श्वेता पुरोहित। जब भरत श्रीराम को लौटा ले जाने का बहुत आग्रह करते हैं, किसी प्रकार नहीं मानते, तब भगवान् श्रीराम का रहस्य जानने वाले मुनि वसिष्ठ श्रीराम के संकेत से भरत को अलग ले जाकर एकान्त में समझाते हैं- ‘पुत्र! आज मैं तुझे एक गुप्त रहस्य सुना रहा हूँ। श्रीराम साक्षात् नारायण हैं, पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इनसे रावण-वध के लिये प्रार्थना की थी, इसी से इन्होंने दशरथ के यहाँ पुत्ररूप से अवतार लिया है। श्रीसीता जी साक्षात् योगमाया हैं। श्रीलक्ष्मण शेष के अवतार हैं, जो सदा श्रीराम के साथ उनकी सेवा में लगे रहते हैं। श्रीराम को रावण का वध करना है, इससे वे जरूर वनमें रहेंगे। तेरी माता का कोई दोष नहीं है-
कैकेय्या वरदानादि यद्यन्निष्ठुरभाषणम् ॥
सर्वं देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं तात रामस्य विनिवर्तने ॥
(अ० रा० २।९।४५-४६)
‘कैकेयी ने जो वरदान माँगे और निष्ठुर वचन कहे थे, सो सब देव का कार्य था (‘रामकाज’ था); नहीं तो भला, कैकेयी कभी ऐसा कह सकती ? अतएव तुम राम को अयोध्या लौटा ले चलने का आग्रह छोड़ दो।’
रास्ते में भरद्वाज मुनि ने भी संकेत से कहा था-
न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया ।
रामप्रव्राजनं ह्येतत्सुखोदर्क भविष्यति ॥
देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम् ।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह ॥
(वा० रा० २।९२।३०-३१)
‘हे भरत! तू माता कैकेयी पर दोषारोपण मत कर। राम का वनवास समस्त देव, दानव और ऋषियों के परम हित और परम सुख का कारण होगा।’ अब श्रीवसिष्ठजी से स्पष्ट परिचय प्राप्त कर भरत समझ जाते हैं और श्रीराम की चरण पादु का सादर लेकर अयोध्या लौटने की तैयारी करते हैं। इधर कैकेयी जी एकान्त में श्रीराम के समीप जाकर आँखोंसे आँसुओं की धारा बहाती हुई व्याकुल हृदय से-
प्राञ्जलिः प्राह हे राम तव राज्यविघातनम् ॥
कृतं मया दुष्टधिया मायामोहितचेतसा ।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं क्षमासारा हि साधवः ॥
त्वं साक्षाद्विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः ।
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत् ।
त्वयैव प्रेरितो लोकः कुरुते साध्वसाधु वा ॥
त्वदधीनमिदं विश्वमस्वतन्त्रं करोति किम् ।
यथा कृत्रिमनर्तक्यो नृत्यन्ति कुहकेच्छया ॥
त्वदधीना तथा माया नर्तकी बहुरूपिणी ।
त्वयैव प्रेरिताहं च देवकार्यं करिष्यता ॥
पाहि विश्वेश्वरानन्त जगन्नाथ नमोऽस्तु ते।
छिन्धि स्नेहमयं पाशं पुत्रवित्तादिगोचरम् ॥
त्वज्ञानानलखड्गेन त्वामहं शरणं गता।
(अ० रा० २। ९।५५-५९, ६१-६२)
हाथ जोड़कर बोली – ‘हे श्रीराम ! तुम्हारे राज्याभिषेक में मैंने विघ्न किया था। उस समय मेरी बुद्धि देवताओं ने बिगाड़ दी थी और मेरा चित्त तुम्हारी माया से मोहित हो गया था। अतएव मेरी इस दुष्टता को तुम क्षमा करो; क्योंकि साधु क्षमाशील हुआ करते हैं। फिर तुम तो साक्षात् विष्णु हो। इन्द्रियों से अव्यक्त सनातन परमात्मा हो, माया से मनुष्यरूपधारी होकर समस्त विश्व को मोहित कर रहे हो। तुम्हीं से प्रेरित होकर लोग साधु-असाधु कर्म करते हैं। यह सारा विश्व तुम्हारे अधीन है, अस्वतन्त्र है, अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता।
जैसे कठपुतलियाँ नचाने वाले के इच्छानुसार ही नाचती हैं, वैसे ही यह बहुरूपधारिणी नर्तकी माया तुम्हारे ही अधीन है। तुम्हें देवताओं का कार्य करना था, अतएव तुमने ही ऐसा करने के लिये मुझे प्रेरणा की। हे विश्वेश्वर! हे अनन्त ! हे जगन्नाथ! मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ। तुम अपनी तत्त्वज्ञानरूपी निर्मल तीक्ष्णधार तलवार से
मेरी पुत्रवित्तादि विषयों में स्नेहरूपी फाँसी को काट दो। मैं तुम्हारे शरण हूँ।’
कैकेयी के स्पष्ट और सरल वचन सुनकर भगवान् ने हँसते हुए कहा-
यदाह मां महाभागे नानृतं सत्यमेव तत् ।
मयैव प्रेरिता वाणी तव वक्त्राद्विनिर्गता ॥
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थमत्र दोषः कुतस्तव ।
गच्छ त्वं हृदि मां नित्यं भावयन्ती दिवानिशम् ॥
सर्वत्र विगतस्नेहा मद्भक्त्या मोक्ष्यसेऽचिरात् ।
अहं सर्वत्र समदृग् द्वेष्यो वा प्रिय एव वा ॥
नास्ति मे कल्पकस्येव भजतोऽनुभजाम्यहम् । मन्मायामोहितधियो मामम्ब मनुजाकृतिम् ॥
सुखदुःखाद्यनुगतं जानन्ति न तु तत्त्वतः ।
दिष्ट्या मद्गोचरं ज्ञानमुत्पन्नं ते भवापहम् ।।
स्मरन्ती तिष्ठ भवने लिप्यसे न च कर्मभिः ।
(अ० रा० २। ९। ६३-६८)
‘हे महाभागे ! तुम जो कुछ कहती हो सो सत्य है, इसमें किंचित् भी मिथ्या नहीं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये मेरी ही प्रेरणा से उस समय तुम्हारे मुखसे वैसे वचन निकले थे। इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं। (तुमने तो मेरा ही काम किया है।) अब तुम जाओ और हृदय में सदा मेरा ध्यान करती रहो। तुम्हारा स्नेहपाश सब ओर से छूट जायगा और मेरी इस भक्तिके कारण तुम शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी। मैं सर्वत्र समदृष्टि हूँ। मेरे न तो कोई द्वेष्य है और न प्रिय। मुझे जो भजता है, मैं भी उसको भजता हूँ। परन्तु हे माता! जिनकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित है, वे मुझको तत्त्व से न जानकर सुख-दुःखों का भोक्ता साधारण मनुष्य मानते हैं। यह बड़े सौभाग्यका विषय है कि तुम्हारे हृदयमें मेरा यह भव-नाशक तत्त्वज्ञान हो गया है। अपने घरमें रहकर मेरा स्मरण करती रहो। तुम कभी कर्मोंसे लिप्त नहीं होओगी।’
भगवान के इन वचनों से कैकेयी की स्थिति का पता लगता है। भगवान के कथन का सार यही है कि तुम ‘महाभाग्यवती’ हो, लोग चाहे तुम्हें अभागिनी मानते रहें। तुम निर्दोष हो, लोग चाहे तुम्हें दोषी समझें। तुम्हारे द्वारा तो यह कार्य मैंने ही करवाया था। जिन लोगों की बुद्धि मायामोहित है, वही मुझको मामूली आदमी समझते हैं, तुम्हारे हृदय में तो मेरा तत्त्वज्ञान है, तुम धन्य हो!
भगवान् श्रीराम के इन वचनों को सुनकर कैकेयी आनन्द और आश्चर्यपूर्ण हृदयसे सैकड़ों बार साष्टांग प्रणाम और प्रदक्षिणा करके सानन्द भरतके साथ अयोध्या लौट गयी।
उपर्युक्त स्पष्ट वर्णन से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि कैकेयीने जान-बूझकर स्वार्थ बुद्धि से कोई अनर्थ नहीं किया था। उसने जो कुछ किया सो श्रीराम की प्रेरणा से ‘रामकाज’ के लिये! इस विवेचन से यह प्रमाणित हो जाता है कि कैकेयी बहुत ही उच्च कोटिकी महिला थी। वह सरल, स्वार्थहीन, प्रेममय, स्नेहवात्सल्ययुक्त, धर्मपरायण, बुद्धिमती, आदर्श पतिव्रता, निर्भय वीरांगना होने के साथ ही भगवान् श्रीराम की अनन्यभक्त थी। उसकी जो कुछ बदनामी हुई और हो रही है, सो सब श्रीराम की अन्तरंग प्रीति के निदर्शन रूप ही है। जिस देवी ने जगत्के आधार प्रेम के समुद्र अनन्यराम भक्त भरत को जन्म दिया, वह देवी कदापि तिरस्कार के योग्य नहीं हो सकती, ऐसी प्रातःस्मरणीया देवीके चरणों में बारम्बार अनन्त प्रणाम है।
राजेन्द्र दशरथतनय श्यामल शान्तमूर्ति रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी की जय