श्वेता पुरोहित-
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु- स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ (श्रीमद्भा० माहा० १।२)
महर्षि व्यास आदिनारायण परमात्मा के स्वरूप हैं। श्रीशुकदेवजी महाराज भगवान् शंकरके स्वरूप हैं। भगवान् शंकर ही शुकदेवजी के स्वरूपसे प्रकट हुए हैं।
ऐसा दिखता है कि नारदजी महाराज जहाँ जाते हैं, वहाँ कुछ कलह जगा देते हैं, किंतु नारदजी के कलह में भी जगत्का कल्याण है। अनेक का कल्याण करने के लिये नारद जी कलह जगा देते हैं।
एक बार ऐसा ही हुआ। अनेक जीवों का कल्याण करनेके लिये नारदजीने थोड़ा कलह जगा दिया। कैलासधाममें भगवान् शंकर समाधिमें थे। शंकरभगवान् प्रायः समाधिमें ही रहते हैं। समाधिसे जागते हैं, तब कथा करते हैं। कथाकी समाप्ति हो, तब समाधिमें बैठ जाते हैं। कथा और समाधि – ये दो ही काम शिव करते हैं। तीसरा कोई काम करते ही नहीं हैं। समाधिसे जागनेपर माता पार्वतीजी को
रामकथा-कृष्णकथा सुनाते हैं।
शंकरभगवान् समाधि में थे। माता पार्वतीजी शिवलिंगकी स्थापना करती हैं- शिवजीकी पूजा करती हैं। शिव-स्वरूप दिव्य है। शालग्राम नारायणका निराकार स्वरूप है- शालग्राममें हाथ, पाँव, मुख नहीं हैं। नारायणके निराकार स्वरूपकी भी पूजा होती है और नारायणके साकार स्वरूपकी भी पूजा होती है। शिवलिंग भगवान् शंकरका निराकार स्वरूप है। ‘लिंग’ शब्दका अर्थ है- शिव-स्वरूप !
भगवान् शंकर समाधि में हैं। माता पार्वतीजी ने शिवजी की स्थापना की – शिवजी की पूजा करती हैं। पूजा पूर्ण हुई, उसी समय नारदजी वहाँ आये। माताजीको आनन्द हुआ। उन्होंने शंकरभगवान्को भोग लगाया था, सो शिव-प्रसाद नारदजीको भी दिया। नारदजी प्रसाद खाकर प्रसन्न हुए। नारदजीने विचार किया- यह प्रसाद जो आज मुझे मिला है, ऐसा प्रसाद जगत्के अनेक जीवोंको भी मिले, इसलिये मैं थोड़ा कलह जगा दूँ। प्रसाद स्वीकार करके नारदजीने माता पार्वतीजी की बहुत प्रशंसा की- ‘भगवान् शंकर तो पूर्ण निष्काम हैं। शिवजीने कामदेवको जला दिया है। वे तो पूर्ण निष्काम हैं तो भी आपके साथ उन्होंने लग्न किया है। आप शिव-शक्ति हो।’ माताजीकी नारद प्रशंसा करते हैं। माताजीने कहा- ‘नारद ! तू मेरी प्रशंसा करता है। उनके लिये मैंने कैसी कठिन तपश्चर्या की है, यह मेरा मन ही जानता है। बहुत दिनतक मैं पान (पत्ते) खाती रही, बहुत दिनतक पवनका भक्षण करती रही, बहुत दिनतक मैं जलके ऊपर रही। मैंने बहुत तपश्चर्या की है।’
नारदजीने हाथ जोड़कर कहा- ‘माताजी ! आपकी तपश्चर्या तो बहुत है। ऐसी कोई नहीं कर सकता। आपने इतनी तपश्चर्या की, ठीक है, किंतु मुझे कहना तो नहीं चाहिये- यह पुरुष-स्वभाव ही ऐसा निष्ठुर होता है। स्त्री सर्वरीतिसे भोग देती है तो भी पुरुष थोड़ा कपट तो करता ही है। मुझे कहना तो नहीं चाहिये, पर” क्षमा करें। शंकरभगवान् आपसे भी थोड़ी बातें छिपाते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिये। आपने सर्वस्व अर्पण किया है”।’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, जो मुझसे छिपायी है।’
‘माताजी ! मुझे बोलना ठीक नहीं है। मैं इतना ही कहता हूँ कि उनके गलेमें जो मुण्ड-माला है, वह किसके मस्तककी है- यह आप जानती नहीं हो ! कदाचित्, आप पूछो – तो भी वे बतानेवाले नहीं हैं। जय श्रीमन्नारायण, अब मैं जाता हूँ।’ माताजीको इतना कहा और नारदजी चले गये।
माताजीने विचार किया कि आज समाधिसे जागनेके बाद सर्वप्रथम मैं यही प्रश्न पूछेंगी – किसके मस्तककी माला आप गलेमें रखते हो – नारदजीने मुझसे कहा है कि आप पूछोगी तो भी नहीं बतायेंगे !
भगवान् शंकर समाधिसे जागते हैं- सीताराम, सीताराम, सीताराम बोलते हैं। माता पार्वतीजी शिवजीको अतिशय प्रिय हैं। इसका एक कारण है, वेदोंमें ऐसा वर्णन है कि पार्वती माता ब्रह्मविद्या हैं। शिव ब्रह्मरूप हैं। ब्रह्म, ब्रह्मविद्याके अधीन रहता है। भगवान् शंकरको समाधिमें जो आनन्द मिलता है, जागनेके बाद माता पार्वती शिवजीको वही आनन्द देती हैं। माता पार्वतीजी ऐसा प्रश्न पूछती हैं कि शंकरभगवान्को कथा कहनी पड़ती है। कथामें जगत्की विस्मृति हो जाती है। समाधिमें भी जगत्की विस्मृति होती है। जो आनन्द शिवजीको समाधिमें मिलता है, जागनेपर वही आनन्द माता पार्वतीजी उनको देती हैं। भगवान् शंकरको इसीलिये माता पार्वती अतिशय प्रिय लगती हैं।
पार्वतीमाताने कहा- ‘महाराज ! आज आपसे कुछ पूछना है।’
शिवजीने विचार किया कि मेरे रामकी कुछ कथा पूछेंगी या मेरे श्रीकृष्णकी लीलाका कोई प्रश्न करेंगी।
पार्वतीमाताने पूछा- ‘आपके गलेमें जो मुण्ड-माला है, वह किसके मस्तककी है ? – यह मुझे बताओ।’
शिवजीने कहा- ‘यह क्या पूछती हो -कुछ और पूछो – मैं राम-कथा कहूँ या कृष्ण कथा कहूँ ?’
माताजीने विचार किया कि नारद कहते थे, वह बात झूठी नहीं है। इन्हें कहनेकी इच्छा नहीं है। कहते हैं कि राम-कथा कहूँ या कृष्ण- कथा कहूँ। वे बोलीं-मुझे आज रामजीकी कथा सुननी नहीं है, कृष्ण-कथा भी सुननी नहीं है। आपके गलेमें जो मुण्ड-माला है, वह किसके मस्तककी है- यही बताओ। दूसरा कुछ सुनना नहीं है।’
शंकरभगवान्को आश्चर्य हुआ ! आजतक कभी ऐसा प्रश्न पूछा नहीं। आज इसको कोई गुरु मिला है-ऐसा लगता है। शिवजीने स्मित हास्य किया और कहा- ‘देवि, ये सब बातें कहूँगा तो तुम्हें दुःख होगा।’
माताजीने कहा- ‘भले ही दुःख हो, किंतु मुझे यही जानना है। आप किसके मस्तक की माला गले में रखते हो ?’
शंकरभगवान् पार्वती जी के हठ को देखते हुए कथा कहना प्रारम्भ करते हैं। भगवान् शंकर कहते हैं, ‘हे पार्वती ! कथामें समाधि लगती है, समाधि का आनन्द आता है। जिसका मन बिगड़ा हुआ है, जिसका मन मलिन है, उसको कथामें आलस्य आता है, कथामें मन चंचल होता है। जिसका मन शुद्ध है, उसको कथामें परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। यह कथा ऐसी है कि कदाचित् तुमको समाधि लग जाय तो मैं आँख बन्द करके कथा कहता हूँ। तुम ऐसा करना कि दो-चार मिनट होनेपर कथाके बीचमें- हूँ हूँ” ऐसा बोलना। ‘हुँकार’ देनेसे मैं ये समझेंगा कि समाधि नहीं लगी है।’ माता पार्वतीने कहा – ‘आपकी ऐसी इच्छा है तो मैं ऐसा ही करूँगी। दो-तीन मिनटके बादमें हूँ” हूँ” बोलती रहूँगी।’
शिवजी महाराज आँखें बन्द करके कथा कहते हैं- ‘श्रीकृष्ण बाँसुरीसे सभी जीवोंको बुलाते हैं। गोपियोंको भी बुलाते हैं। यह जीव मेरा अंश है। मेरा अंश मेरेसे अलग हुआ है। आज भी भगवान् बाँसुरी बजाते हैं। बाँसुरी बजा करके जीवको बुलाते हैं- मेरे पास आओ, मेरे पास आओ। मैं आनन्द दूँगा। आनन्द संसारमें नहीं है। आनन्द किसी स्त्रीके पास नहीं है, आनन्द किसी पुरुषके पास नहीं है। आनन्द तो भगवान् जीवको देते हैं। मेरा जीव मुझसे अलग हुआ है, वह मेरे पास आये। आज भी बाँसुरी बजाते हैं। भगवान्ने ऐसी मधुर बाँसुरी बजायी – गोपियाँ दौड़ती हुई जाती हैं।’
भगवान् शंकरने ऐसा वर्णन किया कि कथामें माताजीको हृदयमें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ- समाधि लग गयी। शिवजीने कहा था कि दो-चार मिनट हो तो हुँकार देना। समाधि लगनेके बाद कौन हुंकार दे, रासलीलाका वर्णन शंकरभगवान् करते हैं- ‘ये स्त्री-पुरुषके मिलनकी कथा नहीं है। शुद्ध ईश्वर-जीवके मिलनका वर्णन है।’ शिवजी महाराजने ऐसी मधुर कथा कही कि पार्वतीजीको समाधि लग गयी। हृदयमें परमात्माका दर्शन हुआ है। आनन्दमें परमात्माके साथ एक हो गयी हैं। अब हुंकार कौन भरे- भगवान्की लीला है।
वट-वृक्षकी छायामें, एकान्तमें शंकर- भगवान् माता पार्वतीजीको यह कथा सुनाते थे। उस समय एक पोपट (तोता) वहाँ मौजूद था, सभीको बाहर निकाला था, पोपट वहाँ रह गया था। वह पोपट सुनता था। शिवजीके मुखसे उसने कथा सुनी। वह कथा सुननेसे उसको ज्ञान हो गया। भगवान् शंकर कथा कहते थे। उसने देखा – माता पार्वतीजी तो समाधिमें हैं। आगेकी अभी बहुत लीला बाकी है। द्वारका-लीला बाकी है, एकादश स्कन्धकी ज्ञान-लीला बाकी है। हुंकार फूटती नहीं है। कदाचित्, शिवजी आँख खोलें और शिवजीको खबर पड़े कि पार्वतीजीकी तो समाधि लगी है तो वे आगेकी कथा नहीं कहेंगे। पोपटको ज्ञान हुआ था, सो पोपटने माता पार्वतीजीके जैसा शब्द किया। हूँ” हूँ” हुँकार भरने लगा।
शंकरभगवान्को खबर नहीं है- कौन कथा सुन रहा है-माताजीको तो समाधि लगी है। शिवजीने ऐसा दिव्य वर्णन किया। पोपट कथा सुनता था। दशम स्कन्धकी कथा परिपूर्ण हुई, एकादश स्कन्ध परिपूर्ण हुआ, द्वादश स्कन्धकी समाप्ति हुई। समाप्तिमें शिवजीने भगवान्का जय-जयकार किया और आँख खोलते हैं- माताजी तो समाधिमें हैं। ‘देवि! देवि !!’- कौन सुनता है! समाधि लगी है।
शिवजीको आश्चर्य हुआ है कि कब इसको समाधि लगी – मुझे कुछ खबर ही नहीं पड़ी। ये समाधिमें हैं तो हुँकार कौन बोलता है-शिवजी देखने लगे- वट वृक्षके पेड़के ऊपर एक पोपट बैठा था। शिवजीकी कृपासे शिवजीके मुखसे निकली हुई दिव्य कथा सुनकर वह ज्ञानी हो गया था। आनन्दमें मस्त हो गया था।
इसने कथा सुनी है! फिर शिवजीको थोड़ा ठीक नहीं लगा। वे पोपटको मारनेके लिये दौड़े। आजतक मैंने किसीको भी यह अमरकथा नहीं सुनायी। पार्वतीजी तो समाधिमें हैं। वह पोपट वहाँसे उड़ता है, घबराया है। कैलासके पास ही व्यासनारायणका दिव्य आश्रम है। महर्षि व्यासने भागवतकी रचना की है। भागवतकी रचना करनेके बाद व्यासजी चिन्तामें हैं कि मेरी भागवतकी कथा कौन करेगा-बड़े-बड़े ऋषि व्यासजीके शिष्य हैं-
माँगते हैं। किसी को ऋग्वेद दिया, किसी को यजुर्वेद दिया, किसीको महाभारत दिया – भागवत नहीं दी। भागवत प्रेम-शास्त्र है। ये मेरा सर्वस्व है। जो परमात्माके साथ ही प्रेम करता है, वही भागवतकी कथा बराबर कर सकता है। जो जगत्के जड़ पदार्थोंके साथ प्रेम करता है, वह भागवतकी कथा क्या करेगा ? किसीको भागवत देनेकी इच्छा नहीं होती है।
व्यासकी पत्नीका नाम है- अरणीदेवी। वृद्धावस्थामें ऐसी इच्छा हुई कि शंकरभगवान् मेरे पुत्र हों। मैं भागवत उनको दे दूँगा। वे भागवतकी कथा करेंगे। ये मेरा सर्वस्व है। इसके लायक तो भगवान् शंकर हैं। श्रीकृष्ण ही शिवजीका धन हैं। शंकरभगवान् मेरे पुत्र हों- ऐसी इच्छासे महर्षि व्यास अरणीदेवीके साथ पंचाक्षर शिव-मन्त्रका जप करते हैं। शिवजी जगत्में ज्यादा नहीं आते हैं। शिवजीका अवतार नहीं होता है। शिवजीको जगत्में आनेकी इच्छा नहीं होती। प्रकृतिसे दूर रहते हैं। जगत्में कौन आये – संसार मायामय है।
प्रायः भगवान् शंकर गाँवके बाहर श्मशानमें विराजते हैं। शिवजीका ऐसा स्वभाव है कि जगत्को जिसकी जरूरत है, उसका वे त्याग कर देते हैं। जगत् जिसका त्याग करता है- शिव उसको अपनाते हैं। घरमें एक गुलाबका फूल हो और अनेक देव हों तो मनमें शंका हो जाती है कि यह गणपतिजी को अर्पित करूँ या हनुमान्जी को अर्पित करूँ – गुलाबका फूल एक है। शंकरभगवान् कहते हैं – मुझे गुलाबका फूल अच्छा लगता ही नहीं, मुझे धतूरेका फूल बड़ा अच्छा लगता है। गुलाबके लिये कोई झगड़ा भले करे, धतूरेके लिये कोई झगड़ा करता है? जिसका जगत् त्याग करता है, शिवजी उसको अपनाते हैं। शिव प्रवृत्तिसे दूर रहते हैं। उनको जगत्में आनेकी इच्छा ही नहीं होती।
भगवान् शंकर मेरे पुत्र हों, वृद्धावस्थामें व्यासजीको ऐसी इच्छा हुई है। जवानीमें कभी पुत्रैषणा जागी नहीं। तपश्चर्या बहुत करते थे। वृद्धावस्थामें भागवतकी रचना करनेके बाद पुत्रैषणा जागी है। मेरी भागवतकी कथा कौन करेगा ? भगवान् शंकर कथा करें तो अनेक जीवोंका कल्याण होगा। व्यासनारायण अरणीदेवीके साथ पंचाक्षर शिव-मन्त्रका जप करते हैं- शिवजी मेरे यहाँ पुत्र-रूपमें आयें। वह पोपट जो वहाँसे उड़ा है- वह दौड़ता हुआ व्यासमहर्षिके आश्रममें आया है। शिवजी उसके पीछे पड़े हैं। वह दौड़ता हुआ जो गया, सो वह अरणीदेवीकी गोदमें आया। शिवजी दौड़ते हुए आये हैं। व्यासजी खड़े हो गये- शंकरभगवान् आये हैं। व्यासजीने सुन्दर आसन दिया है। भगवान् शंकरकी पूजा करते हैं। ‘क्यों दौड़ते हुए आये हो ?’ शिवजीने कहा- ‘क्या कहूँ, मेरे घरमें बड़ी चोरी हो गयी है।’ व्यासजी बोले- ‘आपके घरमें चोरी हो गयी आपके घरमें कोई चोर आये तो उसको निर्जल एकादशी ही करनी पड़े। आप किसी वस्तुका संग्रह करते ही नहीं। वेदोंमें तो आपका बहुत वर्णन है।’
शिव विश्वनाथ हैं। सभीके पति हैं तो चोरके पति भी शिव हैं- स्तेनानाम्पतये नमः। (यजु० १६। २०) चोरके अधिपति भी शिव हैं। सभीके मालिक शिव हैं। ‘आपके यहाँ कौन चोर आये और आये तो उसको निर्जल एकादशी ही करनी पड़े। आप किसी भी वस्तुका संग्रह नहीं करते। आपके यहाँ किसकी चोरी हुई?’ शिवजीने कहा- ‘अमरकथा आजतक मैंने किसीको नहीं दी थी। वह अमरकथा मैंने पार्वतीको सुनायी। उसे तो समाधि लग गयी,
उसको तो कथाका फल मिल गया, किंतु एक पोपटने वह कथा सुनी है। वह पोपट आपके आश्रममें दौड़ता हुआ आया है।’
व्यासजीने कहा- ‘महाराज, अमरकथाका फल क्या है?’ शिवजीने कहा- ‘जो अमरकथा सुनता है, वह अमर हो जाता है।’ व्यासजीने कहा- ‘महाराज, आपके मुखसे जिसने अमरकथा सुनी, उसको तो मुझे ऐसा लगता है, आप भी नहीं मार सकते। वह अमर हो गया है। आपके मुखसे उसने कथा सुनी है। उसको आप कैसे मार सकते हैं? आपने एकान्तमें माता पार्वतीजीको जो अमरकथा सुनायी, वही कथा मैंने भागवतमें लिखी है। कृपा करो। मेरी भागवतकी कथा करनेके लिये मेरे यहाँ अवतार धारण करो। अनेक जीवोंका कल्याण होगा।’
शिवजीने कहा- ‘संसारमें कौन आये – संसार तो कोयलेकी खान है। संसारमें जो आता है, उसको माया नहीं छोड़ती है।’
‘महाराज! माया आपका क्या कर सकती है- आपके मस्तकमें गंगाजी हैं। आपको माया क्या करेगी- आपको जो समाधिमें आनन्द मिलता है, वही आनन्द जगत्को देना चाहिये। अकेला खाये, सो ठीक नहीं है। आप दूसरेको आनन्द दोगे तो आपका क्या कम होनेवाला है- माया आपका क्या कर सकती है?’
व्यासजीने बहुत आग्रह किया – ‘मेरी भागवतकी कथा करनेके लिये मेरे यहाँ पुत्ररूपसे प्रकट होइए। बहुत दिनसे मैं पंचाक्षर शिव-मन्त्रका जप करता हूँ। कृपा करें।’
शिवजीको दया आयी है। शिवजीने देखा- अरणीदेवीकी गोदमें वही पोपट है, जिसने मेरे मुखसे अमरकथा सुनी है। शिवजीने केवल नजर की है। केवल दृष्टि देनेसे पेटमें गर्भ रहा है। अरणीदेवीके पेटमें शुकदेवजी महाराज श्रीकृष्णका सतत ध्यान करते हैं।
सतत श्रीकृष्णका ध्यान करनेसे उनका श्रीअंग श्रीकृष्णके जैसा श्याम हो गया। आप जिसका चिन्तन करते हैं, वैसा स्वरूप आपको मिलता है। बहुत दिनतक माँके पेटमें रहे। व्यासजीने कहा है-‘बेटा, अब तेरी माँको त्रास होता है, बाहर आ जाओ।’ शुकदेवजीने कहा- ‘बाहर आनेपर कदाचित् माया मुझे स्पर्श करे तो – माँके पेटमें मैं श्रीकृष्णका ध्यान करता हूँ। संसार मायामय है।’
व्यासजीने कहा- ‘बेटा, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, तुम्हें मायाका स्पर्श नहीं होगा।’ शुकदेवजीने कहा – ‘मुझे डर लगता है, आप मुझे बेटा-बेटा कहते हो, आपके मनमें भी थोड़ी माया है – ऐसा लगता है। आप मायामें फँसे हुए हो। मुझे प्रेमसे ‘बेटा-बेटा’ कहते हो। जो कभी माया के अधीन हुआ न हो, वह मुझे आशीर्वाद दे, वह तो वरदान है। नहीं तो मैं बाहर नहीं आऊँगा।’
भगवान् श्रीकृष्णका नाम है – माधवराय ! ‘मा’ शब्दका अर्थ होता है- माया और ‘धव’ शब्दका अर्थ होता है- ‘पति’। श्रीकृष्ण कभी मायाके अधीन हुए नहीं हैं। वे ‘माधवराय’ हैं। भगवान् श्रीकृष्णने शुकदेवजीको वरदान दिया है- ‘कभी मायाका स्पर्श नहीं होगा।’
शेष कथा अगले भाग में…
महादेव की जय 🙏🔱🚩
व्यासनंदन शुकदेवजी की जय 🙏
व्यास देव की जय 🙏