकार उनको दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है। ये सरकार ही नहीं बल्कि पूरा देश अपने सैन्य बलों के योगदान और कर्तव्यपरायणता का सम्मान करता है और उनकी सभी समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर हैं लेकिन सेना के नाम पर ओछी राजनीति न केवल सेना के मनोबल को तोड़ने का काम करती है बल्कि देश के माहौल को भी दूषित करती है।
इस मुद्दे पर पूर्व सैनिक संगठनों को सरकार पर भरोसा रखना चाहिए। उनको समझना चाहिए कि तमाम विपक्षी दल उनको अपनी राजनीति का मोहरा बना रहे हैं। जिनसे सावधान रहने की जरूरत है। सरकार और पूर्व सैनिकों के मध्य परस्पर विश्वास और बातचीत के जरिये वन रैंक वन पेंशन का अनसुलझे रह गए विषयों का हल निकाला जाना चाहिए।