श्वेता पुरोहित-
‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति। व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम ‘व्रज’ पड़ा है। सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण का निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे आप्तकाम हैं। प्रेम रस में डूबे हुए रसिक जन ही उनका अनुभव करते हैं।
‘काम’ शब्द का अर्थ है कामना, अभिलाषा; व्रज में भगवान् श्रीकृष्ण के वांछित पदार्थ हैं – गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला- विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसी से श्रीकृष्णको ‘आप्तकाम’ कहा गया है।
भगवान श्रीकृष्ण की यह रहस्य लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं। प्रकृति के साथ होनेवाली लीला में ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है।
इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान्की लीला दो प्रकार की है – एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारि की। वास्तवी लीला स्वसं वेद्य है-उसे स्वयं भगवान् और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारि की लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्यावहारि की लीला नहीं हो सकती; परंतु व्यावहारि की लीला का वास्तवी लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। हमने भगवान्की जिन लीलाओं को देखा, वो व्यावहारि की लीला थीं। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीलाके अन्तर्गत हैं।
इसी पृथ्वीपर मथुरामण्डल है। यहीं वह व्रजभूमि है, जिसमें भगवान की वह वास्तवी रहस्य लीला गुप्त रूप से सदा होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तों को सब ओर दिखने लगती है। कभी अट्ठाईसवें द्वापर के अन्त में जब भगवान्की रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, उस समय भगवान् अपने अन्तरंग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतार का यह प्रयोजन होता है कि रहस्यलीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरंग परिकरों के साथ सम्मिलित होकर लीला-रस का आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब ओर अवतार लेते हैं।
कृष्ण अवतार में भगवान अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अन्तर्धान हो गए। इससे यह निश्चय हुआ कि उस समय व्रज में तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे; ऐसा मानने में तनिक भी सन्देहके लिये गुंजाइश नहीं है।
उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो भगवान के नित्य ‘अन्तरंग’ पार्षद हैं – जिनका भगवान से कभी वियोग होता ही नहीं।
दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान को पाने की इच्छा रखते हैं – उनकी अन्तरंग लीला में अपना प्रवेश चाहते हैं।
तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं। इनमें से जो देवता आदि के अंश से अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान्ने व्रजभूमि से हटा कर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था; फिर जब ब्राह्मणों के शाप से यदुवंश का संहार करने के लिये साम्ब के पेट से मूसल प्रकट हुआ और उस मूसल के चूरे से प्रभासक्षेत्र में एरका नाम की घास उत्पन्न हो गयी, उस समय परस्पर कलह होने पर सभी यदुवंशी उन एरकाओं से एक-दूसरे को मार कर मरगये।
इस प्रकार भगवान्ने उस मूसल के मार्ग से यदुकुल में उत्पन्न हुए देवताओं को स्वर्ग में भेजकर पुनः अपने-अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान को ही पाने की इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्द स्वरूप बनाकर श्रीकृष्ण ने सदा के लिये अपने नित्य अन्तरंग पार्षदों में सम्मिलित कर लिया।
जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि व्रज में गुप्त रूप से होने वाली नित्यलीला में सदा ही रहते हैं, परंतु जो उनके दर्शन के अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषों के लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं। जो लोग व्यावहारिक लीला में स्थित हैं, वे नित्यलीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं हैं; इसीलिये व्रज में आनेवालों को सब ओर निर्जन वन सूना-ही-सूना दिखायी देता है, क्योंकि वे वास्तविक लीला में स्थित भक्तजनों को देख नहीं सकते।
राधा रानी की जय 🙏
मनमोहन गिरधर गोपाल की जय 🙏
पवित्र व्रज भूमि की जय 🙏
वैष्णव भक्तों की जय 🙏