मधुसूदन व्यास। कृष्ण के व्यक्तित्व की विशेषता है,जो मिला उसे तत्काल छोड़ता गया मिटाता गया। मथुरा मिली छोड़ दी। महाभारत युद्ध में शस्त्र स्पर्श न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी परन्तु बना क्या गीतोपदेशक। योगी था समाधि मरण श्रेष्ठ कहलाता परन्तु मरण केसा चुना व्याध के शर से! पुत्र, मित्र, साथी सखा, बंधु, वादक, प्रेमी, योद्धा, पति, राजा, राजनीति धुरंधर, वक्ता, दार्शनिक, योगी सभी का सफलता पूर्वक निर्वहन करके सामान्य मानव जैसी मृत्यु स्वीकार करना कृष्ण ही जान सकते है।
कृष्ण गोकुल वृन्दावन के गोप गोपिया पशु पक्षी शिक्षित अशिक्षित सुरूप कुरूप नारियों सबको सामान भाव से ग्रहण करता आसक्त सा लगता है कुछ लोग उसे गोपियों की आसक्ति को देह की उस परिभाषा से जोड़ देते है जिसे सामान्य जन व्यभिचार कह सकता है अब रासलीला को आप सामान्य प्रेम या दैहिक प्रेम की परिभाषा से जोड़ते है तो ऐसे आलोकिक व्यक्तित्व के प्रति न्याय होगा? कृष्ण के प्रेम में देह नहीं थी? वह शरीर की परिभाषा से ऊपर का वह प्रेम था की जिसको जानना समझना केवल योगियों के बस में है।
यदि देह होती तो राधा का द्वारकाधीश बनने के बाद हरण होता उसे बुलाया जाता परन्तु न राधा वृन्दावन बरसाना छोड़कर कृष्ण से मिली न कृष्ण पुनः गोकुल बरसाना वृन्दावन आये। वैसे प्रेम की अमरता इस में है की वह प्रियतम के सहवास से वंचित हो जाये एक बात और मुरलीधर ने मथुरा पहुंचने के बाद मुरली को स्पर्श तक नहीं किया छुआ तक नहीं। राधा और मुरली दोनों से वियोग किया और उसे सहजता के साथ योगस्थ कुरु कर्माणि के भाव से स्वीकार किया है राधा और मुरली से विरह का कोई शोक कृष्ण ने मनाया? तो सुख दुःख समे कृत्वा लाभालाभौ जयविजय का योगी भाव हुआ न? पर जब इन सबको छोड़ने का समय आया तो स्मृति पटल से जैसे हट गये चल पड़ा अगले पथ पर। मुड़कर भी नहीं देखा। कटुम्ब वात्स्ल्य का पुरी सजीवता से निष्पक्षता से निर्वहन किया।
परन्तु आखिर द्वारिका को मिटना पड़ा। पर कही शोक वेदना दिखी? अपत्य मरण को स्वीकार करना कृष्ण की विशेषता है अपना क्या शेष रखा कुछ भी नहीं सब कुछ ख़ाक किया देह तक। अपने व्यक्तित्व को अपने हाथ से पोछने का कौशल केवल कृष्ण में प्रगट होता है कृष्ण न भूतो न भविष्यति। यही तो योगियों की योग लीला है जो जिस रूप में देखे वैसा ही दिखेगा हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि सीमा है वह रहेगी।
साभार: मधुसूदन व्यास
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