कमलेश कमल। अफ़गानिस्तान के आंतरिक मामले में चौधरी बनने की कोशिश कतई न करें। अमेरिका ने क्या हासिल कर लिया कि आप कर लेंगे? यक़ीनन अफ़गानिस्तान सदा से एक महँगा सौदा रहा है। वे मध्ययुगीन बर्बरता के लिए अभिशप्त हैं, जिससे निकालने की जिम्मेदारी आप उठा ही नहीं सकेंगे।
हाँ, CAA का तकाज़ा कह लीजिए या नैतिक दायित्व – अफ़गानिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदूओं, सिक्खों और बौद्धों को शरण देने की कोशिश करनी चाहिए। यही अपने हिस्से की सबसे बड़ी और सच्ची मदद हो सकती है।
क्योंकि मुस्लिम वहाँ अल्पसंख्यक नहीं हैं और ऐतिहासिक तथा वर्तमानयुगीन सत्य के साथ-साथ वैश्विक अनुभव भी है कि मुस्लिमों को शरण देने के अपने ख़तरे हैं, एहतियातन पठान, पख़्तून आदि के लिए भारत के दरवाज़े सख़्ती से बंद करने चाहिए।
भारतीय मुसलमानों को तालिबानी कहकर अपमानित न करें! वे यहीं के हैं और यहाँ शरिया नहीं कानून का राज है। सरकार बस इतनी व्यवस्था कर दे कि जो थोड़े से सनकी लोग ‘शरिया’ की बात करें, उन्हें ‘सरिया’ मिलने का डर हो। बाक़ी भारत में रहना असुरक्षित है या सुरक्षित – इसका उत्तर भी अफ़गानिस्तान के उदाहरण से मिल ही रहा है।
अफ़गानिस्तान में महिलाओं, बच्चियों के साथ मानवताविरुध्द कृत्य हो रहा है। बड़ी मुश्किल से थोड़ी आज़ादी मिली थी पर एक झटके में सब ख़त्म होता दिख रहा है। लाखों सपने कुचले जा रहे हैं, उम्मीदें मर रही हैं। बेबसी और अंतहीन यातनाओं का आगाज़ हो गया है। ऐसे में विश्व के देश अगर कोई बड़ा निर्णय लेते हैं, तो भारत को उसका समर्थन करना चाहिए। आख़िर भारत ने इस घाव को सबसे अधिक झेला है–
90 का दशक याद करें जब धरती के स्वर्ग में मस्जिदों से यह फ़रमान सुना दिया गया :”हम कश्मीर को जन्नत बनाएँगे…कश्मीरी पंडितों के बिना मगर उनकी बीवी-बेटियों के साथ।” तब निशाना कमज़र्फ काफ़िरों की बहु-बेटियाँ बनीं थीं। कुछ ही दशकों के बाद धर्मांधता अपना निशाना अपनी ही बहु-बेटियाँ को बना रही है। उनके प्रति हमारी समस्त संवेदनाएँ हैं।
जिनका हृदय उन अफ़गान महिलाओं, माताओं, बहनों के लिए नहीं धड़क रहा; वे भी मौक़ा मिलने पर धर्म की आड़ में महिलाओं, बच्चियों पर हिंसा करेंगे…ऐसी कल्पना की जा सकती है। और अंत में एक विचारणीय प्रश्न है कि अगर किसी धर्म विशेष का नाम लेकर मानवता पर हमला हो, तो कितना अच्छा हो जब पूरी दुनिया नास्तिक हो जाए??