आयुष्यमान खुराना की फिल्म ‘बधाई हो’ अपने छठवें सप्ताह में भी दर्शक बटोर रही है।एक दशक से जारी एक्शन थ्रिलर का ‘फ़िल्मी ट्रेंड’ तेज़ी से बदल रहा है। पारिवारिक और रोमांटिक फिल्मों का दौर बाज़ार में ‘प्रवेश’ कर चुका है। इस साल प्रदर्शित फिल्मों में वे ज़्यादा सफल रही, जिनमें ‘स्माल टाउन’ की पृष्ठभूमि थी। इसके अलावा इस साल आयुष्यमान खुराना जैसे कलाकारों के सामने ‘खान तिकड़ी’ बेअसर नज़र आई। अक्षय कुमार जैसे दिग्गज भी कुछ ख़ास न कर सके। दर्शक का टेस्ट बदल रहा है। वह भारी भरकम तामझाम और विदेशी लोकेशंस देखकर ऊब चुका है। अब वह अपने घर-मोहल्ले की कहानी देखना चाहता है।
साल की शुरुआत में ‘पैडमैन’ और ‘अय्यारी’ फ्लॉप साबित होती है और एक गुमनाम फिल्म ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ जबरदस्त ढंग से कामयाब होती है। ‘रेड’ और ‘बागी-2’ बॉक्स ऑफिस पर तांडव कर रही थी और रेस जैसी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम हो रही थी। ‘102 नॉट ऑउट और राजी’ ने कामयाबी के रिकॉर्ड बनाए। इधर बड़े सितारों की ‘डिजाइनर’ फ़िल्में पिटती रही और उधर आयुष्यमान खुराना जैसे सितारों का उदय हुआ। उनकी दो फिल्मों ‘अंधाधुन’ और ‘बधाई हो’ ने बॉक्स ऑफिस को हिलाकर रख दिया। ‘स्त्री’ खूब चलती है क्योकि उसकी स्क्रिप्ट में छोटे शहर है, वहां की बोली है लेकिन ‘मनमर्जियां’ पिट जाती है क्योकि उसकी कहानी ‘महानगरीय हवा’ में सांस लेती है।
‘बधाई हो’ अपने छठवें हफ्ते में विजय पताका लहरा रही है जबकि उसके सामने ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ ढेर हो गई। ‘बधाई हो’ की सफलता ‘ईमानदारी’ से हासिल की गई सफलता है। उसके निर्माता ने रिलीज से पहले फिल्म महंगे दाम पर बेचकर दर्शक और सिनेमा संचालक को ठगने का काम नहीं किया था। ये फिल्म मात्र 29 करोड़ के बजट में बनाई गई थी। तगड़ी स्क्रिप्ट और बेमिसाल निर्देशन की ताकत है कि फिल्म आज भी पैसा बटोर रही है।
कम पैसों में फिल्म बनाओ। कहानी उत्कृष्ट हो और कलाकार बेजोड़ हो। यही मूलमंत्र बासु चटर्जी जैसे निर्देशकों का रहा। वह दौर लौट रहा है। बड़े निर्माण तो केवल राजामौली या राकेश रोशन जैसे फिल्मकार ही कर पा रहे हैं। आदित्य चोपड़ा तो अपना प्रोडक्शन फैक्टरी की तरह चला रहे हैं।फिल्म एक ऐसी विधा है जिसे ‘डिजाइन’ करना बहुत खतरनाक साबित होता है।
‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ के साथ यही हुआ है। इसमें रचनात्मक पक्ष कहीं नज़र ही नहीं आया। किरदारों को गहराई से नहीं लिखा गया। इसके उलट ‘बधाई हो’ का हर किरदार एक अलग खुशबू लिए पेश होता है। 2018 का साल एक बड़े बदलाव के लिए जाना जाएगा। ये साल बड़े सितारों के पतन का रहा है और नए सितारों के उदय का साक्षी रहा है। छोटे शहरों की कहानियां खूब पसंद की गई है।
ये गहरा संकेत है कि आप ‘महानगरीय दर्शकों’ के लिए फिल्म बनाओगे तो अधिक दूर नहीं चल सकते। आपको देशज सिनेमा ही सफलता दिलवा सकता है। ऐसा सिनेमा जिसमे अपनी माटी की सुगंध आती हो। ध्यान रहे सिनेमा वालो ‘भारत आपके लिए नहीं बदलेगा, आपको भारत के लिए बदलना होगा’।
URL: When the subject is strong, stars, screen and studios don’t matter
Keywords: ‘Badhai ho’, superhit, ‘Thugs of hindostan’, small town movies