श्वेता पुरोहित। श्रीराम की माता कौसल्या को अपनी पुत्रवधू सीता के प्रति कितना वात्सल्य प्रेम था, इसका दिग्दर्शन नीचे के कुछ शब्दों से होता है, जब सीताजी राम के साथ वन जाना चाहती हैं, तब रोती हुई कौसल्या कहती है-
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई ।
रूप रासि गुन सील सुहाई ॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई ।
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥
पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा ।
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ ।
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ ॥
जब सुमन्त श्रीसीता-राम-लक्ष्मण को वनमें छोड़कर अयोध्या आता है, तब कौसल्या अनेक प्रकार चिन्ता करती हुई पुत्रवधू का कुशल समाचार पूछती है। फिर जब चित्रकूट में सीता को देखती है, तब बड़ा ही दुःख करती हुई कहती है – ‘बेटी! धूप से सूखे हुए कमल के समान, मसले हुए कुमुदके समान, धूलसे लिपटे हुए सोनेके समान और बादलों से छिपाये हुए चन्द्रमा के समान तेरा यह मलिन मुख देखकर मेरे हृदयमें जो दुःखरूपी अरणीसे उत्पन्न शोकाग्नि है, वह मुझे जला रही है।’
यदि आज सभी सासों और पुत्रवधुओं के आपसी सम्बन्ध ऐसे हो जाय तो घर-घर में सुख का स्रोत बहने लगे।
तो बोलिए सियावर रामचन्द्र की जय
माता जानकी की जय
माता कौसल्या की जय