श्वेता पुरोहित-
इक्ष्वाकुवंश में युवनाश्व नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भूपाल युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणावाले बहुत- से यज्ञों का अनुष्ठान किया। वे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे। उन्होंने एक सहस्र अश्वमेधयज्ञ पूर्ण करके बहुत दक्षिणा के साथ दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा भी भगवान्की आराधना की। वे महामना राजर्षि महान् व्रतका पालन करनेवाले थे तो भी उनके कोई संतान नहीं हुई।
तब वे मनस्वी नरेश राज्य का भार मन्त्रियों पर रखकर शास्त्रीय विधि के अनुसार अपने-आपको परमात्म-चिन्तन में लगाकर सदा वनमें ही रहने लगे। एक दिन की बात है, राजा युवनाश्व उपवास के कारण दुःखित हो गये। प्यास से उनका हृदय सूखने लगा। उन्होंने जल पीने की इच्छा से रात के समय महर्षि भृगुके आश्रम में प्रवेश किया। उसी रात में महात्मा भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ने सुद्युम्नकुमार युवनाश्व को पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये एक इष्टि की थी। उस इष्टि के समय महर्षि ने मन्त्रपूत जलसे एक बहुत बड़े कलश को भरकर रख दिया था।
वह कलश का जल पहले से ही आश्रम के भीतर इस उद्देश्य से रखा गया था कि उसे पीकर राजा स युवनाश्व की रानी इन्द्र के समान शक्तिशाली पुत्र को जन्म दे सके। उस कलश को वेदी पर रखकर सभी महर्षि सो गये थे। रात में देर तक जागने के कारण वे सब-के-सब थके हुए थे। युवनाश्व उन्हें लाँघकर आगे बढ़ गये। वे प्यास से पीड़ित थे। उनका कण्ठ सूख गया था। पानी पीने की अत्यन्त अभिलाषा से वे उस आश्रम के भीतर गये और शान्तभाव से जलके लिये याचना करने लगे।
राजा थककर सूखे कण्ठ से पानी के लिये चिल्ला रहे थे, परंतु उस समय चें-चें करनेवाले पक्षी की भाँति उनकी चीख-पुकार कोई भी न सुन सका। तदनन्तर जल से भरे हुए पूर्वोक्त कलश पर उनकी दृष्टि पड़ी। देखते ही वे बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े और (इच्छानुसार) पीकर उन्होंने बचे हुए जल को वहीं गिरा दिया । राजा युवनाश्व प्याससे बड़ा कष्ट पा रहे थे। वह शीतल जल पीकर उन्हें बड़ी शान्ति मिली। वे बुद्धिमान् नरेश उस समय जल पीने से बहुत सुखी हुए।
तत्पश्चात् तपोधन च्यवन मुनि के सहित सब मुनि जाग उठे। उन सब ने उस कलश को जलसे शून्य देखा। फिर तो वे सब एकत्र हो गये और एक-दूसरे से पूछने लगे- ‘यह किस का कर्म है ?’ युवनाश्व ने सामने आकर कहा- ‘यह मेरा ही कर्म है।’ इस प्रकार उन्होंने सत्य को स्वीकार कर लिया।
तब भगवान् च्यवन ने कहा- ‘महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न राजर्षि युवनाश्व! यह तुमने ठीक नहीं किया। इस कलश में मैंने तुम्हें ही पुत्र प्रदान करने के लिये तपस्या से संस्कार युक्त किया हुआ जल रखा था और कठोर तपस्या करके उस में ब्रह्मतेज की स्थापना की थी। ‘राजन् ! उक्त विधि से इस जल को मैंने ऐसा शक्तिसम्पन्न कर दिया था कि इसको पीने से एक महाबली, महापराक्रमी और तपोबल सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हो जो अपने बल-पराक्रम से देवराज इन्द्र को भी यमलोक पहुँचा सके। उसी जल को तुमने आज पी लिया, यह अच्छा नहीं किया।
‘अब हम लोग इसके प्रभाव को टालने या बदलने में असमर्थ हैं। तुमने जो ऐसा कार्य कर डाला है, इसमें निश्चय ही दैव की प्रेरणा है। ‘महाराज ! तुमने प्यास से व्याकुल होकर जो मेरे तपोबल से संचित तथा विधिपूर्वक मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को पी लिया है, उसके कारण तुम अपने ही पेट से तथाकथित इन्द्रविजयी पुत्र को जन्म दोगे। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये हम तुम्हारी इच्छा के अनुरूप अत्यन्त अद्भुत यज्ञ करायेंगे जिससे तुम स्वयं भी शक्तिशाली रहकर इन्द्र के समान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न कर सकोगे और गर्भधारणजनित कष्ट का भी तुम्हें अनुभव न होगा’।
तदनन्तर पूरे सौ वर्ष बीतने पर उन महात्मा राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर एक सूर्य के समान महातेजस्वी बालक बाहर निकला तथा राजा की मृत्यु भी नहीं हुई। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। तत्पश्चात् महातेजस्वी इन्द्र उस बालक को देखने के लिये वहाँ आये। उस समय देवताओं ने महेन्द्र से पूछा- यह बालक क्या पीयेगा ?
तब इन्द्र ने अपनी तर्जनी अंगुली बालक के मुँह में डाल दी और कहा – ‘माम् अयं धाता।’ ‘अर्थात् यह मुझे ही पीयेगा’ वज्रधारी इन्द्र के ऐसा कहने पर इन्द्र आदि सब देवताओंने मिलकर उस बालकका नाम ‘मान्धाता’ रख दिया। इन्द्र की दी हुई प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुलि का रसास्वादन करके वह महातेजस्वी शिशु तेरह बित्ता बढ़ गया।
उस समय शक्तिशाली मान्धाता के चिन्तन करने मात्र से ही धनुर्वेद सहित सम्पूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र (ईश्वर की कृपा से) उपस्थित हो गये। आजगव नामक धनुष, सींग के बने हुए बाण और अभेद्य कवच-सभी तत्काल उनकी सेवा में आ गये।
साक्षात् देवराज इन्द्र ने मान्धाता का राज्याभिषेक किया। भगवान् विष्णु ने जैसे तीन पगों द्वारा त्रिलोकी को नाप लिया था, उसी प्रकार मान्धाता ने भी धर्म के द्वारा तीनों लोकों को जीत लिया।
उन महात्मा नरेश का शासनचक्र सर्वत्र बेरोक-टोक चलने लगा। सारे रत्न राजर्षि मान्धाता के यहाँ स्वयं उपस्थित हो जाते थे। इस प्रकार उनके लिये यह सारी पृथ्वी धन-रत्नों से परिपूर्ण थी। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणावाले नाना प्रकार के बहुसंख्यक यज्ञों द्वारा भगवान् की समाराधना की।
महातेजस्वी एवं परम कान्तिमान् राजा मान्धाता ने यज्ञमण्डपों का निर्माण करके पर्याप्त धर्म का सम्पादन किया और उसी के फल से स्वर्गलोक में इन्द्र का आधा सिंहासन प्राप्त कर लिया। उन धर्मपरायण बुद्धिमान् नरेश ने केवल शासनमात्र से
सारी पृथ्वी पर एक ही दिन में समुद्र, खान और नगरों सहित विजय प्राप्त कर ली ।
उनके दक्षिणायुक्त यज्ञों के चैत्यों (यज्ञमण्डपों)-से चारों ओर की पृथ्वी भर गयी थी, कहीं कोई भी स्थान ऐसा नहीं था जो उनके यज्ञमण्डपों से घिरा न हो। महात्मा राजा मान्धाता ने दस हजार पद्म गौएँ ब्राह्मणों को दान में दी थीं, ऐसा जानकार- लोग कहते हैं।
उन महामना नरेश ने बारह वर्षां तक होनेवाली अनावृष्टि के समय वज्रधारी इन्द्र के देखते-देखते खेती की उन्नति के लिये स्वयं पानी की वर्षा की थी। उन्होंने महामेघ के समान गर्ज ते हुए महापराक्रमी चन्द्रवंशी गान्धारराज को बाणों से घायल करके मार डाला था। वे अपने मन को वश में रखते थे। उन्होंने अपने तपोबल से देवता, मनुष्य, तिर्यक् और स्थावर – चार प्रकार की प्रजा की रक्षा की थी; साथ ही अपने अत्यन्त तेज से सम्पूर्ण लोकों को संतप्त कर दिया था।