मुसलमान क्योंकि मनुष्य हैं, जानवर और हैवान नहीं तो उन्हें बतौर इस्लाम के बंदे सोचना चाहिए कि पंडित नेहरू से लेकर जनवरी 1990 में चावल के ड्रम में छुपे सतीश पंडित, उसके परिवार और घाटी के बाकी पंडितों ने मुसलमानों के साथ ऐसा क्या बदसलूक किया था, ऐसी क्या हिंसा की थी, जो उन्होंने उनके साथ ऐसी अहसानफरामोशी, ऐसा जंगली सलूक किया? क्या इससे इस्लाम की ख्याति हुई? क्या इससे मुसलमामों का जीना मुश्किल नहीं हुआ? क्या भारत का मुसलमान तालिबानी, बगदादी, बिन लादेनी जीवन चाहता है? इस तरह की हैवानियत से क्या वह अपने ‘अच्छे दिन’ संभव मानता है? Kashmir Files Muslims Apologize
सोचें हिंदुओं ने, गांधी-नेहरू ने मुसलमानों को भारत में रहने का मौका दिया या नहीं? नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को दोस्त माना, उन्हें कश्मीर का शेर ए कश्मीर बनने दिया तो उसने बदले में पंडित नेहरू को क्या धोखा नहीं दिया? फिर इंदिरा गांधी का भरोसा बना सीएम बन कर हिंदुओं को भगाने की इस्लामियत उभारना, परिस्थितियां बनाना क्या भस्मासुर पैदा करना नहीं था? हिंदुओं की एथनिक क्लींजिंग पर कश्मीरी मुसलमान का यह सौ टका फरेब है कि मुसलमान भी तो मरे।
क्या वह पंडित नेहरू का शुरू कराया सिलसिला था? या 1946 से ही शेख की पार्टी से निकले चौधरी और उनके गुर्गों व पाकिस्तान बनवाते मुस्लिम लीगी नेताओं के बोए बीज से था? भारत के हर मुसलमान को (मप्र के मुस्लिम आईएएस और कौम के सभी पढ़े-लिखों को भी) जानना चाहिए कि हिंदुओं की भलमनसाहत थी, इंसानियत थी जो 1946-47 में मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन, कत्लेआम के बावजूद हिंदुओं ने मुसलमानों को बेघर करके पाकिस्तान नहीं भगाया। हां, गांधी-नेहरू-पटेल-श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पहली सर्वदलीय अंतरिम सरकार यदि चाहती तो आबादी की अदला-बदली में मुसलमानों को भगाया जा सकता था। पर सनातनी हिंदू इंसानियत का सनातन धर्म लिए हुए था न कि जिहादी धर्म। धोखे और बंटवारे के बावजूद हिंदुओं ने सह्दयता दिखाई। उसने सर्व-धर्म-समभाव का सेकुलर व्यवहार बनाया।
सोचे, हिंदुओं ने मुसलमानों को क्या दिया? वह दिया जो पाकिस्तान में भी नहीं मिला। वोट और लोकतंत्र का सतत अधिकार। धर्म की आजादी। भारत के हर मुसलमान को नोट रखना चाहिए कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान हो या श्रीलंका या म्यांमार या चीन, पड़ोस में हर जगह मुसलमान मारा, भगाया और कैंपों में जकड़ा-गुलाम बनाया गया है। फिर भले शिया, अहमदिया जाति, हजारा जाति, बलूची या रोहिंग्या, शिनजियांगी उइगरी के नाम के मुसलमान हो। हां, पाकिस्तान की मुस्लिम आबादी में नीच जाति के मुसलमान वैसी ही जलालत, भेदभाव में जीते हैं, जैसे कश्मीर घाटी में भी ऊंची जाति के मुसलमान से नीची जाति के मुसलमान भेदभाव में जीते हुए हैं।
मैं गलत नहीं लिख रहा हूं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, कश्मीर घाटी से लेकर दुनिया के तमाम वहाबी इस्लामी ठिकानों की जिहादी तासीर में सीरिया से लेकर इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान का सत्य है कि मुसलमान ने मुसलमान को मारा है और लगातार मारते हुए हैं। आतंक के धमाकों में स्कूली बच्चों को उड़ाया है तो घाटी में बच्चों को पढ़ाने वाली महिलाओं को मारा है। पिछले 75 वर्षों में भारत अकेला वह देश है, जहां मुसलमान के पास लगातार यह विकल्प रहा है कि वह जाहिल-काहिल-जिहादी-जंगली नहीं बने, बल्कि इंसान की तरह जीये और भारत का राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति, कैबिनेट सचिव, चीफ जस्टिस, मुख्यमंत्री, केद्रीय मंत्री, आईएएस-आईपीएस (जाकिर हुसैन, अब्दुल कलाम, जफर सैफुल्लाह, हिदायतुल्लाह, मिर्जा बेग, अहमदी, कबीर आदि, आदि) बनने का मुसलमान लगातार अवसर पाते रहे हैं। मुसलमानों को आजादी रही है कि वे आधुनिक बनें या जाहिल बनें! परोपकारी, धर्म के सच्चे इंसानी बंदे बनें या मनुष्य को खाने के नरभक्षी! वे अपनी जर-जमीन के वफादार बने या वहाबी-पाकिस्तानी प्रोपेंगेंडा से कठमुल्ला।
इतनी क्लियर-साफ सच्चाई! फिर भी पढ़े-लिखे मुसलमानों की यह कैसी दलील की कश्मीरी पंडितों के साथ जंगली-बर्बर सलूक की सच्चाई पर फारूक-उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती महबूबा आदि कहते हैं कि मुसलमान भी मरे! क्या भारत में मुसलमान ऐसे जंगलीपने में कहीं भी मरा है, जैसे चावल के ड्रम में कश्मीरी पंडित पर अंधाधुंध गोलियों, या एक साथ खड़ा करके मारने जैसा वाकया हुआ। संदेह नहीं कि सेना-पुलिस बल की गोलियों से मुसलमान मरे हैं लेकिन वे सब अलगाववादियों-हथियार उठाए आंतकियों, साजिशकर्ताओं के शक में मारे गए। ऐसा सऊदी अरब से लेकर पाकिस्तान याकि हर देश का सुरक्षा बल करता है क्योंकि मानव समाज में जंगल राज नहीं बनने दिया जा सकता!
अब्दुल्ला एंड पार्टी और सेकुलर जमात की यह भी फिजूल बात है कि आतंकियों से मुसलमान भी मरा। तो ये बताएं कि उन आतंकियों को किसने पैदा किया? क्या हिंदू पंडितों ने? पाकिस्तान, आईएसआई, शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद की साजिश और राजनीति से घाटी में भस्मासुर की तरह यदि मुस्लिम आतंकी पैदा हुए तो उसमें हिंदू पंडित कैसे कसूरवार? क्या कश्मीरी हिंदू की वजह से 1990 में मीर वाइज फारूक या अब्दुल गनी लोन आदि अलगाववादी चेहरे और लड़ाके मारे गए? आतंक में कश्मीरी मुसलमान भी मरा तो वह खुद मुसलमान से, आईएसआई, पाकिस्तान के कारण मरा। यदि लगातार मुस्लिम आतंकी, अलगाववादी मुसलमान को मारते हुए हैं तो ऐसा पाकिस्तान व अफगानिस्तान में भी है। यह सब क्या हिंदू के कारण, भारत के कारण है? क्या किसी एक हिंदू पंडित ने घाटी में कभी बंदूक उठाई? चलाई? तब हिंदू पंडितों पर बर्बरता और उनकी एथनिक क्लींजिंग में भारत का कोई मुसलमान-सेकुलर कैसे यह झूठी दलील दे सकता है कि मुसलमान भी मरे तो हम क्यों माफी मांगे? हम क्यों पश्चाताप करें?
हर मुसलमान को सच्चाई नोट रखनी चाहिए कि कश्मीर घाटी में आज भी मुस्लिम आतंकी सक्रिय हैं। दो दिन पहले ही इन मुस्लिम आतंकियों ने बडगांव में एक आम मुसलमान तंजमुर को मारा। याद करें सन् 2020 में श्रीनगर की मुख्य मस्जिद पर मुसलमानों की सुरक्षा के लिए तैनात डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की मुसलमानों की भीड़ द्वारा उसे बुरी तरह लिंच करके मारने की घटना को। वह मुसलमानों द्वारा एक मुसलमान की बर्बर जंगली लिंचिंग थी। क्या उस घटना पर देश में, सेकुलर-उदार हिंदू-मुस्लिमों ने हल्ला या नैरेटिव बनाया कि घाटी में भी लिंचिंग की घटनाएं हैं? वह भी मुसलमान द्वारा शब-ए-कद्र की नमाज के मौके पर हजारों की संख्या में मौजूद भीड़ के बीच!
क्या इससे इस्लाम का गौरव बना? क्या इस पर मुसलमान यह दलील बनाएगा कि मुसलमान भी मरे हैं या मर रहे हैं तो हम ‘कश्मीर फाइल्स’ पर क्यों सोचें?
लिखना लंबा होता जा रहा है! लब्बोलुआब में हर मुसलमान से आग्रह है कि वह ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को देखे। सिनेमा हॉल में जा कर नहीं देख सके तो बाद में देखे और जैसे हिंदुओं की अक्ल ने 32 साल बाद सत्य जाना वैसे वह भी घाटी की सच्चाई देख शर्म महसूस करे और अपने कश्मीरी बिरादरान को कहे कि उनसे इस्लाम कलंकित हुआ है, हो रहा है। वे पश्चाताप करें और हिंदुओं को श्रीनगर में लौटने के लिए उनके घर लौटाएं, उनकी अलग कॉलोनियां बनवाएं। वे दुनिया को बताएं कि उनकी कथित जन्नत में इस्लाम के सच्चे बंदे रहते हैं न कि जाहिल, काहिल और जंगली!
मेरा मानना है भारत का मुसलमान मूलतः क्योंकि हिंदू डीएनए लिए हुए है इसलिए उसकी तासीर तालिबानी नहीं है। वह कश्मीर घाटी में बगदादी का इस्लामी स्टेट या तालिबानी जीवन नहीं चाहेगा। जनवरी 1990 की ‘कश्मीर फाइल्स’ की सच्चाई का सत्य है कि तब अफगानिस्तान से रूसी सेना के भागने, ईरान में खुमैनी के अयातुल्लाह राज से मिले हौसले से जेकेएलएफ आदि संगठनों ने बंदूकें लहराई थीं। मैं पिछले साल जब घाटी में था तब कई जगह दिवालों पर ‘तालिबानी वेलकम’ लिखा दिखा था। इसलिए क्योंकि इस्लाम के कारण, इस्लाम के खिलाफ पिछले दो दशकों से जो वैश्विक माहौल है उससे कश्मीर और भारत के मुसलमानों की भी (दिल्ली में नासमझ हिंदू सरकार के कारण भी) एक धारा इस्लाम के झंडे के नीचे विश्व को लिवाने की भटकी सोच में है। वह तालिबानी, अल कायदा, आईएसआईएस याकि कट्टरपंथी इस्लाम से क्रांति का इलहाम पाते हुए है। मेरा मानना है यह मुसलमान की अपनी बरबादी की अपने हाथों बनाई कब्र होगी।
तभी मैं भारत के सेकुलरों की नंबर एक असफलता मानता हूं जो उन्होंने केरल से लेकर कश्मीर, गुजरात से लेकर असम तक के मुसलमानों में यह नैरेटिव नहीं पैठाया कि वे सूफी-संतों, ख्वाजा चिश्ती, दिने इलाही, चरारे शरीफ याकि मूल हिंदू डीएनए लिए कनवर्टेड मुसलमान हैं। सो, भारत में ही जीना है और भारत में ही मरना है। जबकि जिन मुसलमानों ने अफगानिस्तान- पाकिस्तान में जीना चुना वे हिंदुस्तान से ज्यादा बुरी दशा में जीते हुए हैं। 75 वर्ष पहले सऊदी अरब के वहाबी इस्लाम को अपनाए हुए भारतीय मुसलमान मुश्किल से पांच-दस प्रतिशत था। अब वह बड़ी तादाद में है। भटका हुआ है। वजह सिर्फ और सिर्फ सऊदी अरब और उसके वहाबी इस्लाम के पैसे, प्रचार के संगठन हैं। यह गंभीर शोध का विषय है कि सन् 1947 से ले कर अब तक केरल से लेकर कश्मीर घाटी में वहाबी इस्लाम का मुस्लिम घरों में जो फैलाव हुआ तो उसे क्या भारत राष्ट्र-राज्य ने कभी समझा? उसे रोकने, खत्म करने के लिए मोदी राज से पहले क्या था और अब क्या है? वहाबी प्रभाव से भारतीय मुसलमानों में तालिबानी-बगदादी-अल कायदा जैसी इस्लामियत कितनों के दिल-दिमाग में फैली है?
मुझे समझ नहीं आता है कि भारत का आम मुसलमान जब खाड़ी देशों से लेकर मलेशिया, आसियान देशों और हज यात्रा के कारण सऊदी अरब का अनुभव लिए हुए है तो उसे यह अहसास है या नहीं कि यदि बिन लादेन, बगदादी, तालिबानी इन देशों में निष्कासित, वर्जित, अछूत थे या हैं तब घाटी का आम मुसलमान कैसे ‘वेलकम तालिबान’ का ख्याल बना सकता है।
तभी भारतीय मुसलमान सोचें वे क्या अपना जीना तालिबानी चाहते हैं? इस्लाम यदि इंसान व इंसानियत का धर्म है और यदि उसे पृथ्वी को दारूल इस्लाम बनाना भी है तो इसके लिए कुरान में यह तो कहीं नहीं लिखा हुआ है कि पहले दोजख बनाया जाए और उसके बंदे जंगली-बर्बर बनें। तब कथित जन्नत कश्मीर घाटी को क्यों हैवानियत का जंगल बनाया? सचमुच घाटी के मौलानाओं, इमामों, जमायतियों, तबलीगियों और अब्दुल्ला-मुफ्तियों व कश्मीरी मुसलमानों के साथ पूरे भारत के मुसलमानों को मानना चाहिए कि ‘कश्मीर फाइल्स’ का सत्य उनकी शर्म है। इसलिए वे पश्चाताप का मन बनाएं। संकल्प करें कि अल्लाह के बंदे इंसान बने रहेंगे और कश्मीर को वापस पहले जैसी कश्मीरियत में लौटाएंगे।
बहुत हुआ। कश्मीर फाइल समाप्त!