श्वेता पुरोहित। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड की अयोध्या कहे जाने वाला ओरछा भारत के मध्य प्रदेश राज्य के निवाड़ी जिले में बेतवा नदी पर स्थित है। इस शहर की स्थापना 1501 (16 वीं शताब्दी ईस्वी) में बुंदेला राजपूत शासक रुद्र प्रताप सिंह ने की थी। इन्होनें ही ओरछा किले का निर्माण करवाया था। जबकि राम राजा मंदिर का निर्माण ‘राजा मधुकर शाह’ ने अपने शासन काल में, 1554 से 1591 के दौरान करवाया था। इसी स्थान पर प्रभु श्री राम का शासन चलता हैं जी हाँ यहां के राजा प्रभु श्री राम हैं।
ओरछा में प्रभु श्रीराम का लगभग ४०० वर्ष पूर्व राज्याभिषेक हुआ था और उसके बाद से आज तक यहां प्रभु श्रीराम को राजा के रुप में पूजा जाता है। यह पूरी दुनिया का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां प्रभु श्री राम को राजा के रूप में पूजा जाता है। राम राजा के अयोध्या से ओरछा आने की एक मनोहारी कथा है।
यहाँ भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर है, परन्तु भगवान यहाँ साक्षात् राजा के रूप में विराजमान है। सभी कार्य करने के लिए उनकी अनुमति ली जाती है। यही कारण है, कि यहां आरती के हर वक्त उन्हें सशस्त्र सेना बल के जवान गार्ड ऑफ ऑनर देते हैं। दुनियाभर में ओरछा ही एक मात्र ऐसी जगह है, जहाँ भगवान राम को जीवंत राजा माना गया है। उन्हें सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। ओरछा झांसी से मात्र 15 किमी. की दूरी पर है। झांसी देश की प्रमुख रेलवे लाइनों से जुड़ा है और आने जाने के अन्य साधन भी है।
राजा राम और रानी श्रीगणेशदेईजी की कथा
काशीवाले महाराज श्री अनिरुद्ध सिंह जी (करैया-दतिया) महान् धर्मात्मा थे। इनकी रानी का नाम विजय कुँवरि था। ये भी भगवद्भक्ता एवं पतिव्रता थीं। निरन्तर धर्माचरण-परोपकार के फलस्वरूप वि० संवत् १५६९ में इनके यहाँ एक पुत्री का जन्म हुआ। जिसका बाल्य काल में कमला, फिर गणेशदेई नाम प्रसिद्ध हुआ। इनपर माता-पिताका अपार वात्सल्य था।
माताने पुत्री को श्री विश्वनाथ भगवान् की उपासना का उपदेश दिया। भोरी-भारी कन्या के सहज-प्रेमपर भगवान् विश्वनाथ रीझ गये और उन्होंने कृपा करके श्रीराम भक्ति का श्रेष्ठ वरदान दिया। वि० संवत् १५९६ में ओरछा नरेश महाराजा मधुकर शाह के साथ आपका विवाह हुआ। ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह जी अनन्य श्रीकृष्ण भक्त थे और उनकी रानी श्रीगणेशदेईजी श्री रामजी की अनन्य उपासिका थीं।
एक बार श्रावण के महीने में झूलन के उत्सवपर श्री मधुकर शाह जी तो वृन्दावन आये और रानी श्रीगणेशदेईजीने अयोध्याकी यात्रा की। उत्सव समाप्त होने पर महाराज श्री मधुकर शाह जी तो ओरछा चले गये, परंतु श्रीगणेशदेईजी अयोध्यासे नहीं लौटीं। महाराज मधुकर शाह जी ने दो-चार बार पत्र भी लिखा कि मैं श्रीवृन्दावनसे आ गया, अब तुम भी अयोध्या से चली आओ। परंतु श्रीगणेशदेईजीका श्री अवध में ऐसा मन रमा कि उनका ओरछा जाने का मन ही नहीं करता था। अन्त में श्री मधुकर शाह जी ने खिसियाकर पत्र लिखा कि ‘बार-बार बुलाने पर भी नहीं आती हो, लगता है कि अबकी बार श्री राम जी को लेकर ही लौटोगी।’ राजाकी यह बात महारानी गणेशदेई को लग गयी। इन्होंने प्रेमावेश में राजा को पत्र लिख दिया कि ‘सचमुच अब तो मैं श्री प्रभु को लेकर ही ओरछा को आऊँगी, अन्यथा यहीं शरीर छोड़ दूँगी।’
इसके बाद महारानी श्रीगणेशदेईजीने मन में विचार किया कि राजा हमारे प्रेम का उपहास कर रहे हैं। अरे, हमारे समान तो श्री राजा राम की न जाने कितनी दासियाँ हैं। यदि सबकी सब आग्रह करें तो श्रीराम श्री अयोध्या का सुख छोड़कर दासियों के साथ कहाँ-कहाँ जायँगे। फिर धाम छोड़ने का हठ कौन करेगा?
कहा गया है- जो सेवक साहिबहिं संकोची। निज हित चहै तासु मति पोची। उधर बिना प्रभुको लिये मैं ओरछा में पाँव नहीं रख सकती; क्योंकि तब तो राजा मेरा और मेरे प्रभुका और भी अधिक उपहास करेंगे। यह सब सोचकर रानी प्रेम के कारण अत्यन्त विकल हो गयीं। इन्हें प्रभुका वियोग व्याप गया। जब विरह असह्य होने लगा तो रानी तन-त्यागका संकल्पकर श्री सरयूजी में कूद गयीं। परंतु यह क्या ? अगाध जलराशि में कूदते ही श्रीरघुनाथजी इनकी गोद में आ गये और रानी को श्री सरयू जी के प्रवाह से बाहर निकाल लाये और बोले-चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारे साथ सहर्ष ओरछा चलने के लिये तैयार हूँ। श्री प्रभु का दर्शनकर एवं कृपामय वचनों को सुनकर रानी परमानन्दसिन्धु में मग्न हो गयीं।
रानी ने उस दिन श्री अयोध्या में बड़ा-भारी उत्सव मनाया और तुरंत महाराज मधुकर शाह को पत्र लिखा कि मैं प्रभु को लेकर आ रही हूँ, आप प्रभु के स्वागत की तैयारी करें। पत्र पढ़ते ही राजा को महान् हर्ष हुआ। उन्होंने तुरंत राजा राम के स्वरूपानुरूप विशाल मन्दिर बनवाने का हुक्म दे दिया और स्वयं श्री रामजी के स्वागतार्थ बहुत बड़े लाव-लश्कर को साथ लेकर श्री अयोध्या आये। शुभ मुहूर्त पुष्य नक्षत्रमें प्रस्थानकी तैयारी हुई। प्रस्थान काल में राजाने साधु-ब्राह्मणों का दान-मानसे बहुत बड़ा सत्कार किया और सबकी आज्ञा एवं आशीर्वाद लेकर महाराजोचित साज-समाज के साथ बड़े समारोह पूर्वक ओरछा के लिये प्रस्थान किया।
राजा- रानी ने यात्रा का नियम यह बना रखा था कि केवल पुष्य नक्षत्रमें चलते थे। इसके बाद विश्राम करते थे। महीनेभर एक जगह पड़ाव पड़ा रहता। महाराजोपचार विधिसे अनेकानेक उत्सव होते रहते। जब पुनः पुष्य नक्षत्रयुक्त शुभमुहूर्त आता तब प्रस्थान करते। इस प्रकार विविध उत्सव सुख-समारोह पूर्वक पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करते हुए श्री राजा राम ओरछा आये। यहाँ आने पर राजा-रानी ने बहुत बड़ा उत्सव मनाया। संयोग की बात ओरछा आने तक मन्दिर बनकर तैयार नहीं हो पाया था, शिखर बनना शेष था। अतः श्रीराजाराम भगवान् को रानी के महल में ही विराजमान कराया गया। दर्शनार्थियों का समुदाय उमड़ पड़ा प्रभु-दर्शन के लिये । सबने भगवान् श्री राजा राम का साक्षात् दर्शनकर अपने को धन्य माना।
भगवान् श्री राजा राम का वह श्री विग्रह खड़े रूपमें था। अतः महारानी श्री गणेश देई जी भी खड़े-खड़े ही प्रभुकी सेवा करती थीं। समस्त सेवा-कार्य अपने ही हाथसे करने के कारण रानी को लगभग चार-चार घण्टे तक सेवा में खड़े रहना पड़ता था। रानी का सुकुमार शरीर इतना श्रम सहने लायक नहीं था।
अतः करुणावरुणालय श्रीप्रभु ने एक दिन रानी से कहा कि ‘आज मेरे पाँव दुःख रहे हैं।’ रानी ने विकल होकर पूछा-‘प्रभो ! क्या कारण है ?’ तब भगवान ने कहा- ‘इसलिये कि तुम बहुत देरतक खड़ी-खड़ी मेरी सेवा करती हो तो तुम्हारे पाँव दुःखने लगते हैं तो मेरे भी दुःखने लगते हैं। अतः तुम बैठकर मेरी सेवा किया करो। तुम्हारा कष्ट मुझसे सहा नहीं जाता है।’ रानी ने हाथ जोड़कर कहा कि ‘प्रभो! हमें तो दो-चार घण्टे सेवामें खड़े रहना पड़ता है और आप तो परम सुकुमार होकर भी चौबीसों घण्टे खड़े ही रहते हैं।
मैं आपसे भी अधिक सुकुमार थोड़े ही हूँ, जो चार घण्टे भी खड़ी नहीं रह सकती। आप खड़े रहें और मैं बैठकर सेवा-पूजा करूँ यह उचित नहीं है।’ श्रीरामजीने कहा-‘तो क्या मैं बैठ जाऊँ?’ रानीने कहा-‘हाँ, यदि आप बैठ जायें तो मैं भी बैठकर सेवा-पूजा कर सकती हूँ।’ भगवान्ने कहा कि ‘अच्छा मैं तुम्हारे कहनेसे बैठ तो जाता हूँ, परंतु अब यहाँसे उदूँगा नहीं। यहीं अचल होकर रहूँगा।’ रानीने स्वीकार कर लिया। फिर तो रानीके देखते-देखते श्रीराजारामजी वीरासनसे वहीं बैठ गये।
जो दर्शनार्थी कल खड़े भगवान्का दर्शन कर गये थे, वे आज उन्हें बैठे देखकर बड़े चकित हुए और उन्हें यह विश्वास हो गया कि भगवान् मूर्ति नहीं बल्कि साक्षात् स्वरूप हैं। भला कहीं किसीने मूर्तिको बैठते देखा है। इस लीलासे भगवान्ने उन लोगोंका सन्देह दूर कर दिया, जो इस बातपर अविश्वास करते थे कि रानी को श्री राजा राम साक्षात् मिले हैं। मन्दिर तैयार होने पर राजाने श्री राजा रामजी को मन्दिरमें विराजमान करवानेका प्रस्ताव रानीके सामने रखा तो रानीने श्रीराजारामजीकी अविचलताकी बात बतायी। तब राजा मधुकरशाहजीने श्री राजा राम पर प्रेमभरा व्यंग्य किया कि ‘यदि घर घुसल्लू ही बनकर रहना था तो मन्दिर क्यों बनवाये ?’ रानीने यह बात श्री राजा राम को सुनायी तो उन्होंने कहा कि ‘मैं तो आपके प्रेमवश आया हूँ, मुझे आपकी सेवा प्रिय है। अतः राजा कुछ भी कहें हम तो महलमें ही रहेंगे। उनसे कह दो कि वे मन्दिरमें किसी और मूर्तिको पधरा लें।
तब राजाने उस नवनिर्मित मन्दिरमें चतुर्भुज भगवान् की प्रतिष्ठा की। आज भी मन्दिरमें चतुर्भुज भगवान् एवं महल में श्री राजा राम का दर्शन होता है। महली चौखटपर आज भी यह दोहा अंकित है – मधुकरशा महाराज की रानी कुंवरि गणेश । अवधपुरी से ओरछे लाई अवध नरेश ॥
श्री राजा राम जी के प्रभाव से ओरछा तीर्थ बन गया। निर्जला एकादशी सं० १६४२ वि० गुरुवार को रानी श्री गणेश देई जी इस नश्वर शरीर को त्यागकर श्री राम जी के चरणों में लीन हो गयीं।’
रानी गणेश देई की सन्तों में बड़ी निष्ठा थी। इनके यहाँ बहुतसे सन्त आते और ये उनकी अनेक प्रकार से सेवा करते । खान-पान का सुख देखकर एक साधु बहुत दिन इनके यहाँ रह गया। एक दिन महल में नितान्त अकेली देखकर उसने रानी गणेश देई जी से पूछा कि ‘बताओ धन (मुहरों-जवाहरातों) की थैलियाँ कहाँ हैं ?’ इन्होंने कहा कि यदि मेरे पास धनकी थैलियाँ हों तो बताऊँ। जब हैं ही नहीं तो क्या बताऊँ? तब उस साधु-वेषधारी ने श्री गणेश देई रानी की जाँघ में छुरी मार दी।
खून की धारा बह चली। रक्त का प्रवाह देखकर वह तुरंत भाग गया। रानी को सोच हुआ कि कहीं राजा इस घटना को जान जायँगे तो साधु-सेवा बन्द कर देंगे, अतः घावपर कसकर पट्टी बाँध ली और पौढ़ रहीं। उन्होंने किसी से भी यह बात नहीं कही। जब राजा मधुकर शाह जी इनके पास आये तो इन्होंने कहा कि ‘मेरे पास मत आइये। इस समय मुझे मासिक धर्म हुआ है।’ तीन दिन बीतने पर भी रानी को शय्या पर ही पड़ी देखकर राजा समीप जाकर बोले- हे प्रवीणे! तुम मुझसे व्यथा का सब रहस्य खोलकर कहो।
तब भी रानीने दो-चार बार इस प्रसंग को टरकाया, परंतु इससे राजा का विचार और भी दृढ़ हो गया कि अवश्य ही इन्हें कोई नयी व्यथा है। अतः बारम्बार बताने का आग्रह किया। तब रानी ने कहा कि ‘मैं बता तो दूँ, परंतु आप जानकर मन में सन्तों के प्रति सन्देह नहीं करना।’ इसके बाद रानी ने सब बात बता दी। तब रानी की अपार सन्त-निष्ठा देखकर राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पति-पत्नी भाव की लज्जा और संकोच को छोड़कर, भक्ति का प्रभाव विचारकर अपनी रानी गणेश देई की परिक्रमा की और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया।
श्री प्रिया दास जी ने रानी गणेश देई की इस सन्त-निष्ठाका अपने कवित्तों में इस प्रकार वर्णन किया है–
मधुकर शाह भूप भयो देश ओड़छे कौ रानी सो गनेसदेई काम बाँको कियो है।
आवैं बहु सन्त सेवा करत अनन्त भांति रह्यौ एक साधु खान पान सुख लियो है ॥
निपट अकेली देखि बोल्यौ धन थैली कहाँ ?
होय तौ बताऊँ सब तुम जानौ हियौ है।
मारी जांघ छुरी लखि लोहू बेगि भागि गयौ भयौ सोच जानै जिनि राजा बंद दियौ है ॥ ४१७॥
बांधि नीकी भांति पौढ़ि रही कही काहू सों न आयो ढिग राजा मति आवौ तिया धर्म है।
बीते दिन तीन जानी बेदन नबीन कछु कहिये प्रबीन मोसों खोलि सब मर्म है।
टारी बार दोय चारि नृप के विचार पस्यौं करयौ समाधान जिन आनौ जिय भर्म है।
फिस्यौ आस पास भूमि पर तन रासकरी भक्तिको प्रभाव छांड़ि तिया पति सर्म है।॥ ४१८ ॥
- श्री भक्तमाल
जय सिया राम