श्वेता पुरोहित-
लक्ष्मणजी द्वारा शूर्पणखा के नाक और कान कट जाने के बाद शूर्पणखा खर के पास जाकर उसे राम का भय दिखाकर उसे युद्ध के लिये उत्तेजित करती है । उत्तेजित होकर खर-दूषण चौदह हजार राक्षसों की सेना के साथ जनस्थान से पञ्चवटी की ओर प्रस्थान करते हैं।
उस सेना के प्रस्थान करते समय आकाश में गधे के समान धूसर रंगवाले बादलों की महाभयंकर घटा घिर आयी। उसकी तुमुल गर्जना होने लगी तथा सैनिकों के ऊपर घोर अमङ्गल सूचक रक्तमय जल की वर्षा आरम्भ हो गयी।
खर के रथ में जुते हुए महान् वेगशाली घोड़े फूल बिछे हुए समतल स्थान में सड़क पर चलते-चलते अकस्मात् गिर पड़े।
सूर्यमण्डल के चारों ओर अलातचक्र के समान गोलाकार घेरा दिखायी देने लगा, जिसका रंग काला और किनारे का रंग लाल था।
तदनन्तर खर के रथ की सुवर्णमय दण्डवाली ऊँची ध्वजा पर एक विशालकाय गीध आकर बैठ गया, जो देखनेमें बड़ा ही भयंकर था।
कठोर स्वर वाले मांसभक्षी पशु और पक्षी जनस्थान के पास आकर विकृत स्वर में अनेक प्रकार के विकट शब्द बोलने लगे तथा सूर्य की प्रभा से प्रकाशित हुई दिशाओं में जोर-जोर से चीत्कार करने वाले और मुँह से आग उगलने वाले भयंकर गीदड़ राक्षसों के लिये अमङ्गल जनक भैरवनाद करने लगे।
भयंकर मेघ, जो मदकी धारा बहानेवाले गजराज के समान दिखायी देते थे और जलकी जगह रक्त धारण किये हुए थे, तत्काल घिर आये। उन्होंने समूचे आकाशको ढक दिया। थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं रहने दिया।
सब ओर अत्यन्त भयंकर तथा रोमाञ्चकारी घना अन्धकार छा गया। दिशाओं अथवा कोणोंका स्पष्ट रूप से भान नहीं हो पाता था।
बिना समय के ही खून से भीगे हुए वस्त्र के समान रंगवाली संध्या प्रकट हो गयी। उस समय भयंकर पशु-पक्षी खर के सामने आकर गर्जना करने लगे।
भयकी सूचना देनेवाले कङ्क (सफेद चील), गीदड़ और गीध खरके सामने चीत्कार करने लगे। युद्ध में सदा अमङ्गल सूचित करनेवाली और भय दिखानेवाली गीदड़ियाँ खरकी सेना के सामने आकर आग उगलनेवाले मुखों से घोर शब्द करने लगीं।
सूर्य के निकट परिघ के समान कबन्ध (सिर कटा हुआ धड़) दिखायी देने लगा। महान् ग्रह राहु अमावास्या के बिना ही सूर्य को ग्रसने लगा। हवा तीव्र गति से चलने लगी एवं सूर्यदेव की प्रभा फीकी पड़ गयी।
बिना रात के ही जुगनू के समान चमकने वाले तारे आकाशमें उदित हो गये। सरोवरोंमें मछली और जलपक्षी विलीन हो गये। उनके कमल सूख गये। उस क्षणमें वृक्षों के फूल और फल झड़ गये।
बिना हवा के ही बादलों के समान धूसर रंग की धूल ऊपर उठकर आकाशमें छा गयी।
वहाँ वनकी सारिकाएँ चें-चें करने लगीं। भारी आवाजके साथ भयानक उल्काएँ आकाशसे पृथ्वी पर गिरने लगीं
पर्वत, वन और काननोंसहित धरती डोलने लगी। बुद्धिमान् खर रथपर बैठकर गर्जना कर रहा था। उस समय उसकी बायीं भुजा सहसा काँप उठी। स्वर अवरुद्ध हो गया और सब ओर देखते समय उसकी आँखोंमें आँसू आने लगे।
उसके सिरमें दर्द होने लगा, फिर भी मोहवश वह युद्धसे निवृत्त नहीं हुआ। उस समय प्रकट हुए उन बड़े-बड़े रोमाञ्चकारी उत्पातों को देखकर खर जोर-जोर से हँसने लगा और समस्त राक्षसों से बोला – ‘ये जो भयानक दिखायी देनेवाले बड़े-बड़े उत्पात प्रकट हो रहे हैं, इन सबकी मैं अपने बल के भरोसे कोई परवा नहीं करता; ठीक उसी तरह, जैसे बलवान् वीर दुर्बल शत्रुओंको कुछ नहीं समझता है। मैं अपने तीखे बाणोंद्वारा आकाश से तारों को भी गिरा सकता हूँ।
‘यदि कुपित हो जाऊँ तो मृत्युको भी मौत के मुख में डाल सकता हूँ। आज बल का घमंड रखनेवाले राम और उसके भाई लक्ष्मण को तीखे बाणों से मारे बिना मैं पीछे नहीं लौट सकता।
‘जिसे दण्ड देनेके लिये राम और लक्ष्मणकी बुद्धि में विपरीत विचार (क्रूरतापूर्ण कर्म करनेके भाव) का उदय हुआ है, वह मेरी बहिन शूर्पणखा उन दोनों का खून पीकर सफल मनोरथ हो जाय।
‘आजतक जितने युद्ध हुए हैं, उनमेंसे किसी में भी पहले मेरी कभी पराजय नहीं हुई है; यह तुम लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है। मैं झूठ नहीं कहता हूँ ।
‘मैं मतवाले ऐरावतपर चलनेवाले वज्रधारी देवराज इन्द्रको भी रणभूमि में कुपित होकर कालके गालमें डाल सकता हूँ, फिर उन दो मनुष्यों की तो बात ही क्या है?’
खरकी यह गर्जना सुनकर राक्षसोंकी वह विशाल सेना, जो मौतके पाशसे बँधी हुई थी, अनुपम हर्ष से भर गयी।
उस समय युद्ध देखने की इच्छा वाले बहुत-से पुण्यकर्मा महात्मा, ऋषि, देवता, गन्धर्व, सिद्ध और चारण वहाँ एकत्र हो गये। एकत्र हो वे सभी मिलकर एक-दूसरे से कहने लगे –
‘गौओं और ब्राह्मणों का कल्याण हो तथा जो अन्य लोकप्रिय महात्मा हैं, वे भी कल्याणके भागी हों। जैसे चक्रधारी भगवान् विष्णु समस्त असुरशिरोमणियोंको परास्त कर देते हैं, उसी प्रकार रघुकुलभूषण श्रीराम युद्धमें इन पुलस्त्यवंशी निशाचरोंको पराजित करें’
ये तथा और भी बहुत-सी मङ्गलकामना सूचक बातें कहते हुए वे महर्षि और देवता कौतूहल वश विमान पर बैठकर जिनकी आयु समाप्त हो चली थी, उन राक्षसों की उस विशाल वाहिनी को देखने लगे ।
खर रथ के द्वारा बड़े वेग से चलकर सारी सेना से आगे निकल आया और श्येनगामी, पृथुग्रीव, यज्ञशत्रु, विहंगम, दुर्जय, करवीराक्ष, परुष, कालकार्मुक, हेममाली, महामाली, सर्पास्य तथा रुधिराशन-ये बारह महापराक्रमी राक्षस खर को दोनों ओर से घेर कर उसके साथ-साथ चलने लगे।
महाकपाल, स्थूलाक्ष, प्रमाथ और त्रिशिरा ये चार राक्षस-वीर सेना के आगे और सेनापति दूषण के पीछे-पीछे चल रहे थे।
राक्षस वीरों की वह भयंकर वेगवाली अत्यन्त दारुण सेना, जो युद्ध की अभिलाषा से आ रही थी, सहसा उन दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण के पास जा पहुँची, मानो ग्रहों की पंक्ति चन्द्रमा और सूर्य के समीप प्रकाशित हो रही हो।
प्रचण्ड पराक्रमी खर जब श्रीराम के आश्रम की ओर चला, तब भाई सहित श्रीराम ने भी उन्हीं उत्पात- सूचक लक्षणों को देखा।
प्रजा के अहित की सूचना देने वाले उन महाभयंकर उत्पातों को देखकर श्रीरामचन्द्रजी राक्षसों के उपद्रव का विचार करके अत्यन्त अमर्ष में भर गये और लक्ष्मण से इस प्रकार बोले –
‘महाबाहो ! ये जो बड़े-बड़े उत्पात प्रकट हो रहे हैं, इनकी ओर दृष्टिपात करो। समस्त भूतों के संहार की सूचना देनेवाले ये महान् उत्पात इस समय इन सारे राक्षसोंका संहार करने के लिये उत्पन्न हुए हैं।
‘आकाश में जो गधों के समान धूसर वर्णवाले बादल इधर-उधर विचर रहे हैं, ये प्रचण्ड गर्जना करते हुए खून की धाराएँ बरसा रहे हैं।
‘युद्धकुशल लक्ष्मण ! मेरे सारे बाण उत्पातवश उठनेवाले धूमसे सम्बद्ध हो युद्ध के लिये मानो आनन्दित हो रहे हैं तथा जिनके पृष्ठभाग में सुवर्ण मढ़ा हुआ है, वे मेरे धनुष भी प्रत्यञ्चा से जुड़ जाने के लिये स्वयं ही चेष्टाशील जान पड़ते हैं
‘यहाँ जैसे-जैसे वनचारी पक्षी बोल रहे हैं, उनसे हमारे लिये भविष्य में अभय की और राक्षसों के लिये प्राणसंकटकी प्राप्ति सूचित हो रही है। ‘मेरी यह दाहिनी भुजा बारंबार फड़ककर इस बातकी सूचना देती है कि कुछ ही देरमें बहुत बड़ा युद्ध होगा, इसमें संशय नहीं है।
‘शूरवीर लक्ष्मण ! परंतु निकटभविष्यमें ही हमारी विजय और शत्रुकी पराजय होगी; क्योंकि तुम्हारा मुख कान्तिमान् एवं प्रसन्न दिखायी दे रहा है। ‘लक्ष्मण ! युद्ध के लिये उद्यत होने पर जिनका मुख प्रभाहीन (उदास) हो जाता है, उनकी आयु नष्ट हो जाती है ।
‘गरजते हुए राक्षसों का यह घोर नाद सुनायी देता है, तथा क्रूरकर्मा राक्षसोंद्वारा बजायी गयी भेरियों की यह महाभयंकर ध्वनि कानोंमें पड़ रही है।
‘अपना कल्याण चाहनेवाले विद्वान् पुरुष को उचित है कि आपत्ति की आशङ्का होने पर पहले से ही उससे बचने का उपाय कर ले।
‘इसलिये तुम धनुष-बाण धारण करके विदेहकुमारी सीता को साथ ले पर्वत की उस गुफा में चले जाओ, जो वृक्षों से आच्छादित है।
‘वत्स! तुम मेरे इस वचन के प्रतिकूल कुछ कहो या करो, यह मैं नहीं चाहता। अपने चरणों की शपथदिलाकर कहता हूँ, शीघ्र चले जाओ।
‘इसमें संदेह नहीं कि तुम बलवान् और शूरवीर हो तथा इन राक्षसोंका वध कर सकते हो; तथापि मैं स स्वयं ही इन निशाचरों का संहार करना चाहता हूँ (इसलिये तुम मेरी बात मानकर सीता को सुरक्षित श्र रखने के लिये इसे गुफा में ले जाओ)’।
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण धनुष- बाण ले सीता के साथ पर्वत की दुर्गम गुफा में चले गये।
सीतासहित लक्ष्मण के गुफाके भीतर चले जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने ‘हर्ष की बात है, लक्ष्मणने शीघ्र मेरी बात मान ली और सीताकी रक्षाका समुचित प्रबन्ध हो गया’ ऐसा कहकर कवच धारण किया।
प्रज्वलित आग के समान प्रकाशित होनेवाले उस कवचसे विभूषित हो श्रीराम अन्धकार में प्रकट हुए महान् अग्निदेव के समान शोभा पाने लगे।
पराक्रमी श्रीराम महान् धनुष एवं बाण हाथ में लेकर युद्ध के लिये डटकर खड़े हो गये और प्रत्यञ्चा की टंकार से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाने लगे ।
तदनन्तर श्रीराम और राक्षसों का युद्ध देखने की इच्छा से देवता, गन्धर्व, सिद्ध और चारण आदि महात्मा वहाँ एकत्र हो गये।
‘इसमें संदेह नहीं कि तुम बलवान् और शूरवीर हो तथा इन राक्षसोंका वध कर सकते हो; तथापि मैं स्वयं ही इन निशाचरों का संहार करना चाहता हूँ (इसलिये तुम मेरी बात मानकर सीता को सुरक्षित रखने के लिये इसे गुफामें ले जाओ)’।
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मण धनुष- बाण ले सीता के साथ पर्वतकी दुर्गम गुफा में चले गये।
सीता सहित लक्ष्मण के गुफा के भीतर चले जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने ‘हर्ष की बात है, लक्ष्मण ने शीघ्र मेरी बात मान ली और सीता की रक्षा का समुचित प्रबन्ध हो गया’ ऐसा कहकर कवच धारण किया।
प्रज्वलित आग के समान प्रकाशित होनेवाले उस कवच से विभूषित हो श्रीराम अन्धकार में प्रकट हुए महान् अग्निदेव के समान शोभा पाने लगे।
पराक्रमी श्रीराम महान् धनुष एवं बाण हाथ में लेकर युद्ध के लिये डटकर खड़े हो गये और प्रत्यञ्चाकी टंकार से सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजाने लगे।
तदनन्तर श्रीराम और राक्षसों का युद्ध देखने की इच्छा से देवता, गन्धर्व, सिद्ध और चारण आदि महात्मा वहाँ एकत्र हो गये।इनके सिवा, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि- शिरोमणि पुण्यकर्मा महात्मा ऋषि हैं, वे सभी वहाँ जुट गये और एक साथ खड़े हो परस्पर मिलकर यों कहने लगे- ‘गौओं, ब्राह्मणों और समस्त लोकोंका कल्याण हो। जैसे चक्रधारी भगवान् विष्णु युद्धमें समस्त श्रेष्ठ असुरोंको परास्त कर देते हैं, उसी प्रकार इस संग्राममें श्रीरामचन्द्रजी पुलस्त्यवंशी निशाचरोंपर विजय प्राप्त करें’।
ऐसा कहकर वे पुनः एक-दूसरे की ओर देखते हुए बोले- ‘एक ओर भयंकर कर्म करनेवाले चौदह हजार राक्षस हैं और दूसरी ओर अकेले धर्मात्मा श्रीराम हैं, फिर यह युद्ध कैसे होगा ?’
ऐसी बातें करते हुए राजर्षि, सिद्ध, विद्याधर आदि देवयोनिगणसहित श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि तथा विमानपर स्थित हुए देवता कौतूहलवश वहाँ खड़े हो गये।
युद्ध के मुहाने पर वैष्णव तेजसे आविष्ट हुए श्रीराम को खड़ा देख उस समय सब प्राणी (उनके प्रभाव को न जानने के कारण) भयसे व्यथित हो उठे।
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले तथा रोष में भरे हुए महात्मा श्रीराम का वह रूप कुपित हुए रुद्रदेव के समान तुलना रहित प्रतीत होता था।
जब देवता, गन्धर्व और चारण पूर्वोक्तरूपसे श्रीरामकी मङ्गल कामना कर रहे थे, उसी समय भयंकर ढाल-तलवार आदि आयुधों और ध्वजाओं से उपलक्षित होनेवाली निशाचरों की वह सेना गम्भीर गर्जना करती हुई चारों ओर से श्रीरामजी के पास आ पहुँची ।
वे राक्षस-सैनिक वीरोचित वार्तालाप करते, युद्ध का ढंग बताने के लिये एक-दूसरे के सामने जाते, धनुषों को खींचकर उनकी टंकार फैलाते, बारंबार मदमत्त होकर उछलते, जोर-जोर से गर्जना करते और नगाड़े पीटते थे। उनका वह अत्यन्त तुमुल नाद उस वन में सब ओर गूंजने लगा।
उस शब्द से डरे हुए वनचारी हिंसक जन्तु उस – वनमें गये, जहाँ किसी प्रकारका कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता था। वे वन्यजन्तु भय के मारे पीछे फिरकर देखते भी नहीं थे।
वह सेना बड़े वेगसे श्रीरामकी ओर चली। उसमें नाना प्रकार के आयुध धारण करने वाले सैनिक थे। वह समुद्र के समान गम्भीर दिखायी देती थी।
युद्धकला के विद्वान् श्रीरामचन्द्रजी ने भी चारों ओर दृष्टिपात करते हुए खर की सेना का निरीक्षण किया और वे युद्ध के लिये उसके सामने बढ़ गये ।
फिर उन्होंने तरकस से अनेक बाण निकाले और अपने भयंकर धनुष को खींचकर सम्पूर्ण राक्षसों का वध करनेके लिये तीव्र क्रोध प्रकट किया। कुपित होनेपर वे प्रलयकालिक अग्निके समान प्रज्वलित होने लगे। उस – समय उनकी ओर देखना भी कठिन हो गया।
तेजसे आविष्ट हुए श्रीराम को देखकर वनके देवता व्यथित हो उठे। उस समय रोष में भरे हुए श्रीराम का रूप – दक्ष यज्ञ का विनाश करने के लिये उद्यत हुए पिनाकधारी – महादेवजी के समान दिखायी देने लगा।
धनुषों, आभूषणों, रथों और अग्नि के समान – कान्तिवाले चमकीले कवचों से युक्त वह पिशाचों की – सेना सूर्योदयकाल में नीले मेघों की घटा के समान प्रतीत होती थीं।
इस प्रसंग से रघुकुलभूषण श्रीराम की कीर्ति और महत्वपूर्ण घटनाओं के समय होने वाले शकुनों का महत्व दिखता है ।
जय श्रीराम🙏 🏹🚩