सोमवार को म्यांमार के लोगों ने सैन्य शासन तख्तापलट की विरुद्ध देशव्यापी हड़्ताल भी की . देशभर में दुकानें, कारखाने और दफ्तर बंद रहें.
प्रद्रशनकारियों के हड़्ताल के आह्वाहन के खिलाफ हुनता की कार्यवाई की धमकी के बावजूद हज़ारों की संख्या में लोग यांगून केअमेरिकी दूतावास के पास एकत्रित हुये.
म्यांमार में सेना ने एक फरवरी को तख्तापलट करते हुए आंग सान सू की समेत कई प्रमुख नेताओं को हिरासत में ले लिया था। तख्तापलट के खिलाफ कई शहरों में लोग विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद प्रदर्शन कर रहे हैं।
और ये जो प्रद्रशनकारियो ने देशव्यापी हड़्ताल का निर्णय लिया, इसके पीछे म्यांमार के सैन्य शासन की प्रदर्शनकारियों पर बढ्ती हिंसा है.
म्यांमार मे प्रद्रशनकारियों पर अब खुल्लम खुल्ला गोलीबारी की जा रही है. वहां की सेना अब इस जन आंदोलन को कुचलने के लिये खुलेआम हिंसा पर उतर आई है. प्रद्रशनकारियों पर की गई गोलीबारी मे अब तक कमसकम 3 लोगों की मौत हो चुकी है. इनमे से सबसे पहली मौत एक युवती की हुई जिसको उसके 20वें जन्मदिन के 2 दिन पहले ही गोली लग गयी.
जिस अस्पताल मे युवती के शव को रखा गया था, उसके बाहर हज़ारों की संख्या में लोग गाड़ियों और बाइकों पर एकत्रित हुये. और जब उस युवती का शव बाहर निकला, तो अस्पताल से लेकर कब्रिस्तान तक गाड़ियों का तांता था. म्यांमार के लोग, वहां के नागरिक उस युवती को एक शहीद के रूप मे देख रहे थे.
म्यांमार के सैन्य शासन, वहां की हुनता को शायद उम्मीद थी कि इस प्रकार की गोलीबारी से और उसके बाद होने वाली मौतों से लोग डर जायेंगे और अपने घरों की ओर वपस लौट जायेंगे.
लेकिन उनका आंकलन गलत निकला. जो कुछ भी हुआ, उससे उलटा वहां के सैन्य शासन के विरुद्ध लोगों का गुस्सा, उनका आक्रोश और भी अधिक बढ़ गया और लोग पहले से भी ज़्यादा की संख्या मे सड़्कों पर उतर आये. और अब म्यांमार में स्थिति यह है कि सिर्फ बड़े शहरों मे ही नही बल्कि छोटे शहरों में, गांवों तक में लोग सैन्य शासन के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं.
लोग शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे है और ये ज़रूरी भी है क्योंकि नही तो म्यांमार की हुनता को मौका मिल जायेगा खुल्लम खुल्ला विध्वंस मचाने का यह कहकर कि आंदोलनकारी हिंसा भड़्काने की कोशिश कर रहे थे.
और अब म्यांमार के सैन्य शासन की मुश्किलें और भी बढ गयी हैं क्योंकि वहां के लोगो ने अब सैन्य शासन के खिलाफ एक प्रकार का सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया है.
कितने ही सरकारी कर्मचारियों ने अपनी नौकरियों पर जाना बंद कर दिया है, कितने ही कामगारों ने बहुत से प्रोजेक्ट्स पर काम करना बंद कर दिया है जिससे देश का सारा काम काज ठप्प पड़ा है. उसके अलावा सोमवार को तो देशव्यापी हड़्ताल हुई ही थी.
म्यांमार की हुनता के लिये मुश्किलें इसीलिये बढ गयी हैं क्योंकि इस आंदोलन की पहुंच इतनी व्यापक हो चुकी है कि वो किस किस पर गोलियां बरसाकार आखिर किस किस हो डरायेगी. उसे भी देश चलाने के लिये, देश की व्यवस्था कायम रखने के लिये नागरिक तो चाहिये ही होंगे, लोग तो चाहिये ही होंगे, कोई दूसरे देशों से नागरिक थोड़े ही इम्पोर्ट करेगा वहां का सैन्य शासन. तो जब लोगो मे इतने व्यापक स्तर पर सेना के खिलाफ गुस्सा भर गया है, तो उसके लिये भी मामला इतना आसान नही रह गया है.
अमेरिका ने म्यांमार के सैन्य शासन के विरुद्ध एक बार फिर से कदम उठाये हैं. उसने म्यांमार की सेना के दो और जेनेरल्स के विरुद्ध प्रतिबंध लगा दिये हैं जो 1 फरवरी को म्यांमार मे होने वाले सैन्य तख्तापलट मे सम्मिलित थे. और साथ ही सख्ती के साथ यह भी कहा है कि यदि म्यांमार की सेना इसी प्रकार से हिंसा पर उतारू रही तो फिर वो और भी प्रतिबंध लगाने से पीछे नहीं हटेगा.
और भी बहुत से देशों ने म्यांमार के सैन्य शासन के विरुद्ध कार्यवाई की है. न्यू ज़ीलैंड जैसे देश ने सख्त कदम उठाये हैं, उसने म्यांमार के साथ अपने कूटनीतिक रिश्तों के समापन की घोषणा कर दी है. तो वही यूरोपीय संघ भी म्यांमार की सेना पर प्रतिबंध लगाने का विचार कर रहा है.
एशिया मे इंडोनेशिया म्यांमार के लोगों की मदद के लिये मैदान में उतर आया है. इंडोनेशिया बाकी सभी दक्षिण पूर्वी एशियायी देशों को म्यांमार मे उत्पन्न हुई स्थिति से निबटने के लिये एक एक्शन प्लान बनाने के लिये तैयार करने की कोशिश मे जुटा हुआ है, एक ऐसा सांझा एक्शन प्लैन जिससे म्यांमार की हुनता को उसके चुनाव कराने के वादे पर कायम रखा जा सके. और यह सुनिश्चित किया जा सके कि म्यांमार मे नये सिरे से स्वतंत्र रूप से, बिना किसी पक्षपात के चुनाव हों.
इंडोनेशिया के विदेश मंत्री आसियान ग्रुपिंग के माध्यम से म्यांमार मुद्दे को लेकर आसियान के सदस्य देशों के बीच सहमति बनाने का प्रयास कर रहे हैं.
हालांकि म्यांमार की जनता इंडोनेशिया की इस पहल से खुश नही है. क्योंकि उनके अनुसार समस्या की सारी जड़ म्यांमार का सैन्य शासन है. इसीलिये एक तानाशाह शासन से यह उम्मीद रखना कि वह निष्पक्ष चुनाव करायेगा, मूर्खतापूर्ण है. दूसरी बात यह है कि इन्डोनेशिया ने अपने प्रस्ताव में आंग सान सू की और बाकी बंदी बनाये गये राजनेताओं को एकदम से छोड़े जाने की मांग भी नहीं रखी. म्यांमार के लोगों की मुख्य मांग है कि औंग सान सू की समेत सभी को तुरंत रिहा किया जाये और उनकी प्रजातांत्रिक सरकार को मान्यता दी जाये.
यहां सबसे ज़्यादा कमी संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से किसी ठोस कदम की खलती है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने म्यांमार के सैन्य तख्तापलट को लेकर बयान तो बहुत से दिये हैं. हाल ही मे संयुक्त राष्ट्र संघ के चीफ ने भी म्यांमार के सैन्य शासन के संदर्भ मे कहा कि आज के समय मे सैन्य शासन द्वारा किये गये तख्तापलटों के लिये कोई जगह नही है.
अगर सिर्फ कहने भर से या फिर आपत्ति ज़ाहिर करने भर से विश्व की समस्यायें सुलझ जातीं तो विश्व वाकई अभी तक स्वर्ग बन गया होता. यहां बात म्यांमार के निर्दोष लोगों के जीवन की है. तानाशाह शासनों का किस प्रकार का ट्रैक रिकार्ड रहा है, इस प्रकार के जन आंदोलनों को लेकर, यह बात किसी से छिपी नही है. और म्यांमार मे गोलीबारी शुरू हो चुकी है.
ऐसे मे क्या यह संयुक्त राष्ट्र संघ का दायित्व नही बनता है कि वह अपने आफिसो और सभागारों से बयानबाज़ी करने के बजाय अपनी टीम म्यांमार भेजे, कमसकम अपनी मानवधिकार की टीम को म्यांमार भेजे ताकि जो ज़मीनी हकीकत है, जो वास्तविकता है, उसका उसे कुछ पता चले.
बहरहाल, म्यांमार का जन आंदोलन जारी है. और जिस प्रजातंत्र का महत्व ऐसे लोग नही समझते जिन्हे शायद ये विरासत मे मिला हुया है, उसी प्रजातंत्र को पाने के लिये म्यांमार के लोग कुछ भी सहने को तैयार हैं.
ग्रेटा थनबर्ग, मिया खलीफा, रिहाना, ये सभ भी चुप्पी साधे बैठे हैं. इन तथाकथित क्रांतिकारियों ने भी म्यांमार के सैन्य तख्तापलट के संदर्भ मे अपने अनमोल विचार किसी के सामने नही रखे. भारत के सोशल मीडिया बुद्धिजीवियों, सोशल मीडीया वारियर्ज़ को भी म्यांमार की कोई सुध नही है.