विपुल रेगे। कंगना रनौत की ‘तेजस’ का ट्रेलर रिलीज कर दिया गया है। कॅरियर की डोलती नैया संभालने की कोशिश कर रही कंगना को बहुत जल्द एक हिट फिल्म की आवश्यकता है। ‘तेजस’ के ट्रेलर की प्रशंसा हो रही है। 27 अक्टूबर को रिलीज होने जा रही इस फिल्म के साथ यूँ तो सब सकारात्मक दिखाई दे रहा है लेकिन देखने वाली बात है कि क्या वास्तव में ऐसा ही है। पिछले दिनों अक्षय कुमार की ‘मिशन रानीगंज’ बेहतर फिल्म होने के बावजूद धराशायी हो गई। क्या ‘राष्ट्रवादी कलाकारों’ पर बहिष्कार का ख़तरा मंडरा रहा है।
ये एक अनसोची सी बात है कि घोर राष्ट्रवाद के इस माहौल में कुछ कथित राष्ट्रवादी कलाकारों का बहिष्कार कर दिया जाए। राष्ट्रवाद बुरा नहीं है लेकिन इसके सहारे पिछले नौ साल में जो कुछ किया गया, उसके कारण ये शब्द बदनाम हो चला है। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद को जिस ढंग से परोसा जा रहा है, उससे प्रतीत होता है कि एक ईमानदार शब्द ‘राष्ट्रवाद’ बेईमान सा लगने लगा है। देश का वातावरण पूरी तरह बदल गया है और इसका असर फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने पर दिखाई दे रहा है।
‘जवान’ एक मसालेदार फिल्म होने के साथ वर्तमान सरकार पर कठोर प्रहार करती थी और दर्शकों ने इसे खूब सराहा। 2014 की शुरुआत में जिन सितारों को पब्लिक ने बाहर का रास्ता दिखाया था, वे बाउंस बैक कर वापस लौट आए। ऐसा लग रहा है कि जो बहिष्कार आमिर खान, सलमान खान और शाहरुख़ खान ने झेला है, वैसा ही बहिष्कार अक्षय कुमार और कंगना को झेलना पड़ सकता है। हवा विपरीत दिशा में चल रही है। ‘पठान’ और ‘जवान’ का हिट होना इस बात का स्पष्ट संकेत है।
अक्षय कुमार की ‘मिशन रानीगंज’ ने रिलीज के 11वे दिन बाद तक केवल 37 करोड़ का कलेक्शन किया। वह फिल्म एक रियल लाइफ कैरेक्टर पर थी, जिन्होंने स्वयं कोयले की खदान में उतरकर लोगों की जान बचाई। जब अक्षय कुमार जैसा सितारा हो, और एक सामाजिक सरोकार वाली कहानी हो तो फिल्म को हिट होने में क्या दिक्कत थी। जैसा कि मैंने कहा कि राष्ट्रवाद को लेकर लोगों के विचार बदलते जा रहे हैं। अब राष्ट्रवाद का ट्रेंड फिल्मों को सफल कराने में सहायक नहीं हो पा रहा है। ऐसा लगता है कि राष्ट्रवाद + फिल्म का जोड़ अब फलित नहीं हो रहा। होता तो राष्ट्रवादी अक्षय की फिल्म का ऐसा बुरा हाल नहीं होता।
बॉक्स ऑफिस का माहौल बदल गया है और यदि आप बॉक्स ऑफिस को दर्पण मान लें तो उसके भीतर देश का वर्तमान परिदृश्य देख सकते हैं। ‘जवान’ फिल्म में एक किसान लोन न चुका पाने के कारण अपमानित होता है और आत्महत्या कर लेता है। वहीं दूसरी ओर सरकार हथियारों के एक डीलर का चालीस हज़ार करोड़ माफ़ कर देती है। फिल्म के इस पार्ट को लोगों ने वर्तमान परिदृश्य से जोड़ा और पाया कि आज देश में बड़े उद्योगपतियों का हज़ारों करोड़ों माफ़ कर दिया गया है। वही फिल्म दर्शक को छूती है, जिसमे उसे देश -काल-परिस्थितियों का वर्तमान और सच्चा चित्रण दिखे।
हम देखते हैं कि अचानक से प्रसिद्ध लोगों के जीवन पर बनने वाली फिल्मों का मार्केट ख़त्म हो गया है। आम आदमी फिल्मों के ज़रिये अपना आक्रोश व्यक्त होते देखना चाहता है। गोया कि भारत पुनः सत्तर के दशक में एंट्री कर गया है, जहाँ उसे एक अदद नायक की आवश्यकता है। आम आदमी को लग रहा है कि उनका नायक वह व्यक्ति नहीं है, जो विगत दस वर्ष से अपने समर्थकों और मीडिया से अपनी चरण वंदना करा रहा है। ऐसे माहौल में ‘मिशन रानीगंज’ प्रदर्शित होती है और बिना शोर किये चली जाती है।
कंगना रनौत की ‘तेजस’ भी ऐसे समय पर ही रिलीज हो रही है, जब लोग वर्तमान सरकार के प्रति भरोसा खोते जा रहे हैं। ‘तेजस’ एक अच्छी फिल्म हो सकती है लेकिन क्या इस विपरीत माहौल में वह टिक सकेगी या उसका हाल अक्षय की फिल्म की तरह होने जा रहा है। वर्तमान समय में केंद्र सरकार सबसे अधिक आलोचना झेल रही है। ऐसे माहौल में किसी भी फिल्म में सरकार या किसी नेता की प्रशंसा झलकती है या उनके संवादों को फिल्म में लिया जाता है तो अब फायदे की जगह नुकसान होगा।
बॉक्स ऑफिस का ट्रेंड हमेशा समाज और देश की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ही आगे बढ़ता है। देश और समाज अब उग्र राष्ट्रवाद और नेता नगरी के नित्य महिमामंडन से उकता चुका है। ये बात फिल्म उद्योग को देर से समझ आ रही है।