विपुल रेगे। भारत में सूचना के अधिकार का अजब हाल है। उत्तरप्रदेश में एक पत्नी इस अधिकार का इस्तेमाल कर पता लगा लेती है कि उसके पति का वेतन कितना है लेकिन इसी देश में एक आम आदमी भाजपा सांसद सनी देओल के कर्जे की नीलामी को लेकर अखबार में निकाले गए विज्ञापन को वापस लिए जाने का कारण पता नहीं लगा पाता। सूचना का अधिकार अब ताकतवर नहीं रहा है। राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल-2023 आने के बाद ये चिंता जताई जा रही है कि ये एक्ट सूचना के अधिकार (RTI) के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकता है।
पिछले दिनों अभिनेता और सांसद सनी देओल की फिल्म ‘ग़दर 2’ रिलीज होते ही बड़ी हिट हो गई। फिल्म हिट होते ही बैंक ऑफ़ बड़ौदा को याद आया कि वह सनी को 56 करोड़ का क़र्ज़ देकर भूल गई है। फिर बैंक ने अख़बार में सनी के बंगले की नीलामी का विज्ञापन अख़बार में छपवाया। विज्ञापन जारी होते ही देशभर में हंगामा मचा। विपक्ष ने भी सरकार पर तलवार खींच ली। विज्ञापन को चौबीस घंटे भी नहीं बीते और बैंक ने कहा कि सनी बकाया रकम वापस करने के लिए तैयार हो गए हैं। इसके बाद बैंक विज्ञापन को गलती बताकर वापस ले लेता है। इस गोरखधंधे को देख एक नागरिक परेशान हो जाता है और सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहता है कि विज्ञापन वापस क्यों लिया गया।
इस पर बैंक जानकारी देने से मना करते हुए कहता है कि थर्ड पार्टी इन्फॉर्मेशन साझा नहीं की जा सकती है। सर्वविदित है कि सूचना का अधिकार सन 2005 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार लेकर आई थी। जब ये कानून लागू हुआ था, तब इसे ‘सनशाइन कानून’ कहा गया था। हालाँकि इसके लागू होने पर देश के आम नागरिकों को इसका वैसा लाभ नहीं मिला, जैसी आशा थी। सन 2014 में जब देश में नरेंद्र मोदी सरकार आई तो सूचना का अधिकार शक्तिशाली होने के बजाय और कमज़ोर होता चला गया। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में 22 जुलाई, 2019 को सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 पारित किया, जिसका उद्देश्य सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन करना था।
विपक्षी नेताओं और कानून के जानकारों का मानना था कि आरटीआई कानून में संशोधन करने के बाद इसके दुरुपयोग के रास्ते खोल दिए गए। संशोधन विधेयक के प्रावधानों को न तो सार्वजनिक किया गया और न ही आम जनता की राय ली गई। देश के पहले सूचना आयुक्त हबीबुल्लाह ने उस समय कहा था कि ‘इससे सूचना आयुक्त कमजोर हो जाएंगे। उनकी नियुक्ति से लेकर वेतन-भत्ते तक सब सरकार तय करेगी। पहले सरकार के पास यह अधिकार नहीं था। इससे आयुक्तों की स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है।’ जुलाई 2019 में लोकसभा और राज्यसभा में ये संशोधन बिल पास करवा लिया गया था।
कई आरटीआई एक्टिविस्ट और विपक्ष ने ये कहते हुए इस संशोधन का विरोध किया कि नए संशोधन के बाद आरटीआई उतना ताकतवर नहीं रह गया है, जितना पहले था। बदलाव के बाद सूचना के अधिकार के संस्थागत ढांचे पर सरकार की निगरानी होगी जबकि पहले ये स्वतंत्र रूप से काम कर रही थी। संशोधन के बाद के विश्लेषण से ये बात सामने आई कि अधिनियम की धारा 8 (1) (जे) के तहत व्यक्तिगत जानकारी होने के आधार पर आरटीआई खारिज करने के मामले बढ़ते चले गए। आम आदमी के सामने संशोधन एक बड़ा काँटा बनकर उभरा। संशोधन से सबसे बड़ी राहत सरकार और सरकारी मशीनरी को मिल गई क्योकि कभी शक्तिशाली रहा ये कानून अब बच्चों के खेल जैसा हो गया है।
प्रधानमंत्री मोदी के डिग्री संबंधी विवाद को हम कैसे भूल जाए। उच्च न्यायालय में गुजरात विश्वविद्यालय तर्क देता है कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून का इस्तेमाल किसी की ‘बचकाना जिज्ञासा’ को संतुष्ट करने के लिए नहीं किया जा सकता। यदि कोई नेता या देश का आम नागरिक प्रधानमंत्री की डिग्री संबंधी जिज्ञासा शांत करना चाहता है तो न्यायालय उसे ‘बचकाना जिज्ञासा’ कैसे कह सकता है ? जाहिर है कि देश के नेता और सरकारी मशीनरी को विधेयक में संशोधन होने से बहुत राहत मिल गई है। सन 2020 में कोविड-19 के प्रसार की रोकथाम के लिये बनाए गए आरोग्य सेतु एप को लेकर विवाद हुआ। आरोग्य सेतु ऐप किसने बनाया इस बारे में इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (एनआईसी) ने सूचना आयोग को कोई जानकारी नहीं दी थी।
इसके बाद एक नागरिक सौरव दास ने आरटीआई अधिनियम के तहत शिकायत दायर की। ऐसे कितने ही मामले हैं, जो ये बताते हैं कि संशोधन के बाद आरटीआई का कानून बिना दांत और नाख़ून का कानून बनकर रह गया। ग्रेटर नोएडा निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोगड़ ने सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहा कि एम केयर्स फंड को अब तक कितना करोड़ रुपया दान दिया गया। इस पर पीएमओ ने कहा कि आरटीआई के एक ही आवेदन में कई विषयों से संबंधित सवाल पूछे गए हैं,और उन्हें हर विषय के लिए अलग से भुगतान करना चाहिए, इसलिए उन्हें जानकारी नहीं दी जा सकती है। पीएमओ ने यह भी तर्क दिया कि पीएम केयर्स फण्ड आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत पब्लिक अथॉरिटी नहीं है इसलिए इसकी जानकारी देना उसके लिए कोई बाध्यता नहीं है।
सूचना के अधिकार को कमज़ोर करने की रही सही कसर डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल-2023 ने पूरी कर दी है। ये बिल अगस्त में पास हो गया है। इसके प्रावधान के मुताबिक, अगर किसी कंपनी द्वारा यूजर्स का डाटा लीक किया जाता है और कंपनी द्वारा ये नियम तोड़ा जाता है तो उसपर 250 करोड़ रुपए तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। विपक्ष का कहना है कि इससे कानून और कमजोर होगा। आम नागरिक के लिए लाया गया ये अधिकार अब बहुत कमज़ोर बन कर रह गया है। एक तरफ ये सरकार पारदर्शिता की बात करती है लेकिन दूसरी तरफ पारदर्शिता को समाप्त करने के लिए हर जतन करने को तैयार दिखती है।