विपुल रेगे। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर शपथ लेने के बाद आम जनता और विपक्षी दलों में ये धारणा बन गई कि वर्तमान भाजपा सरकार तानाशाही से देश चला रही है। सन 2014 के बाद से कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों का केंद्र के साथ टकराव बढ़ता रहा। मोदी सरकार के राज में स्वयं भाजपा के मुख्यमंत्री भी तानाशाही से नहीं बच सके। तानाशाही ऐसी कि मोदी जी के आने के बाद से अब तक ऐसे छह भाजपाई मुख्यमंत्रियों की बलि चढ़ गई, जो अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर सके। संभवतः इंदिरा गांधी युग के बाद हम केंद्र और राज्यों का इतना बड़ा टकराव देख रहे हैं।
दो दिन पूर्व ही हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और उनके स्थान पर नायब सिंह सैनी मुख्यमंत्री बने। अभी खट्टर के कार्यकाल का लगभग एक वर्ष बाकी था लेकिन उससे पहले ही केंद्र के इशारे पर उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ गया। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने असमय त्यागपत्र दिया है। भाजपा के अभागे मुख्यमंत्रियों में सबसे पहला नाम उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत का है।
सन 2017 में रावत को उस समय उत्तराखंड का मुख्यमंत्री पद त्यागना पड़ा, जब उनके कार्यकाल का एक वर्ष बाकी था। भाजपा आलाकमान के दबाव में पद छोड़ना पड़ा। इनके स्थान पर तीरथ सिंह रावत को बैठाया गया लेकिन एन चुनाव से पहले सिर्फ 116 दिन राज करवाकर रावत को भी घर बैठा दिया गया। गुजरात में जब मुख्यमंत्री पद छोड़कर मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो आनंदीबेन पटेल को गुजरात के मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाई गई थी। आनंदीबेन मात्र ढाई वर्ष ही राज कर सकी। मोदी सरकार ने उनसे इस्तीफा मांग लिया। ऐसे ही गुजरात के विजय रुपाणी भी रहे, जिनसे इस्तीफा मांगकर भूपेंद्र पटेल की ताज़पोशी कर दी गई थी।
ऐसा ही कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा के साथ किया गया। सन 2018 और 2019 में येदियुरप्पा को दो बार मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ गया था। केंद्र सरकार ने शुरुआत से ही अपनी राज्य सरकारों को मौन संकेत दे दिया था कि राज उनके ही अनुसार करना होगा। हाल ही में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सरकारें बनी है और ऐसा लग रहा है कि नए चुने गए मुख्यमंत्रियों का अपना कोई जलवा नहीं है। भाजपा ने मध्यप्रदेश में अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। पहली सूची में उज्जैन और इन्दौर का नाम नहीं था। दूसरी सूची में इन्दौर से शंकर ललवानी और उज्जैन से अनिल फिरोजिया को पुनः टिकट दे दिया गया है।
मज़े की बात ये है कि मध्यप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री और उज्जैन के सांसद अनिल फिरोजिया की आपस में बनती। डॉ.मोहन यादव फिरोजिया को पसंद नहीं करते और न शंकर ललवानी को इन्दौर भाजपा में पसंद किया जाता है। ये सांसद महोदय इन्दौर की समस्याएं हल नहीं कर सके और न जनता के साथ उनका जीवंत सम्पर्क है। इसके बावजूद केंद्र ने टिकट रिपीट किये हैं। इस बात से स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बनने दी जाएगी। ये देखने वाली बात है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कठपुतली मुख्यमंत्री कब तक कुर्सी पर बैठे रह सकेंगे। केंद्र से एक इशारा आता है और तुरंत कुर्सी छोड़ देनी पड़ती है।
ये मामला वैसा ही है, जैसे कोई अपनी चवन्नी बचाने के लिए आपका एक रुपया खर्च करा दे। चवन्नी बचाने को एक रुपया खर्च करने का ये खेल भारतीय जनता पार्टी को भीतर से तोड़ देगा। कैसा लगता होगा भाजपा के एक बड़े और सफल नेता को कि उसके कॅरियर को बाढ़ में हिचकोले खाती नैया की तरह बना दिया गया है। आज आप मुख्यमंत्री हैं और कल सुबह आप ‘नाकुछ’ होंगे। फिर आपको पुनः अपने मयार से नीचे उतारकर सांसदी और विधायकी लड़नी होगी।