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India Speaks Daily > Blog > Blog > SDeo blog > मजहबी भावना के खोल में लिपटा ‘जिहाद’ !
SDeo blog

मजहबी भावना के खोल में लिपटा ‘जिहाद’ !

Manisha Pandey
Last updated: 2016/11/11 at 4:46 PM
By Manisha Pandey 226 Views 12 Min Read
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12 Min Read
India Speaks Daily - ISD News
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कुछ दिन पहले टीवी पर आने वाले एक धारावाहिक की क्लिप्स देखीः दृश्य-1 लड़का और लड़की जो प्रेम करते हैं एक पंडित को हाथ दिखाते हुए लड़का अपने भावी भविष्य के बारे में पूछता है। पंडित सब अच्छा बताता है। फिर लड़का अगला सवाल करता हैं कि उन दोनों की मैरिड लाइफ कैसी होगी?

दृश्य-2 पंडित एक सिरे से इस प्रशन का उत्तर ‘न’ में देता हैं और कहता हैं, बहुत बहुत मुश्किल! इतना सुनते ही लड़की रूआंसी होकर वहां से दूर चली जाती है और लड़का उसको बेबस जान उसे सहारा देता है!

उसी शाम वह लड़की अपनी कार में अकेली बैठी दूर से एक झोपडी जलती हुई देखती है। और आँखों में आँसू और गुस्से के मिले जुले भाव से कहती है, ‘मैं क्या करती भगवान, पंडित जी को ऐसा नहीं कहना चाहिये था।’….और इसके बाद एक ऑडियो सुनाई देता है- ‘हद से ज्यादा कुछ भी अच्छा नही होता- प्यार भी नहीं! जूनून और पागलपन की मिली जुली रेखाएं उस लड़की के चेहरे पर साफ दिख रही थीं!

यह कोई कहानी नहीं है जो मै आप को सुना रही हूँ बल्कि यह आने वाले एक टीवी सीरियल का क्लिप है, जो कई लोगों ने देखा होगा और इसे देखने के बाद टीवी सीरियल देखने का मन भी बना लिया होगा! लेकिन मैं आप को यह क्यों बता रही हूँ ये सवाल महत्वपूर्ण है?

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यहाँ जिस ‘हद’ की बात हो रह है वो क्या है? इसका जवाब मानव मनोविज्ञान में है! और यह ‘हद’ जब ‘बे-हद’ बन जाती है, किसी मजहब के नाम पर तो यह अंधविश्वास और आतंक का रूप ले लेती है! हाल ही में कश्मीर में सशस्त्र बल के हाथों आंतकवादी बुरहान वानी मारा गया। उसको सजदा करने, उसकी मौत पर नमाज पड़ने वाले लोगो ने 1 नहीं २ नहीं ३ नहीं ४० -४० बार अलविदा की नमाज पढ़ी। इसके पीछे वो कौन सी बात थी जिसने जहाँ एक ओर लोगो को एक वहशी आतंकवादी के खत्म होने का सुख दिया, वहीं दूसरी ओर उसी चंद लोगों का हुजूम एक बड़ी रैली में बदल कर उस आतंकवादी के लिए फातीहा पढ़ता नजर आया!

इस बात को समझाना उतना ही मुश्किल है जितना की इंसानी संरचना में सबसे कठिन कृति- मस्तिष्क को समझना! विचारों से जुडी कोई भी बात किस गहराई तक किस में होगी, क्यों होगी, कब तक होगी ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिस का उत्तर इंसान केवल खुद ही ढूँढ सकता है। और ये सब जुड़ा है- इस अंत युक्त जीवन में अनंत विचारों को समझने के प्रक्रम में!

यहाँ हद पार कर दी बुरहान के उस पिता ने जो पेशे से खुद एक हेड मास्टर है। हाल ही में बुरहान के पिता मुजफ्फर वानी ने कहा कि उसको अपने बेटे पर फक्र है कि वो जिहाद करते हुए शहीद हुआ और उसे बिलकुल भी अफसोस नही होगा अगर इस राहपर चलते हुए उसकी बेटी को भी जन्नत नसीब हो!

यह जानने की जरूरत है कि कोई भी बयान, या बात क्या महज कुछ शब्द हैं जो कहे गए हैं !! … नहीं इसके पीछे एक बहुत गहरी और मजबूत विचारों की जड़ है जिसे अंध-आस्था का पानी और मजहब की खाद दी जा रही है। यहाँ मेरा अर्थ किसी धर्म विशेष को गलत कहने से नहीं है बल्कि इस ओर है कि मजहब की यह खाद मिलावटी तो नहीं ? कहीं जहर के पैकेट के ऊपर मजहब का लेबल लगा कर इसके मानने वाले लोगों के विचारों को गलत रास्ता तो नहीं दिखाया जा रहा?

सवालों का ताँता इतना लम्बा है की खत्म नही होगा। मगर यहाँ मेरा मकसद उस जवाब की तलाश है जो सवालों की इस झड़ी को किसी एक उत्तर से शांत कर दें। इसके लिए मैंने उस जिहाद का अर्थ खोजा जो आज कश्मीर सहित दुनिया के हर कट्टरपंथी की जबान पर है! जिसके लिए बुरहान वानी को उसके पिता शहीद का तमगा दे दिया, उसी जिहाद के नाम पर न जाने कितने बेगुनाह मारे और लहुलुहान किया जा रहे हैं!

आखिर क्या है ये जिहाद

आखिर क्या है ये जिहाद जिसे मजहबी कट्टरपंथी अपने हक की जंग कहते है। खुद को क्रांतिकारी की संज्ञा देते हैं! जिहाद का शाबदिक अर्थ है- striving in the way of GOD अर्थात अल्लाह के रास्ते पर चलने का प्रयास। इस परिपेक्ष्य में कई मुस्लिम स्कॉलर और गैर मुस्लिम स्कॉलर ‘जिहाद’ के दो अर्थ बताते हैं। पहला- inner spiritual struggle और दूसरा- An outer Phycial struggle against the enemies of islam. और इन दोनों ही अर्थों में जिहाद के रास्ते पर चलने वाले सच्चे मुस्लमान को Holy war यानि पवित्र युद्ध के मकसद के लिए किये जाने युद्ध का योद्धा कहना होगा! मगर अफसोस कितने ऐसे मुसलमान हैं जो सही अर्थों में जिहाद पर चल रह हैं! अलगाववादी व कट्टरपंथी तो बिलकुल भी नही! और वो लोग जो बिना अर्थ जाने जिहाद- जिहाद चिल्ला रहे हैं उनको जिहाद करने के बाद कौन सी जन्नत नसीब होगी पता नहीं!

कोई भी धर्म एक दूसरे से अलग हो सकता है लेकिन ‘अध्यात्म’ अपने आप में केवल एक है इस में अंतर क्या है? इस में वही अंतर है जो मंजिल तक पहुचने के रास्तों और मंजिल में है! धर्म अलग अलग रास्तें हैं उस ईश्वर की तरफ चलने के, और अध्यात्म वो संबल है जो यात्रा करने वाले को डगमगाने नहीं देता खुद में स्थिर हो कर उस एक परम शक्ति का भान करता है!

जो अध्यात्मिक है वो धर्म के कर्मकांडों, शाब्दिक ज्ञान से एक कदम आगे बढकर अपने ‘स्व’ का सही स्वरुप समझने के लिए खुद से जिहाद करता है। ये वो जिहाद है जो ता- उम्र खुद से चलती है फिर वो चाहें अपने ही विचारों से खुद की जिहाद हो या जिहाद हो उन शारीरिक, भौतिक कारणों से जो हमारे चारों तरफ हमें घेरे रहते हैं और फिर अंत में जन्नत मिलती है।

ये वो जन्नत होती है जिसमें किसी ‘हूर’ को पाने की ख्वाहिश भी नहीं होती क्यूंकि अंत समय आते आते इंसान अध्यात्म को पकड़ कर-उस परमशक्ति का दीदार यही इसी धरती पर कर लेता है। आज भी इसके बहुत से उदहारण हैं जैसे अंगुलिमाल डाकू, जो कट्टर हिंसा का मार्ग छोड़ कर गौतम बुद्ध का शिष्य बन गया था। सनातन परंपरा में ऐसे कई उदहारण भरे पड़े हैं!

इंसान का दिमाग और उसके विचारों को उस के अलावा सभी लोग इस्तेमाल कर सकते हैं- ये ज्यादा आसान है क्यूंकि जयादातर लोग खुद के विचारों को निर्देश देना जानते ही नहीं, और ऐसे में बहुत आसान हो जाता है शब्दों के माया जाल में उलझा कर उसे मजहब के संवेदनात्मक wreper में लपेट कर अर्थ को तोड़-मरोड़ कर पेश करना! और इतनी गहरी जड़े बिछाना कि मजहब के नाम पर इस्लाम के अनुयायी खुद-ब-खुद जिहाद की राह पर चलते हुए बेकसूरों की जान लेने, आतंकवाद को बढावा देने आदि में संलिप्त हो जाएं!

संत कबीर जिनकी न कोई जाति थी और न धर्म, जो अध्यात्मिक ज्ञान के भण्डार से न जाने कितने सुविचार लोगो को दे गए। कबीर दस जी ने कहा-

माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर
तन का मनका डारि दे, मन का मनका फेर

यहाँ मनका = मोती माला का , मन का = हृदय का अर्थात विचारों को बदलने के लिए लगातार अपने चिंतन की माला को फेरने की जरूरत है। माला उठा लेने मात्र से विचार नहीं बदलेंगे। कबीरदास जी जाति और धर्म से ऊपर उठ कर इतनी गहन बात इसलिए सरलता से कह पाए क्योंकि वो धर्म की लकीर के फकीर नहीं थे, बल्कि आध्यात्मिकता के मार्ग पर चल कर ‘स्व’ को समझने वाले इंसान थे! मगर अफसोस आज बुरहान वानी के पिता मुजफ्फर वानी जैसे लोग किताबी ज्ञान प्राप्त कर शिक्षा को शर्मिंदा कर रहे हैं। और उलझे हुए हैं उस बाहरी माला के मनको को देखने में कि वो रुद्राक्ष के हैं या हरे हकीक’ के! हरा हकीक एक प्रकार का पत्थर जिसको मुस्लिम पवित्र मानते हैं.

बुरहान के आतंकी बनने को उसके पिता ने कश्मीर की मजहबी आजादी से जोड़ दिया

मजहब के चंद ठेकेदार धर्म की इसी अज्ञानता का लाभ उठाते हैं और धर्म के हथौड़े से उस भावनात्मक पक्ष पर चोट करते हैं जहाँ बार बार चोट करने से वो कारण दिखने लगे जो है ही नहीं! ऐसा ही हुआ बुरहान के आतंकी बनने के पीछे। इसके बारे में कहा जाता है कि वर्ष 2010 के दौरान जब कश्मीर में हिंसक प्रदर्शनों का दौर चल रहा था उसी दौरान वह एक दिन अपने भाई खालिद के साथ मोटरसाइकिल पर घूम रहा था। एक जगह पुलिस ने नाका लगाया था। दोनों भाइयों को पुलिसकर्मिंयों ने रोका। उन्होंने कथित तौर पर बुरहान को बाजार से अपने लिए सिगरेट लाने भेजा था। इस पर उनकी पुलिसकर्मियों से बहस भी हुई और पुलिसकर्मियों ने खालिद को पीटा था। इसके कुछ ही दिनों बाद बुरहान आतंकी बन गया था। उस समय उसकी आयु 15-16 साल थी। लेकिन उसके पिता पिटाई की बात के बजाय कहते थे कि मेरे बेटे ने भारत के अवैध कब्जे से कश्मीर को आजाद कराने के लए जिहाद का रास्ता चुना है। इसके अलावा कोई और कारण नहीं था।

किसी भी इंसान का मनोविज्ञान केवल तर्कों से कभी भी पूर्ण रूप से नहीं बदला जा सकता। जब तक मजहब या रिलीजन के नाम पर ठगने वाले बहरूपिये बच्चों के मनोविज्ञान से खेलते रहेंगे, उनको धर्म के चश्मे से मामूली खरोचों को नासूर बना दिखायेगे, तब तक उनको धरती की एक मात्र जन्नत कश्मीर जो खुदा ने खुद नसीब की है, वो जिहाद का मैदान ही दिखेगी! और पढ़े लिखे तमाम धार्मिक मौलाना भी अपने मन के विज्ञान को अलगाववादियों की प्रयोगशाला बनने देंगे। मानव के मन का विचारों से भरा यह विज्ञान केवल अध्यात्म ( आत्मा का अध्ययन) के द्वारा ही सही दिशा पा सकता है।

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Manisha Pandey September 20, 2016
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