अर्चना कुमारी । मुंबई की श्रद्धा और आफताब “साथ जीने और साथ साथ मरने” की कसमें खाते हुए और मुंबई छोड़कर दिल्ली गए। वहां अफताब ने श्रद्धा को हवस का शिकार बनाने के बाद “यादों में सदैव के लिए जिंदा रखने के लिए उसके शरीर के ३५ टुकड़े किए और चील कव्वे को खाने के लिए दिल्ली के आस पास के जंगलों में फेंक दिया।
अब तक का इतिहास रहा है कि जब भी “श्रद्धाएं” मां बाप की मर्जी से खिलाफ “आफताबों के साथ भागी हैं, हश्र लगभग ऐसा ही हुआ है। हाईप्रोफाइल लोगों की तो जाति और धर्म से कोई मतलब नहीं रहता, इस वजह से शाहरुख के घर गौरी भी सुरक्षित रह लेती है लेकिन हिंदू लड़कियां अक्सर इस तरह की घटनाओं से सबक नहीं ले ,बोलती है कि मेरा अब्दुल इससे अलग है ।
फिर अब्दुल”” उन्हें बोरियों, बैगों या फ्रीजों में ठूंस कर “दूसरी” की तलाश में निकल पड़ते हैं। सूटकेस, फ्रिज में मिलती मासूम लड़कियों की लाशें शायद मैकाले शिक्षा पद्धति का ही दुष्परिणाम है ! हम बच्चों को अच्छे से तैयार करके स्कूल तो भेज देते हैं पर इस पर ध्यान नहीं देते की बच्चे शिक्षा के अलावा वहां क्या सिख रहा है ! उसकी दोस्त कैसे हैं उसकी रोजमर्रा कैसी हैं उसकी ध्यान पढ़ाई में है या और कहीं ?
शिक्षा के साथ बच्चों को संस्कार देना भी अत्यंत आवश्यक है लेकिन इस बारे में कभी चर्चा परिचर्चा नहीं होती। सच यह भी है कि लड़की फँसती नहीं, फँसाई जाती है। उसके चारों ओर इतना मजबूत जाल बनाया जाता है कि अंततः उसे फंसना ही होता है। धर्म तो कभी बातचीत का हिस्सा ही नहीं होता।
वैसी लड़की किसी शिकारी के जाल से कहाँ बच पाएगी? टीवी पर, स्कूल-कॉलेज में, खेलकूद में, अखबार पत्रिका में, कोर्स की किताबों तक में सेक्युलरिज्म की महिमा गायी जा रही है। ऐसे समय में यदि परिवार भी बच्चों से धर्म को लेकर बात नहीं करे तो फिर बच्ची कैसे समझेगी? ऐसी लड़की को कोई आफताब अब्दुल या फिर शाहरुख मिलता है जिसने अपनी फेसबुक आईडी तक में धर्म के कॉलम में “मानवता” लिखा है, और प्रेम की मूर्ति बना उसकी दुनिया बदल देने के दावे करता है, तो उसके लिए बचना आसान है क्या? सोचिए ,समझिए और अपने बच्चों को संस्कार दीजिए