सबसे बड़ा दान कन्या दान कन्यादान पिता ही करते हैं । दादा द्वारा कन्यादान तभी कराना चाहिए जब पिता जीवित न हो अथवा उपस्थित होने में असमर्थ हो ।
कात्यायन गृह्यसूत्र,जिसे पारस्कर अथवा वाजसनेय गृह्यसूत्र भी कहा जाता है,सभी शुक्ल यजुर्वेदीय हिन्दुओं के लिये मान्य है । असम से पाकिस्तान तक के लगभग ९५% हिन्दू शुक्ल यजुर्वेदीय हैं । पारस्कर गृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड में विवाह−संस्कार का वर्णन है । सामवेदी हिन्दुओं में अधिकांश कौथुम शाखा के हैं जिनके लिए गोभिल गृह्यसूत्र है । गोभिल गृह्यसूत्र के द्वितीय प्रपाठक में विवाह−संस्कार का वर्णन है ।
विवाहोपरान्त ही गृहपति की अग्नि द्वारा समस्त यज्ञादि कर्म करने का अधिकार पिता से पुत्र को प्राप्त होता है । पितामह से सीधे पौत्र को गृहाग्नि का अधिकार तभी मिल सकता है जब पिता को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया हो । विवाह जिस अग्नि में होता है उसी विवाहाग्नि द्वारा गृहाग्नि की स्थापना होती है । अब लोग गृहाग्नि की स्थापना नहीं करते जिस कारण हिन्दुओं का पतन हो रहा है । परन्तु शास्त्र का आदेश यही है कि गृह के प्रधान द्वारा गृहाग्नि में नित्य होम आदि करने चाहिए । संयुक्त परिवार में यह अधिकार दादा को रहता है । परन्तु पिता के रहते दादा से पौत्र को गृहाग्नि का अधिकार नहीं मिलता । संयुक्त परिवार का शास्त्रीय अर्थ है एक ही चूल्हा रहना (पाकयज्ञ) । चूल्हे अलग हो जायें तो गृहाग्नि भी बँट जाती है और उसके अधिपति को कन्यादान का भी अधिकार मिलता है ।
ब्राह्मविवाह ही आर्यों में विवाह का एकमात्र सर्वमान्य प्रकार है । इसमें कन्यादान पिता करते हैं । कन्या के पिता को यदि दादा ने गृहाग्नि नहीं सौंपी है तब दादा कन्यादान कर सकते हैं । परन्तु वह दादा भी कैसा आर्य है जो बूढ़ा होने पर भी वानप्रस्थ और संन्यास न ले और गृहपति के आसन पर कब्जा जमाये रहे?
गृहाग्नि द्वारा ही हिन्दुओं के समस्त धार्मिक कर्म किये जाने का नियम है । अत्यधिक विशाल विषय है । हिन्दू−संस्कारों की अवहेलना के कारण ही हिन्दुओं का पतन हुआ एवं संख्या भी घटी । अपनी शाखा के गृह्यसूत्र द्वारा समस्त संस्कारों तथा यज्ञों को नियमित रूप से करने का यथाशक्ति प्रयास करें । ब्राह्मणों की वेदशाखा निश्चित रहती है । अन्य जातियों की वेदशाखा उनके कुल−ब्राह्मण की वेदशाखा ही है । अपनी शाखा के वेद का अध्ययन “स्वाध्याय” कहलाता है । वेदाध्ययन का समय न रहे तो सन्ध्यावन्दन में दस बार भी गायत्री जप लें ।
गृहपति द्वारा दैनिक अग्निहोत्र हिन्दुओं की रक्षा का एकमात्र उपाय है,वरना जो हिन्दू बचेंगे भी उनमें संस्कार नहीं रहेंगे । निर्णय की घड़ी है । बहुत कम लोग बचेंगे ।
गृह्यसूत्र पर आज ही मैंने एक विषविद्यालयी शोधप्रबन्ध नेट पर देखा,शोधकर्ता ने कोई भी गृह्यसूत्र कभी नहीं पढ़ा और मैकॉलेवादी पुस्तकों से बकवासों का सङ्कलन किया । शोधकर्ता ने लिखा कि विवाह−संस्कार का उद्देश्य कामवासना की पूर्ति है!वेश्यावृति को स्थायी स्वरूप देना ही इन महाशय के लिये विवाह−संस्कार है!शास्त्र के अनुसार विवाहित दम्पति को ही “धर्म” अर्थात् यज्ञ करने का अधिकार है । इसी कारण “धर्मपत्नी” शब्द बना । कोई भी पत्नी अधर्मपत्नी नहीं होती ।
हिन्दुत्व का सबसे बड़ा शत्रु धर्महीन शास्त्रविरोधी नकली हिन्दुत्व है । संस्कारों के परित्याग ने ही हिन्दुओं को अशक्त किया ।
“कन्या” का धात्वार्थ है वह पुत्री जो कमनीय हो जाय । अर्थात् विवाह के योग्य हो जाय । विवाह के योग्य होने पर कन्यादान में देरी नहीं करनी चाहिए । विवाह अध्ययन में बाधक नहीं है,पढ़ने वाले कैसे भी पढ़ ही लेते हैं और जिनको नहीं पढ़ना है उनको ब्रह्मा जी भी नहीं पढ़ा सकते । विवाह का एक उद्देश्य है सन्तान । किन्तु यह गौण उद्देश्य है । विवाह का एकमात्र वास्तविक उद्देश्य है धर्म का पालन,और यह अटूट चलता रहे उसके लिये सन्तान भी आवश्यक है ।
“सन्तान” शब्द का अर्थ ही है “जो वंश−परम्परा को अटूट बना दे” । शास्त्रीय विधि द्वारा उत्पन्न एवं पालित सन्तान ही वंश को अटूट बना सकता है । वरना तेरह पीढ़ियों से अधिक वंश नहीं चल सकता — ३६४ वर्ष । जिन हिन्दुओं ने संस्कारों को त्याग दिया उनके वंशों की यही अधिकतम अवधि है ।
तेरह के आधे अर्थात् सात जन्मों तक घनिष्ठ सम्बन्धों का प्रभाव घना रहता है । तत्पश्चात मेलापक अल्प हो जाता है ।
आसुरी और राक्षसी विवाह निकृष्ट हैं । गान्धर्व−विवाह को उत्कृष्ट नहीं माना गया । इसी को आजकल प्रेम−विवाह कहते हैं । गोचर और वर्तमान ग्रहदशाओं में तात्कालिक मेलापक अधिक हो तो लोग प्रेम−विवाह कर लेते हैं और जब मेलापक अल्प हो तो कलह करते हैं । जन्म−कुण्डली का मेलापक आजीवन प्रभावी रहता है,तात्कालिक मेलापक में उतार−चढ़ाव के बावजूद सम्बन्ध नहीं टूटता । जन्म−कुण्डली का मेलापक ब्राह्मविवाह में देखा जाता है जिसमें पिता द्वारा कन्यादान किया जाता है ।
कन्यादान करते समय कन्या को खाली हाथ नहीं देते,यथाशक्ति स्त्रीधन उसके नामपर देते हैं । दहेज भारतीय प्रथा नहीं है । पुर्तगाल और इंग्लैण्ड के राजपरिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध होने पर पुर्तगाल ने मुम्बई इंग्लैण्ड को दहेज में दिया — भारत में दहेजप्रथा का यह प्राचीनतम प्रमाण है । कन्यादान के पश्चात कन्या का अधिकार पिता की नहीं बल्कि पति की सम्पत्ति और स्त्रीधन पर रहता है — यही भारतीय परम्परा है । नेहरूवादी कानून में कन्यादान के पश्चात कन्या का अधिकार पिता और पति दोनों की सम्पत्ति पर रहता है जो अन्याय है । कन्यायें यह जानती हैं,अतः पिता पर मुकदमा नहीं करतीं । नेहरूवादी कानून के अनुसार पति की एक बहन हो तो पैतृक सम्पत्ति का आधा ही उसे मिलेगा और उस आधे का आधा भी पत्नी ले लेगी जिसे अपने पिता की सम्पत्ति में भी हिस्सा मिलेगा!इस हिसाब से सारे पुरुष गरीब बन जायेंगे और स्त्री सम्पन्न!