श्रीविश्वनाथजी शास्त्री। सूतसंहिता (य० वैखा० अ० ६) में भगवान् महेश्वर शिव ने कहा है कि –
आदित्येन परिज्ञातं वयं धीमह्युपास्महे।
सावित्र्याः कथितो ह्यर्थः संग्रहेण मयादरात् ।
नीलग्रीवं विरूपाक्षं साम्बमूर्ति च लक्षितम् ॥
‘नीलग्रीव शिवजी का कहना है कि आदरपूर्वक मैं सावित्री-मन्त्र की, जिसे गायत्री या धीमहि कहते हैं, उपासना करता हूँ।’
भविष्योत्तर पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो सूर्योपासना बतलायी है, वह आदित्यहृदय है।
श्रीकृष्ण ने कहा है-
रुद्रादिदैवतैः सर्वैः पृष्टेन कथितं मया।
वक्ष्येऽहं सूर्यविन्यासं शृणु पाण्डव यत्नतः ॥
अर्थात् अर्जुन ! रुद्र आदि देवताओं के पूछनेपर जिस सूर्य-उपासनाको हमने बताया था वही तुमको बताता हूँ, सुनो। श्रीकृष्ण सूर्य (विष्णु) के अंशावतार द्वादशादित्यके अंश थे। इसीसे वे सूर्य (विष्णु) नारायण नामसे भी सम्बोधित हुए। महाभारत के स्वर्गारोहणपर्व (५। २५) में कहा है कि भगवान् श्रीकृष्ण इहलीला समाप्त कर नारायणमें ही विलीन हो गये।
यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः ।
तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणोऽन्ते विवेश ह ।
इस प्रकार देवताओंद्वारा आदित्य उपासना की प्राचीनता देखी जाती है।
बृहद्देवता (१५६ अ०) में लिखा है- ‘विष्णुरादित्यात्मा’। (वायुपुराण अ० ६८। १२) में कहा गया है कि असुरों के देवता पहले सूर्य और चन्द्रमा थे। इन्होंने ही अपने-अपने सम्प्रदायके अनुसार अलग-अलग राज्य बसाया था। इनमें अधिकांश सौर थे। राम-रावण-युद्ध (वा० रा०, यु० का०, अ० १०७) में जब भगवान् रामचन्द्रजी विशेष श्रान्त-चिन्तित थे तब ऋषि अगस्त्यने उन्हें सूर्यस्तोत्र बताया था। श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के उपदेशानुसार पूर्वमुख होकर पवित्र हो तीन बार आचमन किया और सूर्यके स्तोत्रका पाठ किया। इससे उन्हें महाबल प्राप्त हुआ और उन्होंने रावणका शिरश्च्छेद किया।
द्वितीय जीवितगुप्त के दसवीं शताब्दीका एक शिलालेख कलकत्ताके जादूघरमें है। इसका विवरण कनिंघम साहेबने (Cunningham’s Archeological reports. Vol XVI, 65 में) लिखा है कि भास्करके अङ्गसे प्रादुर्भूत प्रकाशमान ‘मग’ ब्राह्मण शाकद्वीपसे कृष्णभगवान्की अनुमतिसे उनके पुत्र भगवान् साम्बद्वारा लाये गये। उन दिनों विश्वमें ये ही लोग सूर्यसाधना के विशेषज्ञ थे। यह बात भविष्यपुराण और साम्ब पुराण में विस्तृतरूपसे वर्णित है। ग्रहयामल ग्रन्थमें भी उक्त बातोंका उल्लेख है। इस बातसे प्रमाणित होता है कि भारतमें भी सूर्य-पूजाका प्रचलन था; किंतु विशेषज्ञोंका अभाव था।
बेबिलोन के प्राचीन वृत्तग्रन्थ (Etna Myth) में लिखा है कि इगल (गरुड़-जाति) पक्षीपर बैठकर कोई राजा तृतीय स्वर्ग- (Third heaven of Annu) में जाते हुए जीव- चिकित्सक ओषधि ले गया था। १९७३ ई० के अगस्तमें विख्यात अमेरिकन पत्रिका ‘न्यू सायन्टिस्ट’ (New Scientist, August 1973) में प्रख्यात आणविक जीव विज्ञानी डॉ० फ्रान्सिस्, डॉ० फ्रिक और डॉ० लेसलीने कहा है कि इस पृथ्वीपर हजारों वर्षतक कोई जीवन नहीं था। यहाँतक कि जीवनकी सम्भावना भी नहीं थी। महाकाशके सूर्याश्रयमें स्थित जीवन-स्फुलिङ्ग इस युगकी वन्ध्या पृथ्वीपर (सूर्यके आश्रयके प्राणि-सभ्यतासे छँटकर) आया है। मि० फ्रिक और मि० उरगेल के हस्ताक्षर युक्त लम्बे वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि छाया पथसे अन्यत्र अवश्य ही किसी-किसी सभ्यताका विकास था। छाया-पथ तेरह सौ करोड़ वर्षका है। इस पृथ्वीके प्राणियोंके उद्भवका काल चार सौ करोड़ वर्ष का है। इस प्रकार नौ सौ करोड़ वर्षोंका अन्तर है।
अन्तर्देशीय सूर्य-अर्चन
विश्वमें सर्वत्र ही अनुमानतः ईसवी संवत्से छः हजार वर्ष पूर्वसे लेकर (नवीन मतसे चार करोड़ वर्षसे) १४० ईसवीतक सूर्य-पूजाके प्रमाण मिलते हैं। विश्वका प्राचीन दर्शन- (In early philosophy throughout the world the sun worship) सौरदर्शन ही है। पर्सियन चर्चों के मित्र (Mitra) ग्रीको के हेलियस (Hlios) एजिप्त (मिश्र) के रा (Ra) तातारियोंका भाग्यवर्धक देवता फ्लोरस (Flourished) प्राचीन पेरु-(दक्षिण अमरिका) के ऐश्वर्यदाता फुलेस (Fullest) उत्तरी अमरिका के रेड इंडियनों के एतना (Atna) और ऐना, अफ्रिका के विले (श्वेत) (White) चीन का उ० ची० (Wu. Chi.) प्राचीन जापानियों का इज्जा-गी (Izna-gi), नवीन सेन्टो ईजमका एमिनो, मिनाक, नाची (Ameno-Minak-Nachi) आदि देवता; सूर्य, मित्र, दिवाकर आदिके रूपमें पूजित तथा उपासित थे।
निष्कर्ष यह कि सूर्य की शक्ति से सारी सृष्टि हुई है। इनकी महिमा अनन्त है और इनकी पूजा-अर्चा अनादिकाल से विश्व भर में प्रचलित है। भारत में ये प्राचीन कालसे ही प्रत्यक्ष देवता माने जाते हैं।