श्वेता पुरोहित:-
ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना
श्री ऋषभदेवजी ने कहा – पुत्रो ! इस मर्त्यलोक में
यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषय भोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठा भोजी सूकर- कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो; क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार सम्पन्न हों। अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करनेवाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिन की अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर निर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों। मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियोंको तृप्त करने के लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसी के कारण आत्माको यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है।
जब तक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जबतक यह लौकिक-वैदिक काँध फँसा रहता है, तबतक मन में कर्मकी वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देहबन्धन की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्मस्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों में ही प्रवृत्त करता है। अतः जबतक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तबतक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता। स्वार्थ में पागल जीव जबतक विवेक-दृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तबतक आत्मस्वरूप की स्मृति खो बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदिमें आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है।
स्त्री और पुरुष – इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य- भाव है, इसीको पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहलेसे ही है। इसीके कारण जीवको देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदिमें भी ‘मैं’ और ‘मेरे’ पनका मोह हो जाता है। जिस समय कर्म वासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्यभाव से निवृत्त हो जाता है और संसारणके हेतुभूत अहंकार को त्याग कर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है। पुत्रो ! संसारसागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुण विशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सबके आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान्में भक्तिभाव रखने से, मेरे परायण रहने से, तृष्णा के त्याग से, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों के सहने से जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है। इस विचार से, तत्त्व जिज्ञासा मे तप से सकाम कर्म के त्यागसे, मेरे ही लिये कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्यप्रति श्रवण करने से, मेरे भक्तों के संग और मेरे गुणों के कीर्तन से, वैरत्याग से, समता से, शान्ति से और शरीर तथा घर आदि में मैं-मेरेपन के भाव को त्यागने की इच्छा से, अध्यात्मशास्त्र के अनुशीलन से, एकान्त-सेवन से, प्राण, इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्यकर्मों में निरन्तर सावधान रहने से, वाणी के संयम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने से, अनुभवज्ञानसहित तत्त्वविचार से और योगसाधन से अहंकाररूप अपने लिंगशरीर को लीन कर दे। मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्यासे प्राप्त इस हृदयग्रन्थिरूप बन्धनको शास्त्रोक्त रीतिसे इन साधनोंके द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योंकि यही कर्मसंस्कारों के रहने का स्थान है। तदनन्तर साधन का भी परित्याग कर दे।
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो-वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उन पर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्ति युक्त काम्य कर्मों में लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्यको जान-बूझकर गढ़ेमें ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है। अपना सच्चा कल्याण किस बात में है, इसको लोग नहीं जानते; इसीसे वे तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फँसकर तुच्छ क्षणिक सुखके लिये आपसमें वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषयभोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बातपर कुछ
भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि अनन्त घोर दुःखों की प्राप्ति होगी। गढ़े में गिरने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँख वाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे या जाने के लिये प्रेरणा करे।
जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।
मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसीमें धर्मकी स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसीसे सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं।
तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजापालन भी है। अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ हैं, उनसे चलनेवाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादिकी अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ हैं। पशुओं से मनुष्य, मनुष्यों से प्रमथगण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्वां से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं।
उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं। इन्द्र से भी ब्रह्माजी के पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं, ब्रह्माजी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ हैं। वे भी मुझसे उत्पन्न हैं और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ। परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ।
[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके] विप्रगण ! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ वैसे अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता।
जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न हैं-उन ब्राह्मणों से बढ़कर और कौन हो सकता है। मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की भी सामर्थ्य रखता हूँ; किन्तु मेरे अकिंचन भक्त ऐसे निःस्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं?
पुत्रो ! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पदपर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है। मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! ऋषभ- देवजीके पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगोंको शिक्षा देनेके उद्देश्यसे महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया।
ऋषभदेवजी के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे। वे भगवान्के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेवजी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये। केवल शरीरमात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे। उन्मत्तका-सा वेष था। इस स्थिति में वे आहवनीय (अग्निहोत्रकी) अग्नियोंको अपनेमें ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये।
वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड, अंधे, बहरे, गूंगे, पिशाच और पागलों की-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचरने लगे। कभी नगरों और गाँवों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों, बगीचों, पहाड़ी गाँवों, सेनाकी छावनियों, गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिकने के स्थानों में रहते। कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम आदि में विचरते।
वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वनमें विचरनेवाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्टलोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते । कोई धमकी देते, कोई मारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका तिरस्कार करते। किन्तु वे इन सब बातोंपर जरा भी ध्यान नहीं देते। इसका कारण यह था कि भ्रमसे सत्य कहे जानेवाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूप में ही स्थित थे, इसलिये अखण्ड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वीपर विचरते रहते थे। यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहे, कंधे गले और मुख आदि अंगोंकी बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभाव से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुसकानसे और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे; उनकी पुतलियाँ शीतल एवं संतापहारिणी थीं। उन नेत्रोंके कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्ययुक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुर नारियों के चित्त में कामदेव का संचार हो जाता था; तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंगकी लम्बी-लम्बी घुँघराली लटें लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और अवधूतों के समान धूलिधूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते थे।
जब भगवान् ऋषभदेव ने देखा कि यह जनता योगसाधन में विघ्नरूप है और इससे बचने का उपाय बीभत्सवृत्ति से रहना ही है, तब उन्होंने अजगरवृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने, चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे। वे अपने त्यागे हुए मल में लोट-लोटकर शरीर को उससे सान लेते।
(किन्तु) उनके मलमें दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी। और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे देश को सुगन्धित कर देती थी।
इसी प्रकार गौ, मृग और काकादिकी वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हीं के समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे- लेटे ही खाने-पीने और मल-मूत्रका त्याग करने लगते थे।
परमहंसों को त्याग के आदर्श की शिक्षा देने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव ने कई तरह की योगचर्याओं का आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् आनन्द का अनुभव करते रहते थे। उनकी दृष्टि में निरुपाधिकरूप से सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा अपने आत्मस्वरूप भगवान् वासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था।
इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मनकी गति के समान ही शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुँच जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश करना), दूरकी बातें सुन लेना और दूरके दृश्य देख लेना आदि सब प्रकार की सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करने को आयीं; परन्तु उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया।
इस प्रकार वे अवधूत हो गए.
इस कथा का अंतिम भाग कल आएगा.