श्वेता पुरोहित:-
अतिशय दीर्घजीवी ऋषियों में महर्षि लोमशजी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। ये सनकादि तथा वसिष्ठ आदि ऋषियों से भी अवस्था में बड़े हैं। इनके जीवन में न जाने कितने ब्रह्मा बीत चुके हैं। इसीलिये ये चिरजीवी कहलाते हैं। इनके पूरे शरीर में लोम-रोम-ही-रोम हैं, इसीलिये ये लोमशके नामसे प्रसिद्ध हैं।
कल्प के अंत में जब ब्रह्माजी का लय होता है, तब इनका एक रोम (लोम) गिर जाता है। इनको इतना दीर्घजीवन कैसे प्राप्त हुआ तथा इन्हें कालज्ञान आदि की विद्याएँ कैसे प्राप्त हुईं – इस सम्बन्ध में ब्रह्मवैवर्तपुराण में एक रोचक आख्यान प्राप्त होता है, उसका सारभाग यहाँ प्रस्तुत है –
एक बार की बात है, देवराज इन्द्र को सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने से अपने पद का अभिमान हो आया था। उन्होंने अपने ऐश्वर्य के प्रदर्शन के लिये एक विशाल प्रासाद (भवन) के निर्माण का संकल्प लिया। इसके निर्माण के लिये उन्होंने देवशिल्पी विश्वकर्मा को नियुक्त किया। सौ वर्ष से भी अधिक का समय व्यतीत हो गया, किंतु वह पूरा नहीं हुआ था, उन्हीं दिनों की बात है, एक मुनीश्वर वहाँ उपस्थित हुए, जो ज्ञान तथा अवस्था में सबसे बड़े थे, उनका शरीर अत्यन्त वृद्ध था। वे महान् योगी थे। वे कटिदेश में मृगचर्म, मस्तकपर जटाभार, ललाट में उज्ज्वल तिलक, वक्षःस्थल में रोमचक्र तथा सिरपर चटाई धारण किये हुए थे।
अतिवृद्धो महायोगी ज्ञानेन वयसा महान् ।। कृष्णाजिनी जटाधारी बिभ्रत्तिलकमुज्ज्वलम् । वक्षःस्थले रोमचक्रं बिभर्ति मस्तके कटम् ॥ (ब्र०वै०पु० ४।४७। १३३-१३४)
देवराज इन्द्र ने मुनिवर का मधुपर्क आदि से स्वागत किया। महर्षि का ऐसा अद्भुत स्वरूप देखकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने पूछा – मुनिवर ! आपका आगमन कहाँ से हुआ है और आपका नाम क्या है ? यहाँ आनेका उद्देश्य क्या है? आप कहाँ के रहनेवाले हैं तथा आपने मस्तक पर चटाई किसलिये धारण कर रखी है ? मुने ! आपके वक्षःस्थल पर यह विशाल रोमचक्र क्या है तथा यह बीचमें कुछ खाली भी दिखायी पड़ रहा है, कृपया मुझे सब बतानेकी कृपा करें।
लोमशमुनि इन्द्र के अभिमान को दूर करने के लिये कहने लगे – हे इन्द्र ! मेरी बात ध्यान से सुनो, मैं इस सबका रहस्य बताता हूँ। देवराज ! आयु बहुत थोड़ी होने के कारण मैंने कहीं भी रहनेके लिये घर नहीं बनाया है, विवाह भी नहीं किया है और जीविका का साधन भी नहीं जुटाया है, मैं भिक्षा से ही निर्वाह करता हूँ।
मेरा नाम लोमश है। मेरे सिरपर जो चटाई है, वह वर्षा औरधूपका निवारण करनेके लिये है। मेरे वक्षःस्थलपर जो रोमचक्र तुम्हें दिखायी दे रहा है, वह मेरी आयुकी संख्या का प्रमाण है। जब एक इन्द्र का समय समाप्त होता है, तब मेरे इस रोमचक्र से एक रोम कम हो जाता है। असंख्य ब्रह्मा मेरे देखते-देखते विलीन हो गये हैं और आगे विलीन होंगे। फिर इस छोटी-सी आयु के लिये स्त्री-पुत्र और घरकी क्या आवश्यकता है ? अतः मैंने इन सबका संग्रह नहीं किया। मैं तो निरन्तर श्रीहरि के चरणारविन्दों में ध्यान लगाये रखता हूँ। हे इन्द्र ! हरि का दास्य भाव अत्यन्त दुर्लभ है। भक्ति का गौरव मुक्ति से भी बढ़कर है। सारा ऐश्वर्य स्वप्नके समान मिथ्या है और भगवान्की भक्ति में विघ्न डालनेवाला है।’
देवेन्द्र ! यह भूत, भविष्य का सारा ज्ञान मेरे गुरु भगवान् शंकरने मुझे दिया है और शास्त्रों का उपदेश भी मुझे प्रदान किया है-ऐसा कहकर वे मुनि लोमश भगवान् शंकर के पास चले गये।
लोमशजी की विलक्षण चर्या और विलक्षण स्वरूप तथा उपदेश सुनकर इन्द्र को बड़ा आनन्द हुआ। उनका विवेक जाग्रत् हो उठा, तृष्णा और ऐश्वर्य का मोह छोड़कर वे भगवान्के शरणागत हो गये और उनका ऐश्वर्यसम्बन्धी सारा मद जाता रहा।