श्वेता पुरोहित-
इस पृथ्वी पर विदूरथ नाम के एक राजा हो चुके हैं। उनकी कीर्ति बहुत दूरतक फैली हुई थी। उनके दो पुत्र थे – सुनीति और सुमति। एक दिन राजा विदूरथ शिकार खेलने के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक विशाल गढ़ा दिखायी दिया, जो पृथ्वी का मुख-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर राजाने सोचा, यह भयंकर गर्त क्या है? मालूम होता है पातालतक जानेवाली गुफा है, पृथ्वी का साधारण गर्त नहीं; देखने में भी पुराना नहीं जान पड़ता। उस निर्जन वन में इस प्रकार सोचते-विचारते हुए राजा ने वहाँ सुव्रत नामके तपस्वी ब्राह्मणको आते देखा और निकट आनेपर उनसे पूछा- ‘यह क्या है? यह गर्त बहुत ही गहरा है, इसमें पृथ्वी का भीतरी भाग दिखायी दे रहा है।’
ऋषि ने कहा–राजन्! क्या आप इसे नहीं जानते? इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब राजा को जानना चाहिये। रसातल में एक महापराक्रमी भयंकर दानव निवास करता है; वह पृथ्वी को जृम्भित (छिद्रयुक्त) कर देता है, इसलिये उसे कुजृम्भ कहते हैं। नरेश्वर! वह पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग में जो कुछ करता है, उसकी जानकारी आप क्यों नहीं रखते। पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने जिसका निर्माण किया था, वह सुनन्द नाम का मूसल उस दुष्टात्मा ने हड़प लिया। उसी से युद्ध में वह शत्रुओं का संहार करता है। पाताल के अंदर रहकर उस मूसल से ही वह इस पृथ्वी को विदीर्ण कर देता है और इस प्रकार समस्त असुरों के आने-जाने के लिये द्वार बना लेता है। जब आप पाताल के भीतर रहनेवाले इस शत्रु का नाश करेंगे, तभी वास्तव में सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी हो सकेंगे।
राजन्! उस मूसल के बलाबल के विषय में विद्वान् पुरुष ऐसा कहते हैं कि यदि कोई स्त्री वह मूसल छू दे तो वह उस दिन निर्बल हो जाता है, किन्तु दूसरे दिन फिर पूर्ववत् प्रबल हो जाता है। युवती की अँगुलियों के स्पर्श से उसकी शक्ति के नष्ट हो जाने का जो दोष या प्रभाव है, उसे वह दुराचारी दैत्य भी नहीं जानता। भूपाल! आपके नगर के समीप ही उसने यह पृथ्वी में छेद किया है, फिर भी आप निश्चिन्त क्यों हैं।
इतना कहकर ब्रह्मर्षि सुव्रत चले गये। राजा ने भी अपने नगर में जाकर मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों से परामर्श किया और कुजृम्भ के विषय में जो कुछ सुना था, वह सब कह सुनाया। उन्होंने मूसल का वह प्रभाव भी, कि स्त्री के स्पर्श से उसकी शक्तिका ह्रास हो जाता था, मन्त्रियों को बताया। जिस समय राजा मन्त्रियों के साथ परामर्श कर रहे थे, उस समय उनकी कन्या मुदावती भी पास ही बैठी सब कुछ सुन रही थी। तदनन्तर कुछ दिनों के बाद कुजृम्भ ने सखियों से घिरी हुई उस राजकन्या को उपवन से हर लिया। यह बात सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से चञ्चल हो उठे और उन्होंने अपने दोनों पुत्रोंसे, जो वनके मार्ग भलीभाँति जानते थे, कहा-‘तुम लोग शीघ्र जाओ। उस दानवने निर्विन्ध्या के तटपर गढ़ा बना रखा है, उसी के मार्ग से रसातल में जाकर मुदावती का अपहरण करने वाले उस दुष्ट को मार डालो।’
तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दोनों राजकुमार उस गर्त के मार्ग से सेनासहित रसातल में जा पहुँचे और कुजृम्भ से युद्ध करने लगे। उनमें परिघ, खड्ग, शक्ति, शूल, फरसे तथा बाणों की मार से निरन्तर अत्यन्त भयानक संग्राम होता रहा। फिर माया के बली दैत्य ने युद्ध में उन दोनों राजकुमारों को बाँध लिया और उनके समस्त सैनिकों का संहार कर डाला। यह समाचार पाकर राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपने सभी योद्धाओं से कहा—‘जो इस दैत्य का वध करके मेरे दोनों पुत्रों को छुड़ा लायेगा, उसको मैं अपनी कन्या ब्याह दूँगा।’ भनन्दन के पुत्र वत्सप्री ने भी यह घोषणा सुनी। वह बलवान्, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता तथा शूरवीर था। उसने अपने पिता के प्रिय मित्र राजा विदूरथ के पास आकर उन्हें प्रणाम किया और विनीत भाव से कहा-‘महाराज! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपके ही तेज से उस दैत्य को मारकर आपके दोनों पुत्रों तथा कन्याको छुड़ा लाऊँगा।’ यह सुनकर राजाने अपने प्यारे मित्रके उस पुत्रको प्रसन्नतापूर्वक छाती से लगा लिया और कहा- ‘वत्स! जाओ, तुम्हें अपने कार्य में सफलता प्राप्त हो।’
तदनन्तर वीर वत्सप्री खड्ग और धनुष ले, अँगुलियों में गोधा के चर्म से बने हुए दस्ताने पहन कर पूर्वोक्त गढ़े के मार्ग से तुरंत पाताल में गया। वहाँ उसने अपने धनुष की भयंकर टङ्कार सुनायी, जिससे सारा पाताल गूँज उठा। वह टङ्कार सुनकर दानवराज कुजृम्भ अपनी सेना साथ ले बड़े क्रोध के साथ वहाँ आया और राजकुमार के साथ युद्ध करने लगा।
दोनों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ थीं, एक बलवान दूसरे बलवान वीर के साथ युद्ध हो रहा था। लगातार तीन दिनों तक घमासान युद्ध होता रहा, तब वह दानव अत्यन्त क्रोध में भरकर मूसल लानेके लिये दौड़ा। प्रजापति विश्वकर्मा का बनाया हुआ वह मूसल सदा अन्तःपुर में रहता था और गन्ध, माला तथा धूप आदि से प्रतिदिन उसकी पूजा होती थी।
राजकुमारी मुदावती उस मूसल के प्रभाव को जानती थी। अतः उसने अत्यन्त नम्रता से मस्तक झुकाकर उस श्रेष्ठ मूसल का स्पर्श किया। वह महान् दैत्य जबतक उस मूसल को हाथ में ले, तबतक ही उसने नमस्कार के बहाने अनेक बार उसका स्पर्श कर लिया; फिर उस दैत्यराज ने युद्धभूमि में जाकर मूसल से युद्ध आरम्भ किया; किन्तु उसके शत्रुओं पर मूसल के प्रहार व्यर्थ सिद्ध होने लगे। उस दिव्य अस्त्र के निर्बल पड़ जानेपर दैत्यने दूसरे अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा शत्रु का सामना किया। राजकुमार ने उसे रथ हीन कर दिया। तब वह ढाल-तलवार लेकर उसकी ओर दौड़ा। उसे क्रोध में भर कर वेग से आते देख राजकुमार ने कालाग्नि के समान प्रज्वलित आग्नेय-अस्त्रसे उसपर प्रहार किया। उससे दैत्य की छाती में गहरी चोट पहुँची और उसके प्राणपखेरू उड़ गये।
उसके मारे जानेपर रसातल निवासी बड़े-बड़े नागों ने महान् उत्सव मनाया। राजकुमार पर फूलों की वर्षा होने लगी। गन्धर्वराज गाने लगे और देवताओं के बाजे बज उठे। राजकुमार वत्सप्री ने उस दैत्य को मारकर राजा विदूरथ के दोनों पुत्रों तथा कृशाङ्गी कन्या मुदावती को भी बन्धन से मुक्त किया। कुजृम्भ के मारे जानेपर नागों के अधिपति शेषसंज्ञक भगवान् अनन्त ने उस मूसल को ले लिया। मुदावती ने सुनन्द नामक मूसल के गुण को जानकर उसका बारंबार स्पर्श किया था, इसलिये नागराज अनन्त ने उसका नाम सुनन्दा रख दिया। तत्पश्चात् राजकुमार ने भाइयों सहित उस कन्या को शीघ्र ही पिता के पास पहुँचाया और प्रणाम करके कहा—‘तात! आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपके दोनों पुत्रों और इस मुदावती को भी छुड़ा लाया। अब मुझसे और भी जो कार्य लेना हो, उसके लिये आज्ञा कीजिये।’
इसपर महाराज विदूरथ के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उच्चस्वरसे बोले—‘बेटा! बेटा!! तूने बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया। आज देवताओं ने तीन कारणों से मेरा सम्मान बढ़ाया है—एक तो तुम जामाता के रूपमें मुझे प्राप्त हुए, दूसरे मेरा शत्रु मारा गया तथा तीसरे मेरी सन्तानें कुशल पूर्वक लौट आयीं; अतः आज शुभ मुहूर्त में तुम मेरी इस कन्या का पाणिग्रहण करो।’ यों कहकर राजा ने उन दोनों का विधिपूर्वक विवाह कर दिया।
नवयुवक वत्सप्री मुदावती के साथ रमणीय प्रदेशों तथा महलोंमें विहार करने लगा। कुछ काल के बाद उसके वृद्ध पिता भनन्दन वन में चले गये और वत्सप्री राजा हुआ। उसने सदा ही प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए अनेक यज्ञ किये। वह प्रजाको पुत्रकी भाँति मानकर उसकी रक्षा करता था। उसके राज्य में वर्णसङ्कर सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। कभी किसी को लुटेरों, सर्पों तथा दुष्टों का भय नहीं हुआ। इसके शासनकाल में किसी प्रकार के उत्पात का भी भय नहीं था।