श्वेता पुरोहित:-श्रीराम को अगस्त्य मुनि से दिव्य अस्त्रों-शस्त्रों की प्राप्ति
महान् और प्रसिद्ध तपस्वी मुनि सुतीक्ष्ण ने श्रीराम को बताया कि वे भी चाहते थे कि श्रीराम अगस्त्य मुनि के पास जाएँ। उन्होंने बताया कि अगस्त्य मुनि की अग्निशाला तक पहुँचने के लिए दक्षिण दिशा की ओर कुछ दूर तक जाना होगा। फिर उन्हें जंगल में एक सुंदर पिप्पली का कुंज मिलेगा, वहाँ ऋषि अगस्त्य के भाई का आश्रम है। वह स्थान फूलों एवं फलों से भरा हुआ है। नाना प्रकार के पक्षियों के कलरवों से गूँजते हुए उस रमणीय आश्रम के पास तरह-तरह के कमल मंडित सरोवर हैं, जो स्वच्छ जल से भरे हुए हैं। हंस और चक्रवाक आदि पक्षी उस आश्रम की शोभा बढ़ाते है। तीनों राजसी तपस्वी बताए गए मार्ग का अनुसरण करके ऋषि अगस्त्य के छोटे भाई के आश्रम पर पहुँचे और उन महर्षि के चरणों में मस्तक झुकाया। मुनि ने उनका आदर-सत्कार किया। सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम फल-मूल खाकर एक रात उस आश्रम में सुखपूर्वक रहे। रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब श्रीरामचंद्रजी ने अगस्त्य मुनि के भाई से विदा माँगी और उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। मार्ग में उन्होंने कटहल, कदंब, अशोक, महुआ तथा बिल्व आदि के फूलों से लदे वृक्ष देखे। फिर अचानक कमलनयन श्रीराम ने दूर से ही वन में एक आश्रम से यज्ञ के धुएँ को देखा। श्रीराम ने आस-पास के उदीप्त वातावरण को भी देखा, वहाँ पर पशु-पक्षियों को भय रहित क्रीड़ा करते हुए देखा और पूजन के लिए पुष्प एकत्रित करते हुए ऋषियों को भी देखा। तभी श्रीराम ने निष्कर्ष निकाला कि वही अगस्त्य मुनि का शोभा संपन्न आश्रम है और वे उनके आश्रम के समीप पहुँच गए हैं। श्रीराम ने लक्ष्मण को पहले प्रवेश करने की आज्ञा दी और महर्षि अगस्त्य को सीता के साथ उनके आगमन की सूचना देने को कहा।
लक्ष्मण ने आश्रम में प्रवेश करके अगस्त्य ऋषि के शिष्य से भेंट की और उनके माध्यम से यह संदेश पहुँचाया, “अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि के दर्शन करने तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पधारे हैं। शिष्य ने अगस्त्य मुनि की अग्निशाला में प्रवेश किया और लक्ष्मण तथा सीताजी सहित श्रीराम के आगमन की सूचना दी। ऋषि अगस्त्य ने सीता सहित श्रीराम और लक्ष्मण को सत्कारपूर्वक आश्रम में लाने की आज्ञा दी। अगस्त्य मुनि ने तीनों राजसी तपस्वियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा, “मैंने आपके चित्रकूट और दंडकवन में निवास के बारे में सुना था। आपका वनवास समाप्त होनेवाला है। अपने वनवास की शेष अवधि आप यहाँ मेरे आश्रम में शांति से बिताइए। यह स्थान राक्षसों के भय से रहित है।” इसके पश्चात् ऋषि अगस्त्य ने फल, मूल और फूलों से उनका आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात् अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को दिव्य धनुष, अमोघ बाण, बाणों से भरे हुए दो तरकस और उत्कृष्ट तलवार आदि भेंट किए। श्रीराम ने आदरपूर्वक इन अस्त्र-शस्त्रों को ग्रहण किया।
रामायण (3/11/85) और महाभारत (3/103/12-14) दोनों में ही अगस्त्य मुनि का महिमागान करते हुए कहा गया है कि उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए अगस्त्य मुनि ने विंध्य पर्वत के और अधिक ऊँचा न बढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। आकाश में सबसे अधिक चमकते हुए दूसरे तारे ‘कैनोपस’ का नाम संस्कृत में अगस्त्य ही है। ऐसा विदित होता है कि विंध्याचल पर्वत के उत्तर से दक्षिण दिशा में अग्निशाला की स्थापना करने हेतु चलते हुए विंध्य पर्वत से अगस्त्य मुनि ने इस तारे को देखा था। दक्षिण पहुँचकर उन्होंने भव्य आश्रम तथा अग्निशाला की स्थापना की। शायद यहाँ पर निर्मित अस्त्र-शस्त्रों को ही 5078 वर्ष ई.पू. में श्रीराम के वनवास के 12वें वर्ष में उन्हें तब सौंपा गया था, जब श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम में गए थे (3/12/32-37)। ऋषि अगस्त्य ऋग्वेद के मंत्रों की रचना करनेवाले दस महान् ऋषियों में से एक हैं; इसीलिए यह सर्वथा संभव है कि ऋषि अगस्त्य भी श्रीराम के समकालीन थे। ऋषि अगस्त्य अपने ज्ञान और बुद्धि के लिए विख्यात थे और यह कहा जाता था कि यदि हिमालय और विंध्य के बीच संपूर्ण बुद्धि और आध्यात्मिक गुणों को मिलाकर तराजू के एक तरफ और तराजू की दूसरी तरफ ऋषि अगस्त्य के ज्ञान को रखा जाए तो भी अगस्त्य मुनि का ज्ञान और उनकी बुद्धि का संचय अधिक भारी पड़ेंगे।
रामायण में गोदावरी के निकट स्थित अगस्त्य मुनि के आश्रम का सजीव चित्रण उपलब्ध है, जिसमें आश्रम के निकट तालाब तथा वाटिका के साथ-साथ एक अग्निशाला अर्थात् फाउंडरी का भी संदर्भ है, जिसमें विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र निर्मित किए जाते थे। अगस्त्य आश्रम के स्थल को आधुनिक काल में पहचाना नहीं जा सका है, परंतु अगस्त्य मंदिर के अवशेषों को अभी भी महाराष्ट्र में प्रवर नदी के तट पर, नासिक के पास भंडारदरा में स्थानीय लोगों द्वारा अभी तक पहचाना जाता है। कुछ अन्य लोगों का मानना है कि नासिक के पिंपलनेर
क्षेत्र में अगस्तेश्वर आश्रम एक ऐसा स्थान है, जहाँ श्रीराम अगस्त्य मुनी से मिले थे। एक प्राचीन मंदिर के खंडहरों पर, उस स्थल पर एक नए मंदिर का निर्माण किया जा रहा है।’
अगस्त्य मुनि से दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रीराम ने उन अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों का संहार करने का अपना संकल्प पुनः दोहराया। ऋषि अगस्त्य ने उन्हें वनवास की शेष अवधि पंचवटी में व्यतीत करने का सुझाव दिया। पंचवटी ऋषि अगस्त्य के आश्रम के निकट उत्तर दिशा की ओर स्थित था। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को आशीर्वाद देते हुए कहा, “अरुंधति के समान पवित्र पत्नी सीता का ध्यान रखना, क्योंकि सीता आपके प्रति प्रेम और समर्पण के कारण प्रसन्नता से ऐसी कठिनाइयों से भरपूर जीवन व्यतीत कर रही हैं, जिनके लिए न तो सीता का जन्म हुआ था और न ही वे उनको भोगने की आदी हैं।
श्रीराम ! लक्ष्मण और सीता के साथ तुम जिस भी स्थान पर निवास करोगे, वह स्वयं ही सुंदर बन जाएगा, लेकिन पंचवटी एक ऐसा सुंदर एवं मनोहर स्थान है, जहाँ सीता का मन खूब लगेगा और वह आप दोनों राजकुमारों के संरक्षण में सुख तथा आराम से रह सकेंगी। यह स्थान प्रचुर मात्रा में फल-मूल से संपन्न, पवित्र एवं रमणीय है। आप गोदावरी के तट पर निवास कीजिए। आपके वनवास का समय जल्दी पूर्ण होनेवाला है।” उन तीनों राजसी तपस्वियों ने ऋषि अगस्त्य के बताए हुए मार्ग से पंचवटी की ओर प्रस्थान किया। बीच में श्रीरामचंद्र जी को एक विशालकाय गृध्र मिला। वन में बैठे हुए उस विशाल पक्षी को देखकर, श्रीराम और लक्ष्मण ने उसे राक्षस ही समझा और उससे उसका परिचय पूछा। तब उस पक्षी ने बड़ी मधुर और कोमल वाणी में उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा, “मुझे अपने पिता का मित्र समझो। मैं अरुणा का पुत्र तथा संपाति का भाई हूँ। जब आप सीता को छोड़कर अपनी पर्णशाला से कभी बाहर वन में चले जाया करोगे, उस समय मैं सीताजी की रक्षा करूँगा।” यह बात सुनकर इक्ष्वाकु कुल के राजकुमार श्रीराम प्रसन्न हुए तथा बड़े सम्मान के साथ जटायु पक्षी के प्रस्ताव को स्वीकार किया। इसके पश्चात् वह पंचवटी में अपनी पर्णशाला के निर्माण के लिए उचित स्थान की खोज करने के लिए आगे बढ़ गए।
- रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी पुस्तक का एक अंश. साभार लेखिका सरोज बालाजी
जय सियाराम
महर्षि अगस्त्य की जय