श्वेता पुरोहित। श्री दुर्गा सप्तशती
॥ॐ नमश्चण्डिकायै नमः॥
चौथा अध्याय
(इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति)
महर्षि मेधा बोले-देवी ने जब पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर को मार गिराया और असुरों की सेना को मार दिया। तब इन्द्रादि समस्त देवता अपने सिर तथा शरीर को झुकाकर भगवती की स्तुति करने लगे-जिस देवी ने अपनी शक्ति से यह जगत व्याप्त किया है और जो सम्पूर्ण देवताओं तथा महर्षियों की पूजनीय है, उस अम्बिका को हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, वह हम सब का कल्याण करे, जिस अतुल प्रभाव और बल का वर्णन भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्माजी भी नहीं कर सके, वही चंडिकादेवी इस संपूर्ण जगत का पालन करे और अशुभ भय का नाश करे। पुण्यात्माओं के घरों में तुम स्वयं लक्ष्मी रूप हो और पापियों के घरों में तुम अलक्ष्मी रूप हो और सत्कुल में उत्पन्न होने वालों के लिए तुम लज्जा रूप होकर उनके घरों में निवास करती हो, हम उस दुर्गा भगवती को नमस्कार करते हैं।
हे देवी! इस विश्व का पालन करो, हे देवी! हम तुम्हारे अचिन्त्य रूप का किस प्रकार वर्णन करें। असुरों के नाश करने वाले भारी पराक्रम तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के विषय में जो तुम्हारे पवित्र-चरित्र हैं उनको हम किस प्रकार वर्णन करें। हे देवी ! त्रिगुणात्मिका होने पर भी तुम सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हो। हे देवी! भगवान विष्णु, शंकर आदि किसी भी देवता ने तुम्हारा पार नहीं पाया, तुम सबकी आश्रय हो, यह सम्पूर्ण जगत तुम्हारा ही अंश रूप है, क्योंकि तुम सबकी आदिभूत प्रकृति हो।
हे देवी! तुम्हारे जिस नाम के उच्चारण से सम्पूर्ण यज्ञों में सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह ‘स्वाहा’ तुम ही हो। इसके अतिरिक्त तुम पितरों की तृप्ति का कारण हो, इसलिये सब आपको ‘स्वधा’ कहते हैं।
हे देवी! वह विद्या जो मोक्ष की देने वाली है, जो अचिन्त्य महाज्ञान, स्वरूपा है, तत्वों के सार को वश में करने वाले, सम्पूर्ण दोषों को दूर करने वाले, मोक्ष की इच्छा वाले, मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह तुम ही हो, तुम वाणीरूप हो और दोष रहित ऋग तथा यजुर्वेदों की एवं उदगीत और सुन्दर पदों के पाठ वाले सामवेद की आश्रय रूप हो, तुम भगवती हो।
इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिए तुम वार्ता के रूप में प्रकट हुई हो और तुम सम्पूर्ण संसार की पीड़ा हरने वाली हो, हे देवी! जिससे सारे शास्त्रों को जाना जाता है, वह मेधाशक्ति तुम ही हो और दुर्गम भवसागर से पार करने वाली नौका भी तुम ही हो।
लक्ष्मी रूप से विष्णु भगवान के हृदय में निवास करने वाली और भगवान महादेव द्वारा सम्मानित गौरी देवी तुम ही हो, मन्द मुसकान वाले, निर्मल पूर्णचन्द्र बिम्ब के समान और उत्तम, सुवर्ण की मनोहर कांति से कमनीय तुम्हारे मुखको देखकर भी महिषासुर क्रोध में भर गया, यह बड़े आश्चर्य की बात है और हे देवी ! तुम्हारा यही मुख जब क्रोध से भर गया तो उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल हो गया और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल रूप हो गया, उसे देखकर भी महिषासुर के शीघ्र प्राण नहीं निकल गये, यह बड़े आश्चर्य की बात है। आपके कुपित मुख के दर्शन करके भला कौन जीवित रह सकता है, हे देवी! तुम हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होओ !
आपके प्रसन्न होने से इस जगत का अभ्युदय होता है और जब आप क्रुद्ध हो जाती हैं तो कितने ही कुलों का सर्वनाश हो जाता है। यह हमने अभी-अभी जाना है कि जब तुमने महिषासुर की बहुत बड़ी सेना को देखते-देखते मार दिया। हे देवी! सदा अभ्युदय (प्रताप) देने वाली तुम जिस पर प्रसन्न हो जाती हो, वही देश में सम्मानित होते हैं, उनके धन यश की वृद्धि होती है। उनका धर्म कभी शिथिल नहीं होता है और उनके यहाँ अधिक पुत्र-पुत्रियाँ और नौकर होते हैं।
हे देवी ! तुम्हारी कृपा से ही धर्मात्मा पुरुष प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ करता है और धर्मानुकूल आचरण करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक में जाता है, क्योंकि तुम तीनों लोकों में मनवांछित फल देने वाली हो। हे माँ दुर्गे ! तुम स्मरण करने पर सम्पूर्ण जीवों के भय नष्ट कर देती हो और स्थिर चित्त वालों के द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें और अत्यन्त मंगल देती हो। हे दारिद्रदुख नाशिनी देवी ! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है तुम्हारा चित्त सदा दूसरों के उपकार में लगा रहता है। हे देवी! तुम शत्रुओं को इसलिए मारती हो कि उनके मारने से दूसरों को सुख मिलता है। वह चाहे नरक में जाने के लिए चिरकाल तक पाप करते रहे हों, किन्तु तुम्हारे साथ युद्ध करके सीधे स्वर्ग को जायें, इसीलिये तुम उनका वध करती हो, हे देवी! क्या तुम दृष्टिपात मात्र से समस्त असुरों को भस्म नहीं कर सकतीं? अवश्य ही कर सकती हो ! किन्तु तुम्हारा शत्रुओं को शस्त्रों के द्वारा मारना इसलिये है कि शस्त्रों के द्वारा मरकर वे स्वर्ग को जावें। इस तरह से हे देवी! उन शत्रुओं के प्रति भी तुम्हारा विचार उत्तम है। हे देवी! तुम्हारे उग्र खड्ग की चमकसे और त्रिशूल की नोंक की कांति की किरणों से असुरों की आँखें फूट नहीं गईं। उसका कारण यह था कि वे किरणों से शोभायमान तुम्हारे चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करने वाले सुन्दर मुख को देख रहे थे। हे देवी ! तुम्हारा शील बुरे वृत्तान्त को दूर करने वाला है और सबसे अधिक तुम्हारा रूप है, जो न तो कभी चिन्तन में आ सकता है और न जिसकी दूसरों से कभी तुलना ही हो सकती है। तुम्हारा बल व पराक्रम शत्रुओं का नाश करने वाला है। इस तरह तुमने शत्रुओं पर भी दया प्रकट की है। हे देवी ! तुम्हारे बल की किसके साथ बराबरी की जा सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला इतना सुन्दर रूप भी और किस का है? हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता यह दोनों बातें तीनों लोकों में केवल तुम्हीं में देखने में आई हैं। हे माता ! युद्ध भूमि में शत्रुओं को मारकर तुमने उन्हें स्वर्ग लोक में पहुँचाया है। इस तरह तीनों लोकों की तुमने रक्षा की है तथा उन उन्मत्त असुरों से जो हमें भय था उसको भी तुमने दूर किया है, तुमको हमारा नमस्कार है।
हे देवी ! तुम शूल तथा खड्ग से हमारी रक्षा करो तथा घण्टे की ध्वनि और धनुषकी टंकोर से भी हमारी रक्षा करो। हे चण्डिके! आप अपने शूल को घुमाकर पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशा में हमारी रक्षा करो। तीनों लोकों में जो तुम्हारे सौम्य रूप हैं तथा घोर रूप हैं, उनसे हमारी रक्षा करो तथा इस पृथ्वी की रक्षा करो हे अम्बिके ! आपके कर-पल्लवों में जो खड्ग, शूल और गदा आदि शस्त्रक शोभा पा रहे हैं, उनसे हमारी रक्षा करो।
महर्षि बोले कि इस प्रकार जब सब देवताओं ने जगत माता भगवती की स्तुति की और नन्दनवन के पुष्पों तथा गन्ध अनुलेपनों द्वारा उनका पूजन किया और फिर सबने मिलकर जब सुगन्धित व दिव्य धूपों द्वारा उनको सुगन्धि निवेदन की, तब देवी ने प्रसन्न होकर कहा- हे देवताओं! तुम सब मुझसे मनवांछित वर माँगो। देवता बोले-हे भगवती ! तुमने हमारा सब कुछ कार्य कर दिया अब हमारे लिये कुछ भी माँगना बाकी नहीं रहा, क्योंकि तुमने हमारे शत्रु महिषासुर को मार डाला है। हे महेश्वरि ! तुम इस पर भी यदि हमें कोई वर देना चाहती हो, तो बस इतना वर दो कि जब-जब हम आपका स्मरण करें, तब तब आप हमारी विपत्तियों को हरण करने के लिये हमें दर्शन दिया करो। हे अम्बिके ! जो कोई भी तुम्हारी स्तुति करें, तुम उनको वित्त समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उनके धन और स्त्री आदि सम्पत्ति बढ़ावें और सदा हम पर प्रसन्न रहें। महर्षि बोले-हे राजन् ! देवताओं ने जब जगत के लिये तथा अपने लिये इस प्रकार प्रश्न किया तो बस “तथास्तु” कहकर देवी अन्तर्धान हो गई।
हे भूप! जिस प्रकार तीनों लोकों का हित चाहने वाली वह भगवती देवताओं के शरीर से उत्पन्न हुई थी, वह सारा वृत्तान्त मैंने तुझसे कह दिया है और इसके पश्चात दुष्ट असुरों तथा शुम्भ निशुम्भ का वध करने और सब लोकों की रक्षा करने के लिये जिस प्रकार गौरी, देवी के शरीर से उत्पन्न हुई थी वह सारा वृत्तान्त मैं यथावत् वर्णन करता हूँ।
पाँचवाँ अध्याय
(देवताओं द्वारा देवी की स्तुति )
महर्षि मेधा ने कहा-पूर्वकाल में शुम्भ निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के मद से इन्द्र का त्रिलोकी का राज्य और यज्ञों के भाग छीन लिये और वह दोनों इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, धर्मराज और वरुण के अधिकार भी छीन कर स्वयम् ही उनका उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वही करने लगे और इसके पश्चात उन्होंने जिन देवताओं का राज्य छिना था, उनको अपने-अपने स्थान से निकाल दिया। इस तरह से अधिकार छिने हुए तथा दैत्यों द्वारा निकाले हुए देवता अपराजिता देवी का स्मरण करने लगे कि देवी ने हमको वर दिया था कि मैं तुम्हारी सम्पूर्ण विपत्तियों को नष्ट करके रक्षा करूँगी। ऐसा विचार कर सब देवता हिमालय पर गये और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा-देवी को नमस्कार है, शिव को नमस्कार है। प्रकृति और भद्रा को नमस्कार है। हम लोग रौद्रा, नित्या और गौरी को नमस्कार करते हैं। ज्योत्सनामयी, चन्द्ररूपिणी व सुख रूपा देवी को निरन्तर नमस्कार है, शरणागतों का कल्याण करने वाली, वृद्धि और सिद्धिरूपा देवी को हम बार बार नमस्कार करते हैं और नैर्ऋति, राजाओं की लक्ष्मी तथा सर्वाणी को नमस्कार है, दुर्गा को, दुर्ग स्थलों को पार करने वाली दुर्गपारा को, सारा, सर्वकारिणी, ख्याति कृष्ण और घूम्रदेवी को सदैव नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा को हम नमस्कार करते हैं। उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत की आधार भूत कृति देवी को बार-बार नमस्कार करते हैं। जिस देवी को प्राणीमात्र विष्णुमाया कहते हैं उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में चेतना कहलाती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में क्षुधा रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में छाया रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में लज्जारूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है। जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में कान्ति रूप से स्थित है, जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में मातृरूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में भ्रान्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य व्याप्त रहती है उसको नमस्कार है, जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त करके स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।
पूर्वकाल में देवताओं ने अपने अभीष्ट फल पाने के लिये जिसकी स्तुति की है और देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिसका सेवन किया है वह कल्याण की साधनाभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी विपत्तियों को नष्ट कर डाले, असुरों के सताये हुए हम सम्पूर्ण देवता उस परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति पूर्वक स्मरण की जाने पर तुरन्त ही सब विपत्तियों को नष्ट कर देती है वह जगदम्बा इस समय भी हमारा मङ्गल करके हमारी समस्त विपत्तियों को दूर करें।
महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन् ! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे तो उसी समय पार्वती देवी गङ्गा में स्नान करने के लिये आईं, तब उनके शरीर से प्रकट होकर शिवादेवी बोलीं-शुम्भ दैत्य के द्वारा स्वर्ग से निकाले हुए और निशुम्भ से हारे हुए यह देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। पार्वती के शरीर से अम्बिका निकली थी, इसलिये उसको सम्पूर्ण लोक में (कौशिकी) कहते हैं। कौशिकी के प्रकट होने के पश्चात् पार्वती देवी के शरीर का रङ्ग काला हो गया और वह हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई, फिर शुम्भ और निशुम्भ के दूत चण्डमुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा। फिर वह शुम्भ के पास जाकर बोले-महाराज ! एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री हिमालय को प्रकाशित कर रही है, वैसा रङ्ग रूप आज तक हमने किसी स्त्री में नहीं देखा, हे असुरेश्वर! आप यह पता लगायें कि वह कौन है और उसको ग्रहण कर लें। वह स्त्री स्त्रियों में रत्न है, वह अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वहाँ स्थित है, इसलिये आपको उसका देखना उचित है। हे प्रभो! तीनों लोकों के हाथी घोड़े और मणि इत्यादि जितने रत्न हैं वह सब इस समय आपके घर में शोभायमान हैं। हाथियों में रत्न रूप ऐरावत हाथी और उच्चैश्रवा नामक घोड़ा तो आप इन्द्र से ले आये हैं, हंसों द्वारा जुता हुआ विमान जो कि ब्रह्माजी के पास था, अब भी आपके पास है और यह महापद्म नामक खजाना आपने कुबेर से छीना है, समुद्र ने आपको सदा खिले हुए फूलों की किंजल्किनी नामक माला दी है, वरुण का कंचन की वर्षा करने वाला छत्र आपके पास है, रथों में श्रेष्ठ प्रजापतिका रथ भी आपके पास ही है, हे दैत्येन्द्र ! मृत्यु से उत्क्रांतिदा नामक शक्ति भी आपने छीन ली है और वरुण का पाश भी आपके भ्राता निशुम्भ के पास ही है और समुद्र में पैदा होने वाले सब प्रकार के रत्न भी आपके भ्राता निशुम्भ के अधिकार में हैं और जो अग्नि में न जल सकें, ऐसे दो वस्त्र भी अग्निदेव ने आपको दिये हैं। हे दैत्यराज ! इस प्रकार सारी रत्नरूपी वस्तुएँ आप संग्रह कर चुके हैं तो फिर आप यह कल्याणमयी स्त्रियों में रत्नरूप अनुपम स्त्री आप क्यों नहीं ग्रहण करते?
महर्षि मेधा बोले-चण्ड मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने विचारा कि सुग्रीव को अपना दूत बना कर देवी के पास भेजा जाय। प्रथम उसको सब कुछ समझा दिया और कहा कि वहाँ जाकर तुम उसको अच्छी तरह से समझाना और ऐसा उपाय करना जिससे वह प्रसन्न होकर तुरन्त मेरे पास चली आये, भली प्रकार समझाकर कहना। दूत सुग्रीव पर्वत के उस रमणीय भाग में पहुँचा जहाँ देवी रहती थी। दूत ने कहा- हे देवी! दैत्यों का राजा शुम्भ जो इस समय तीनों लोकों का स्वामी है, मैं उसका दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। सम्पूर्ण देवता उसकी आज्ञा एक स्वर से मानते हैं। अब जो कुछ उसने कहला भेजा है, वह सुनो। उसने कहा है, इस समय सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे वश में है और सम्पूर्ण यज्ञों के भाग को पृथक् पृथक् मैं ही लेता हूँ और तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं वह सब मेरे पास हैं, देवराज इन्द्र का वाहन ऐरावत मेरे पास है जो मैंने उससे छीन लिया है, उच्चैः श्रवा नामक घोड़ा जो क्षीरसागर मंथन करने से प्रकट हुआ था उसे देवताओं ने मुझे समर्पित किया है। हे सुन्दरी ! इनके अतिरिक्त और भी जो रत्न भूषण पदार्थ देवताओं के पास थे वह सब मेरे पास हैं। हे देवि ! मैं तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानता हूँ, क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाला मैं ही हूँ। हे चञ्चल कटाक्षों वाली सुन्दरी ! अब यह मैं तुझ पर छोड़ता हूँ कि तू मेरे या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाये। यदि तू मुझे वरेगी तो तुझे अतुल महान ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी, अतः तुम अपनी बुद्धि से यह विचार कर मेरे पास चली आओ।
महर्षि मेधा ने कहा-दूत के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाली भगवती दुर्गा मन ही मन मुस्कुराई और इस प्रकार कहने लगी। देवी ने कहा- हे दूत ! तू जो कुछ कह रहा है वह सत्य है और इसमें किंचित्मात्र भी झूठ नहीं है शुम्भ इस समय तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी की तरह पराक्रमी है, किन्तु इसके सम्बन्ध में मैं जो प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ उसे मैं कैसे झुठला सकती हूँ? अतः तू, मैंने जो प्रतिज्ञा की है उसे सुन। जो मुझे युद्ध में जीत लेगा और मेरे अभिमान को खण्डित करेगा तथा बल में मेरे समान होगा, वही मेरा स्वामी होगा। इसलिए शुम्भ अथवा महापराक्रमी निशुम्भ यहाँ आवे और युद्ध में जीत कर मुझसे विवाह करले, इसमें भला देर की क्या आवश्यकता है? दूत ने कहा- हे देवी ! तुम अभिमान में भरी हुई हो, मेरे सामने तुम ऐसी बात न करो। इस त्रिलोकी में मुझे तो ऐसा कोई दिखाई नहीं देता जो कि शुम्भ और निशुम्भ के सामने ठहर सके। हे देवि ! जब अन्य देवताओं में से कोई शुम्भ व निशुम्भ के सामने युद्ध में ठहर नहीं सकता तो फिर तुम जैसी स्त्री उनके सामने रणभूमि में ठहर सकेगी? जिन शुम्भ आदि असुरों के सामने इन्द्र आदि देवता नहीं ठहर सके तो फिर तुम अकेली स्त्री उनके सामने कैसे ठहर सकोगी? अतः तुम मेरा कहना मानकर उनके पास चली जाओ। नहीं तो जब वह तुम्हें केश पकड़ कर घसीटते हुए ले जावेंगे तो तुम्हारा गौरव नष्ट हो जायगा, इसलिए मेरी बात मान लो। देवी ने कहा-जो कुछ तुमने कहा ठीक है। शुम्भ और निशुम्भ बड़े बलवान हैं, लेकिन मैं क्या कर सकती हूँ, क्योंकि मैं बिना विचारे प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ, इसलिए तुम जाओ और मैंने जो कुछ कहा है, वह सब आदर पूर्वक असुरेन्द्र से कह दो, इसके पश्चात जो वह उचित समझें करें।
इसके आगे की कथा कल पढ़ेंगे
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥