अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले ने अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन (सकारात्मक पक्षपात) के क़ानूनों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले ने कहा है कि यूनिवर्सिटी में दाखिले के वक्त़ नस्ल पर विचार नहीं किया जाएगा.
अमेरिका में शिक्षा के क्षेत्र में नस्ल को लेकर हमेशा विवाद रहा है. वहां काले और सामाजिक तौर पर पिछड़े वर्गों को कॉलेज एडमिशन में रिजर्वेशन देने का नियम है
पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस फ़ैसले का समर्थन किया है. उन्होंने इस फ़ैसले को शानदार कहा है. उन्होंने कहा,’’ ये जबरदस्त दिन’ है.
उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा, ‘’असाधारण लोगों और सफलता के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठाने वालों को आख़िरकार पुरस्कृत किया जा रहा है.’’
अमेरिकी नीतियों में अफर्मेटिव एक्शन 1960 के दशक शामिल किए गए थे. समाज में डाइवर्सिटी (विविधता) को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका का समर्थन किया जाता रहा है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर राष्ट्रपति जो बाइडन ने पर पूरी तरह ‘असहमति’ जताई है.
उन्होंने कहा कि इस फ़ैसले को आख़िरी शब्द नहीं माना जाता सकता है. अमेरिका में अब भी भेदभाव बरकरार है.
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर कहा, ’’ये कोई साधारण कोर्ट नहीं है. नौ जजों की बेंच इस पर बँटी हुई थी. छह कंजर्वेटिव हैं तो तीन लिबरल.’’.
‘विविधता का एक अहम औजार सुप्रीम कोर्ट ने छीन लिया’
शिक्षा मंत्री मिगेल कार्डोना ने बीबीसी न्यूज़ से कहा,’’ यूनिवर्सिटी चलाने वाले अपने यहां विविधता के लिए जिस अहम औजार का इस्तेमाल करते थे, उसे सुप्रीम कोर्ट ने छीन लिया है.’’
लेकिन उन्होंने कहा, ‘’हालांकि विश्वविद्यालयों को विविधताओं से भरा बनाने के हमारे इरादे को यह फ़ैसला छीन नहीं सका है.’’
उन्होंने बताया कि व्हाइट हाउस विश्वविद्यालयों को ये निर्देश भेजेगा कि कैसे वे क़ानूनी तौर पर विविधता बरकरार रख सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने दो मुक़दमों में ये फ़ैसला सुनाया है. एडमिशन का एक मामला हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से जुड़ा था और दूसरा नॉर्थ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी से जुड़ा था. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी वाले मामले में कोर्ट ने 6-2 से फ़ैसला दिया जबकि नॉर्थ कैरोलाइना वाले मामले में 6-3 से.
जिन जजों ने यूनिवर्सिटी में विविधता हटाने के पक्ष में फ़ैसला दिया, उन्होंने ‘स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन’ नाम के संगठन की ओर से दी गई दलीलों का समर्थन किया. इस संगठन की बुनियाद लीगल एक्टिविस्ट एडवर्ड ब्लम ने रखी थी.
‘स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन’ ने पिछले साल अक्टूबर में अदालत में कहा था कि हॉर्वर्ड की नस्लीय चेतना से भरी एडमिशन पॉलिसी 1964 की सिविल राइट्स एक्ट के टाइटल VI का उल्लंघन करती है. यह क़ानून नस्ल, त्वचा के रंग या मूल देश के आधार पर भेदभाव रोकता है.
बँटा हुआ फैसला
चीफ जस्टिस जॉन रॉबर्ट्स ने फ़ैसले में लिखा है, ‘’ लंबे वक़्त से कई विश्वविद्यालयों ने ये ग़लत निष्कर्ष निकाल लिया कि किसी व्यक्ति की कसौटी उसके सामने आने वाली चुनौतियां, उसके सीखे कौशल या सबक नहीं बल्कि उसकी त्वचा का रंग है. ‘’
उनका कहना था हार्वर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना की एडमिशन पॉलिसी इस तर्क को ध्यान में रखते हुए ‘सोच-समझ’ कर तय की गई थी.
हालांकि असहमति ज़ाहिर करने वाले जजों ने कहा, ’’लेकिन अगर विश्वविद्यालय आवेदकों को इस बात पर विचार करने की अनुमति देते हैं कि नस्ल उनके जीवन को कैसे प्रभावित कर रही है, तो इस पर रोक नहीं लगाया जाना चाहिए.’’
लेकिन जस्टिस रॉबर्ट्स ने लिखा, ‘’हार्वर्ड की दाखिले की नीति इस नुकसानदेह स्टीरियोटाइप पर टिकी है कि एक ब्लैक स्टूडेंट कुछ ऐसा दे सकता है जो श्वेत छात्रों के पास नहीं है.’’
उन्होंने लिखा है, इस तरह की एडमिशन पॉलिसी ‘’बेतुका और ग़ैर संवैधानिक’’ है.
‘’विश्वविद्यालयों के अपने नियम हो सकते हैं लेकिन इससे उन्हें नस्ल के आधार पर भेदभाव का लाइसेंस नहीं मिल सकता.’’
जिन लिबरल जजों ने फ़ैसले से असहमति जताई उनमें केतनजी ब्राउन जैकसन शामिल हैं. वो पहली ब्लैक महिला जज हैं. उन्होंने कहा, ‘’निश्चित तौर पर ये फ़ैसला हम सबके लिए त्रासदी है. ‘’
एक और लिबरल जज सोनिया सोतोमेयर ने कहा कि ये फ़ैसला ‘कलर ब्लाइंडनेस’ के छिछले नियम को संवैधानिक मज़बूती दे रहा है, वो भी एक बँटे हुए समाज में
हालांकि जस्टिस रॉबर्ट्स ने कहा कि जिन जजों ने असहमति जताई है वो क़ानून के उस हिस्से की अनदेखी कर रहे हैं, जिसे वो नापसंद करते हैं.
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फैसले का समर्थन और विरोध
स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन के संस्थापक ब्लम ने इस फ़ैसले पर जश्न मनाते हुए इस जबरदस्त फ़ैसला करार दिया है.
उन्होंने कहा, ‘’ये फ़ैसला कलर ब्लाइंडनेस के क़ानूनी पक्ष को स्थापित करता है. वो पक्ष जो हमारे बहु नस्लीय बहु-जातीय समाज को जोड़े रखता है.’’
‘एशियन अमेरिकन कोलेशन फॉर एजुकेशन’ के अध्यक्ष युकॉन्ग चाओ ने बीबीसी के साथ बातचीत में इस फ़ैसले का स्वागत किया है.
उनके संगठन ने कहा कि अफर्मेटिव एक्शन ने एशियाई अमेरिकी समुदाय के लिए इलिट स्कूलों में दाखिले की उनकी राह में रोड़े अटकाए हैं.
उन्होंने कहा, ‘’ये फ़ैसला मेरिट के समर्थन में है जो अमेरिकन ड्रीम की बुनियाद है.’’
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इस फ़ैसले का विरोध भी हो रहा है.
हार्वर्ड ब्लैक स्टूडेंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष एंजी गाब्यू ने बीबीसी से कहा कि उन्हें इस फ़ैसले से ‘बड़ी हताशा’ हुई है.
उन्होंने कहा कि हार्वर्ड में उनके आवेदन में नस्ल पूरी तरह एक वजह थी.
हार्वर्ड के अध्यक्ष लॉरेंस बकाऊ ने एक बयान में कहा है कि इवी लीग का ये कॉलेज ‘निश्चित तौर पर अदालत का फ़ैसला लागू’ करेगा. हालांकि वो अलग-अलग पृष्ठभूमियों, नज़रिये और अलग-अलग अनुभव वाले लोगों को अपने यहां लेता रहेगा.
यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना के चांसलर केविन गस्किविच ने कहा कि उन्हें इस तरह के फ़ैसले की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने कहा, ‘’कॉलेज फ़ैसले को पढ़ेगा और फिर क़ानून का पालन के लिए उचित क़दम उठाएगा.’’
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अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन
सुप्रीम कोर्ट अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अफर्मेटिव एक्शन का दो बार समर्थन कर चुका है. पिछली बार यूनिवर्सिटी एडमिशन में अफर्मेटिव एक्शन का समर्थन 2016 में किया गया था.
हालांकि अमेरिका के नौ प्रांत पहले ही नस्ल के आधार पर कॉलेजों में दिए जाने वाले एडमिशन पर रोक लगा चुके हैं. इनमें शामिल हैं- एरिज़ोना, कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा, जॉर्जिया, ओकलाहोमा, न्यू हैम्पशायर, मिशिगन, नेबरस्का और वॉशिंगटन.
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कैलिफोर्निया ने 2020 में मतदान के ज़रिये अफर्मेटिव एक्शन को लाने की कोशिश को ख़ारिज कर दिया था. दरअसल 24 साल पहले इस पर बैन लगा दिया गया था. लेकिन 2020 में इसे दोबारा लाने की कोशिश हुई थी.
सुप्रीम कोर्ट में कंजर्वेटिव धड़े का दबदबा है. पिछले साल इसने ‘रो बनाम वेड’ मुक़दमे पर फ़ैसला देते हुए महिलाओं के गर्भपात के अधिकार से जुड़े क़ानून को उलट दिया था. इससे अमेरिका में लिबरल लोगों में काफी नाराजगी है.