कल शिक्षक दिवस था। देश के पहले उपराष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन की याद में मनाए जाने वाले इस दिवस के दिन उनके असली चेहरे को उजागर करना ठीक नहीं लगा। वैसे इंडिया स्पीक्स के प्रधान संपादक संदीप देव ने अपनी पुस्तक #कहानीकम्युनिस्टोंकी में इनके वामपंथी चेहरे को सबूत के साथ उजागर किया ही है। पिछले साल 5 सितंबर को उनका असली चेहरा दिखाने पर काफी सारे हिंदू आहत हो गये थे, इसलिए इस बार लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए हमने इस बार छह सितंबर की तारीख चुनी। राधाकृष्णन को एक्सपोज करती इतिहासकार रामेश्वर मिश्र पंकज का यह लेख जरूर पढ़ें, और सोचें कि हमारे मस्तिष्क को किस कदर M5 ने पॉल्युटेड कर अपना उल्लू सीधा किया है।
रामेश्वर मिश्र पंकज। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन सर्वपल्ली गांव के एक मेधावी छात्र थे। उन्होंने ईसाइयों के स्कूल और ईसाइयों के ही कॉलेज में पढ़ाई की और उनके अधीन ही अध्यापक बने। वे कभी कांग्रेस में नहीं गए। किसी अन्य ऐसे प्रयास से भी नहीं जुड़े। वे कम्युनिस्ट और ईसाइयों के सदा निकट रहे और अंग्रेजों ने उन्हें सदा अपना भरोसेमंद पाया। उनका बेटा गोपाल कट्टर नास्तिक और कम्युनिस्ट है।
राधाकृष्णन को भारतीय दर्शन का प्रकांड विद्वान प्रचारित किया गया, उनकी स्थापनाएं
* जैन दर्शन वेदों से पहले ही भारत में व्यापक था
* बाद में वेद का प्रचार हुआ
* वेद ईश्वरीय ज्ञान नहीँ हैं, रचयिताओं के कथन हैं
* ईसाइयत औऱ वेदान्त का समन्वय होंना चाहिये
राधाकृष्णन जी ने बड़ी कुशलता से वेदांत दर्शन की ऐसी व्याख्या की जो तत्कालीन ईसाइयों को भी अपने अनुकूल लगी! उदाहरणार्थ उन्होंने चेतना के 5 स्तरों का निम्नानुसार वर्गीकरण किया-
* The worshippers of the Absolute (ब्रह्म उपासक )
* The worshippers of the personal God (जीसस पिता God के उपासक )
* The worshippers of the incarnations like Rama, Kṛiṣhṇa, Buddha (राम, कृष्ण, बुद्ध आदि अवतारों के उपासक )
* Those who worship ancestors, deities and sages (पूर्वजों, ऋषियों एवं विविध देवताओं के उपासक- देवी माता, हनुमान जी आदि के उपासक)
* The worshippers of the petty forces and spirits (प्रेतादिक उपासक )
अब इसमें चतुराई से ईसाइयत को सबसे ऊपर रख दिया गया है और उधर उन्हें वेदांती प्रचारित करने की भी पूरी युक्ति विद्यमान है, केवल ब्रह्म नाम लेने से। पर ब्रह्म का उपासक कोई समाज तो होता नहीं, ब्रह्म को जानने वाला तो ब्रह्ममय हो जाता है (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति)। अतः यह तो अति विरल स्थिति है। इस युक्ति श्रृंखला द्वारा ईसाइयत को सर्वोपरि रख दिया गया। सामान्य शिक्षा प्राप्त हिन्दू ब्रह्म का नाम पढ़कर मगन होकर समझेंगे कि हाँ भाई, सर्वोच्च दशा तो वही है। क्योंकि हिन्दू समाज अति परिपक्व समाज रहा है और वह मर्यादित रहा है अतः दर्शन के प्रसंग में राजनीति उसके लिए विषयांतर है पर ईसाई और मुसलमान तो धर्म दर्शन के नाम पर भी राजनीति ही करते हैं जिन्हें आधुनिक हिन्दू लोग गलत राज्य व्यवस्था द्वारा फैलाये गए अज्ञान के कारण नहीं समझते।
ऐसे नियोजित छल से वेदांत की दुहाई देकर भारत में ईसाइयत को प्रतिष्ठा दी गयी है और इसमें मुख्य खेल तो विदेशी विद्वानों का था, पर राधाकृष्णन जी उसके एक उपकरण बने। विद्वत्ता का आग्रह है कि सत्य के आवश्यक पक्ष सभी सामने प्रस्तुत किये जाएँ। अतः यह बताना आवश्यक है कि सर राधाकृष्णन विद्वान और प्रतिभाशाली तो सचमुच थे। इसलिए उन्होंने यह स्पष्ट लिखा कि ‘यूरोपीय दर्शन बातें तो दर्शन की करते हैं पर वे christian Theology के असर से कभी मुक्त नहीं हो पाते।’ ध्यान रहे, धर्मशास्त्र(Theology) को समस्त यूरोप में बहुत बचकानी और हास्यास्पद बातें माना जाता है यद्यपि भारत के नेताओं में गांधीजी और श्री अरविन्द के अतिरिक्त कोई यह नहीं जानता और इन दिनों तो तथाकथित भारतीय आधुनिक विद्वान भी यह नहीं जानते! वे तो कहेंगे कि धर्मशास्त्र(Theology) में गलत क्या है?
जिस तरह Ideology को विचारधारा कहकर सभी राजनैतिक दल उस पर लट्टू हैं, वैसा भयंकर अज्ञान 1960 तक भारत के नेताओं में नहीं था। पर तब भी भारत में चेन्नई क्षेत्र में ब्रिटिश अधिपत्य के होते हुए राधाकृष्णन जी का उन दिनों ऐसा साहस करना बड़ी बात थी क्योंकि आज विश्व विद्यालयों का कोई भारतीय दार्शनिक यह कहने की हिम्मत ही नहीं कर पाता। स्पष्ट है कि इन दिनों हमारे विश्व विद्यालयों में जो दर्शन के प्राध्यापक हैं। उनमे से एक में भी श्री राधाकृष्णन जैसी बौद्धिक सामर्थ्य नहीं है। उनकी इस विलक्षणता को सदा याद रखना चाहिए।
जबकि आज तो भारतीय दर्शन के पक्ष में समस्त नया विज्ञान और विश्व का ज्ञान कोष आ गया है। यह भी कि श्री राधाकृष्णन से अधिक मेधावी लोग उन दिनों भारत में दर्शन क्षेत्र में थे जो आज तो नहीं दिखते। आधुनिक शिक्षा ने मानविकी क्षेत्र में भारत को नीचे ही नीचे गिराया है। यहाँ मैंने उन आरोपों की कोई चर्चा नहीं की है जो थीसिस आदि में उनपर लगाये गए हैं। नेता जी सुभाषचंद्र बोस पर मुंह बंद रखने की कीमत उन्हें दी गयी, इसका भी कोई प्रमाण मुझे ज्ञात नहीं है। अतः मैंने केवल उनके विचारों में आये छिद्र ही गिनाये हैं यह मेरी मर्यादा है।
टिप्पणी –
अरुण उपाध्याय। वास्तविक गुरु दिवस व्यास पूर्णिमा है। अपनी जन्म तिथि को गुरु दिवस मनाने के लिये (श्री राधाकृष्णन जी ने )गीता की भूमिका में लिखा कि इसके लेखक का पता नहीं है तथा किसी काल्पनिक व्यास के नाम से 1500 वर्षों में लोगों ने 700 श्लोक जोड़ दिये हैं। आज भी किसी भी विश्वविद्यालय में गीता का श्लोक उद्धृत करने पर लोग इसी आधार पर विरोध करते हैं और गाकियां देने लगते हैं।
और भी कई बातें हैं। राधाकृष्णन ने राष्ट्रपति बनते ही तिरुपति संस्कृत विद्यापीठ से वेदों का प्रकाशन बन्द करवा दिया। वहां के पं. बेल्लिकोठ रामचन्द्र शर्मा कौथुमी संहिता की व्याख्या प्रकाशित कर रहे थे और हार्वर्ड विश्वविद्यालय को 1 करोड़ रुपये देने पर भी नहीं बेचा। कहा कि वेद बिक्री की चीज नहीं है। इस अपराध में उनको तुरन्त नौकरी से निकाला गया तथा प्रेस में छप रही पुस्तक को वापस ले कर हार्वर्ड को बेच दिया। योग्य सम्पादक के अभाव में अभी तक वहां से 4 खण्डों में केवल 2 ही प्रकाशित हो पाये हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी मूल संस्कृत जानने वालों को झूठे बहाने बना कर निकाला तथा नेपाल सम्स्कृत ग्रन्थावली का प्रकाशन तुरन्त बन्द करवाया यद्यपि उसका खर्च नेपाल राजा दे रहे थे।
ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री रामव्यास पाण्डेय पर आरोप लगाया कि उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे अयोग्य व्यक्ति को केवल अपना सम्बन्धी होने के कारण उनको प्राध्यापक बनवा दिया। अधिकांश लोग हजारी प्रसाद द्विवेदी को ही जानते हैं। रामव्यास पाण्डेय की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं होने दी। उनको नौकरी से हटाने के लिये २ अध्यादेश इलाहाबाद उच्चन्यायालय ने रद्द किये तो तीसरा अद्यादेश निकला जो विख्यात काला कानून जैसा था। उसमें लिखा था कि प्राचीन पद्धति के शिक्षकों (संस्कृत जानने वाले) को जैसे ही व बीमार हों या भलाई के लिये मर जांय तो नौकरी से निकाल दिया जाय। भारत के मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने पूछा था कि रामव्यास पाण्डेय के बीमार होने या मरने से किसका क्या भला होगा और इसे निरस्त करते हुए कहा कि किसी भी शिक्षित व्यक्ति ने ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया है।
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क्या जदुनाथ सिन्हा की थीसिस को अपने नाम से छपवाया था डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ?
साभार: रामेश्वर मिश्र पंकज जी के फेसबुक वाल से!
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