श्वेता पुरोहित- आज चंद्र चित्रा नक्षत्र से गोचर कर रहे हैं। चित्रा नक्षत्र के अधिष्ठाता देव त्वष्टा हैं।
कश्यप जी से दक्ष की पुत्री में विवस्वान् उत्पन्न हुए और त्वष्टा की पुत्री संज्ञादेवी उन विवस्वान् (सूर्य) की भार्या हुई। महात्मा मार्तण्ड की वह पवित्र अन्तःकरणवाली भार्या भगवती संज्ञा तीनों लोकों में सुरेणु के नाम से (भी) प्रसिद्ध है । वह रूपयौवनशालिनी संज्ञा अपने पति सूर्यदेव के मण्डल के तीव्र तप, तेज एवं दीप्ति के कारण प्रसन्न नहीं रहती थी। उस संज्ञा का रूप सूर्यमण्डल के तेज से अङ्गोंण के संतप्त होने के कारण (झुलस-सा गया। अतएव सूर्य उसको) बहुत अच्छे नहीं लगते थे।
जब सूर्य अदिति के गर्भ में थे, उस समय बुध उनके पास भिक्षा माँगने के लिये आये; परंतु अदिति गर्भ के बोझ के कारण शीघ्रता से चलकर भिक्षा न दे सकी, तब बुधणने अदिति को शाप दे दिया कि तेरा गर्भ मृत हो जाय। यह सुनकर अदिति व्याकुल हो गयी, तब कश्यपजी ने अपनी शक्ति से बुध के शाप को दूर कर दिया और कहा कि यह वास्तव में मृत नहीं हुआ, अण्ड (गर्भ) के भीतर वर्तमान है। अदिति के (मेरा गर्भ मृत हो गया) इस विपरीत ज्ञानके कारण ही सूर्य ‘मार्तण्ड’ कहलाते हैं।
(अदिति के) अज्ञान में पड़ने पर कश्यपजी ने स्नेहपूर्वक कहा था कि यह मरा नहीं है, किंतु अण्ड (गर्भ) में स्थित है, इसलिये तबसे सूर्य ‘मार्तण्ड’ कहे जाते हैं । कश्यप जी के माहात्म्य के कारण जीवित हुए विवस्वान्में सर्वदा अधिक तेज रहता है। उसी तेजसे कश्यपजी के पुत्र सूर्य तीनों लोकों को तपाते रहते हैं।
तपानेवालों में श्रेष्ठ आदित्य ने संज्ञा के गर्भ से दो प्रजापति और एक कन्या-इन तीन संतानों को उत्पन्न किया। उनमें एक प्रजापति तो विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु थे और दूसरे प्रजापति श्राद्धदेव यम थे। इस तरह यम तथा यमुना नामक दो जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई थी।
तदनन्तर संज्ञा ने सूर्य के कठिनता से सहने योग्य तेजस्वी रूप को देखकर उनके तेजको न सह सकनेके कारण अपनी छायाको ही अपने समान नाम और रूपवाली बनाकर तैयार कर दिया। संज्ञा के समान नाम और वर्णवाली होने से छाया का नाम सवर्णा भी है। इसीके पुत्र सावर्णि मनु हैं। वह मायामयी संज्ञा संज्ञाकी छायासे उत्पन्न हुई थी। वह छाया संज्ञा को प्रणामकर हाथ जोड़कर बोली- ‘शुचिस्मिते ! बताओ, मुझे क्या करना चाहिये ? श्रेष्ठ अङ्गोंवाली ! मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगी, तुम मुझे आज्ञा दो’।
संज्ञाने कहा- तुम्हारा कल्याण हो ! मैं अब अपने पिताके घर जा रही हूँ, तुम मेरे इस घरमें शान्त होकर रहो। ये मेरे दोनों पुत्र हैं और यह एक सुमध्यमा (सुन्दर कटिवाली) कन्या है। इनका तू ध्यान रखना और इस रहस्य को भगवान् सूर्य से कभी न बतलाना।
छायाने कहा – देवि ! मेरे बाल पकड़े जाने तथा शाप देने की नौबत आनेके पूर्व मैं यह बात किसी प्रकार भी न कहूँगी। आप सुखपूर्वक अपने पिता के यहाँ जायँ।
अपने समान नाम रूपवाली छाया को आज्ञा देकर और उससे ‘तथास्तु’ कहे जानेपर वह तपस्विनी लज्जित-सी होती हुई अपने पिता त्वष्टा के यहाँ चली गयी। पिता के पास पहुँचने पर उसके पिता ने उसे बड़े जोरों से डाँटा तथा उससे बार- बार पतिके पास ही जानेके लिये कहा। तब निन्दित कर्मों से सदा दूर रहनेवाली वह संज्ञा अपने रूप को बदलकर घोड़ी का रूप धारण करके उत्तरकुरु के देशोंमें जाकर घास चरने लगी। उस दूसरी संज्ञा को भी संज्ञा ही समझते हुए सूर्य देवता ने उसके गर्भ से अपने ही समान पुत्र उत्पन्न किया। ये अपने बड़े भाई मनु के समान वर्ण तथा शक्तिवाले थे, अतएव सावर्ण कहलाये।
वे ही मनु हुए, जिनका नाम सावर्ण मनु हैं। उस छाया-से जो दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ, वो शनैश्चर थे। वह पार्थिवी संज्ञा अपने पुत्र से तो अधिक स्नेह करती थी, परंतु वैसा स्नेह उनसे पहले की संतानों से नहीं करती थी। संज्ञा की छाया के पृथ्वी में पड़ने के कारण वह पृथ्वी से उत्पन्न हुई, अतएव ‘पार्थिवी’ कहलाती थी। मनुने तो इस बातको सह लिया, परंतु यम इसे न सह सके। वे वैवस्वत यम बालस्वभाव एवं रोष के कारण तथा होनहार (भावी) के वशीभूत हो संज्ञाको पैर दिखाकर डाँटने लगे। इस पर सावर्ण की माता ने अति दुःखित हो कोप में भरकर उन्हें शाप दिया कि ‘तुम्हारा यह चरण गिर जाय’। छाया-संज्ञा के उस वाक्य से पीड़ित और शाप के भय से अत्यन्त व्याकुल होकर यमने हाथ जोड़कर पिता से वह सब बात कह दी। वे पिता से बोले- ‘मुझे यह शाप न लगे। देखिये माता को तो सब पुत्रों के प्रति समान रूप से स्नेहपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। पर यह हम सबको छोड़कर सबसे छोटे से ही स्नेह का व्यवहार करती है। सो मैंने उसके ऊपर पैर उठाया ही था, शरीरपर मारा नहीं था। मैंने यह काम लड़कपन से किया हो अथवा मोहवश, परंतु आप मुझे क्षमा कर दें’। संज्ञा ने कहा- ‘बेटा! मैं तुम्हारी पूजनीया हूँ तो भी तुमने मेरा तिरस्कार किया है, अतः तुम्हारा यह पैर निःसंदेह गिर जायगा।’ संतान तो कुसंतान हो सकती है, परंतु माता कुमाता नहीं हो सकती। ‘लोकेश्वर ! माता ने मुझे शाप दे दिया है, परंतु तपनेवालों में श्रेष्ठ गोपते ! आपकी कृपा से मेरा पैर न गिरे ऐसी कृपा कीजिये ‘।
सूर्य ने कहा – पुत्र ! तुम धर्मज्ञ और सत्यवादी हो, तुमको जो क्रोध चढ़ आया इसमें निःसंदेह कोई बड़ा भारी कारण होगा। मैं तुम्हारी माता के वचन को सर्वथा तो लौटा नहीं सकता। पर महाप्राज्ञ ! कीड़े तुम्हारे चरणमें से मांस लेकर पृथ्वीतल पर चले जायँगे, तब तुम्हें सुख मिलेगा। इस प्रकार तुम्हारी माता का कहा हुआ वचन भी सत्य हो जायगा और शाप का परिहार होने से तुम्हारी भी रक्षा हो जायगी। फिर सूर्य ने संज्ञा से कहा- ‘सभी पुत्र बराबर हैं तो भी तू किसी से कम और किसी से अधिक स्नेह क्यों करती है।’ सूर्य ने यह बात बार-बार कही, परंतु वह हँसती ही रह गयी और उसने सूर्य से कुछ भी न कहा।
भगवान् सूर्य ने अपने चित्त को एकाग्र करके योग के द्वारा सत्य बात जान ली और शाप द्वारा उसका विनाश करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। तब अपनी शपथ के उतर जाने पर छाया ने सूर्यनारायण से सारी बात ज्यों-की-त्यों बतला दी। सूर्यनारायण इस बात को सुनते ही क्रोध में भरकर त्वष्टा के पास पहुँचे। त्वष्टा ने विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जब देखा कि ये तो रोष से मुझे भस्म ही करना चाहते हैं, तब उन्होंने सूर्यनारायण को इस प्रकार शान्त करना – समझाना आरम्भ किया।
त्वष्टा ने कहा- आदित्य ! आपका यह अतितेजस्वी रूप अच्छा नहीं लगता। इसको न सह सकने के कारण ही संज्ञा हरी घासवाले वन में हरी घासों को चर रही है। किरणों के स्वामी! आज आप हाथी के सूँड़ से जाने के कारण पद्मिनी के समान व्याकुल हुई, शुद्ध आचरणवाली और योग के बल से सम्पन्न अतएव योग से घोड़ीका रूप धारण करके सदा तप करती पत्तों का आहार करनेवाली, दुबली, दीन, जटा – और ब्रह्मचारिणी अपनी उस प्रशंसनीया भार्या को देखेंगे। देवेश! यदि आपको मेरी बात ठीक लगे तो शत्रुदमन ! मैं आज आपके रूपको मनोहर बना दूँ । पहले सूर्यका रूप तिरछा, ऊँचा और सब ओरसे एक-सा था। उस रूप से सम्पन्न होनेके कारण ही वे विभावसु कहे जाते हैं। इसलिये उन प्रजापति सूर्यनारायण ने त्वष्टा की बातको बहुत अच्छा समझा और उन्होंने अपना रूप ठीक करनेके लिये त्वष्टाको अनुमति दे दी। तब त्वष्टाने मार्तण्ड (सूर्य) के समीप जाकर उनको सानपर चढ़ाकर उनके तेजको खरादना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार तेजके छिल जानेसे उनका रूप खिल उठा और उनका रूप रम्यातिरम्य होकर अधिक सुशोभित होने लगा। तब से किरणों के स्वामी भगवान् सूर्य के मुख का रूप बदल गया। उस समय से उनका मुख रक्तवर्ण का हो गया। उन मार्तण्ड के मुख से जो मुखराग छूटा था, उससे बारह आदित्य उत्पन्न हुए। उनके मुख से धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, दसवें पर्जन्य, त्वष्टा, बारहवें विष्णु उत्पन्न हुए, जो अन्तमें प्रकट होनेके कारण सबसे छोटे होकर भी गुणों में सर्वश्रेष्ठ थे।
गन्ध, पुष्प, अलंकार और प्रकाशमान मुकुटों से सुशोभित अपने शरीरसे उत्पन्न हुए उन आदित्यों को देखकर भगवान् सूर्य बड़े प्रसन्न हुए। इस प्रकार सूर्यनारायण का पूजन कर त्वष्टा ने उनसे कहा- ‘देव! अब आप अपनी पत्नी के पास जाइये। वह उत्तर कुरु देशों में भ्रमण कर रही है और हरी घास से भरे हुए वनमें घोड़ी का रूप धारण करके विचर रही है’। तब सूर्यनारायण ने भी अपनी पत्नीके रूपके अनुसार घोड़े के समान विचरण करने के लिये घोड़े का ही रूप धारण कर लिया। उस समय सूर्यने ध्यानसे देखा तो उन्हें तेज और नियमके कारण सब भूतों से अधृष्य घोड़ी का रूप धारण करके किसी ओरसे भी भयकी आशंका न कर निर्भय हो विचरती हुई अपनी भार्या संज्ञा दीख पड़ी। फिर तो घोड़े के रूप में भगवान् सूर्य उसके मुख के समीप पहुँचे। पर वह पर-पुरुष की आशंका से मैथुन के प्रतिकूल चेष्टा करने लगी और सूर्यके वीर्य को उसने अपनी नाकपरसे गिरा दिया। उससे वैद्योंमें श्रेष्ठ अश्विनीकुमार नामक देवता उत्पन्न हुए। वे दोनों अश्विनीकुमार नासत्य और दस्र नामसे प्रसिद्ध हैं।
ये दोनों आठवें प्रजापति मार्तण्डके पुत्र हैं। इन्हें सूर्यभगवान्ने अश्वारूपा संज्ञाके गर्भसे उत्पन्न किया था। तदनन्तर सूर्य ने उसे अपने मनोहर रूप में दर्शन दिया। तब वह स्वामी को देखकर बड़ी संतुष्ट हुई। इधर यम अपने उस कर्म से मन-ही-मन बड़े दुःखित रहते थे। अतएव वे अपने धर्मराजत्वके अनुरूप ही धर्मयुक्त आचरणसे प्रजाओं को प्रसन्न रखने लगे। उस श्रेष्ठ कर्म के कारण उन महाकान्तिमान् धर्मराज को पितरों का आधिपत्य और लोकपालका पद मिला तथा वे तपस्या के धनी प्रजापति सावर्ण मनु हुए। वे सर्वसमर्थ सावर्ण भविष्यके आठवें मन्वन्तर के मनु होंगे। वे आज भी सुमेरुपर्वत के शिखर पर घोर तप कर रहे हैं। इनके भाई शनैश्चर ग्रह बन गये और जिन नासत्योंका वर्णन किया है, वे स्वर्गके वैद्य बन गये। वे उपासना करनेवाले के घोड़ों को शान्ति देते हैं। उसी तेज की छीलन-से त्वष्टा ने विष्णुभगवान् का सुदर्शन चक्र बनाया। वह दानवों के अन्त करने की इच्छा से बनाया गया चक्र युद्ध में किसी प्रकार भी व्यर्थ नहीं जाता।
उन दोनों में छोटी जो यमी नामकी यशस्विनी कन्या थी, वह नदियों में श्रेष्ठ, लोकों को पवित्र करनेवाली यमुना हुई। मनु संसार में मनु कहलाते हैं और सावर्ण भी कहलाते हैं। उनके दूसरे पुत्र और मनु के भ्राता जो शनैश्चर हैं, उन्होंने सब लोकोंसे पूजित ग्रहका पद प्राप्त किया।
जो मनुष्य देवताओं के जन्म की इस कथा को सुनता है अथवा मन में धारण करता है, वह आपत्तियोंसे छूट जाता और बड़ा भारी यश पाता है।