श्वेता पुरोहित-
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने।
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥
आनन्द कन्द वृन्दावन-चन्द्र भगवान् श्रीकृष्ण का पवित्र चरित्र सब भावों से परिपूर्ण है। जिस दृष्टि से उसे देखा जाय उसी से वह पूरा दीखता है, जिस कसौटी पर उसे कसा जाय वह पूरा उतरता है। वह वृन्दावन-विहारी मुरलीधारी वनवारी किस रस का आश्रय नहीं है, किस भावका पात्र नहीं है? वह स्नेहमूर्ति कन्हैया प्रेमका अगाध समुद्र है, सख्य का अनन्त सागर है। आज हम अपने प्रेमी पाठकों के सामने उसकी एक सुन्दर लीलाकी थोड़ी-सी झाँकी कराना चाहते हैं।
भगवान्की अनन्त लीलाओं में सुदामा का प्रसङ्ग भी अपनी एक विचित्र मोहकता धारण किये हुए है। पुराने सहपाठी सुदामा को दरिद्र-दीन दशा में देख भगवान्के हृदय में करुण रस का जो प्रवाह उमड़ पड़ा, दयाका जो दरिया बहने लगा, भगवान् कृष्णचन्द्र के रहस्यमय चरित्र में वह भक्तों के लिये परम पावन वस्तु है-दुखी आत्माओं को शान्ति देनेवाली यह एक अति अनुपम कथा है।
🪷 सुदामा की कथा 🪷
सुदामा एक अत्यन्त दीन ब्राह्मण थे। बालक पन में उसी गुरु के पास विद्याध्ययन करने गये थे जहाँ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अपने जेठे भाई बलरामजी के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिये गये थे। वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र के साथ इनका खूब सङ्ग रहा। इन्होंने गुरुजी की बड़ी सेवा की। गुरुपत्नी की आज्ञा से एक बार सुदामा कृष्णचन्द्र के साथ जंगल से लकड़ी लाने गये। जंगल में जाना था कि आँधी- पानी आ गया। अन्धकार इतना सघन छा गया कि अपना हाथ अपनी आँखों नहीं दीखता था। रातभर ये लोग उस अन्धेरी रातमें वन-वन भटकते रहे परन्तु रास्ता मिला ही नहीं। प्रातः काल सदयहृदय सान्दीपनि गुरु इन्हें खोजते जंगल में आये और घर लिवा ले गये।
गुरुगृह से आनेपर सुदामा ने एक सती ब्राह्मण- कन्या से विवाह किया। सुदामा की पत्नी थी बड़ी पतिव्रता अनुपम साध्वी। उसे किसी बात का कष्ट न था, चिन्ता न थी, यदि थी तो केवल अपने पतिदेव की दरिद्रता की। वह जानती थी भगवान् श्रीकृष्ण उसके पति के प्राचीन सखा हैं – गुरुकुल के सहाध्यायी हैं। वह सुदामाजी को इसकी समय-समय पर चेतावनी भी दिया करती थी, परन्तु सुदामाजी इसे तनिक भी कान नहीं करते-कभी ध्यान नहीं देते थे।
एक बार उस पतिव्रता ने सुदामाजी से बड़ा आग्रह किया कि आप द्वारकाजी में श्रीकृष्णजी से मिलिये, उन्हें अपना दुःख सुनाइये। भगवान् दयासागर हैं, हमारा दुःख अवश्य दूर करेंगे। जरा हमारी इस दीन-हीन दशा की खबर अपने प्यारे सखा कृष्णको तो देना-
‘या घरते न गयो कबहूँ पिय टूटो तवा अरु फूटी कठौती’। सुदामाजी केवल भाग्य को भरपेट कोसा करते थे – केवल कहा करते थे कि –
पावैं कहाँ ते अटारी अटा
जिनको है लिखी बिधि टूटिय छानी।
जो पै दरिद्र ललाट लिखो
कहु को त्यहि मेटि सकैगो अयानी ॥
परन्तु इस बार उस साध्वी के सच्चे हृदय से निकली प्रार्थना काम कर गयी। सुदामा जी द्वारकाधीश के पास जाने के लिये तैयार हो गये। उपायन के तौरपर इधर- उधर से माँगकर पत्नी ने चावल की पोटली पतिदेव के हवाले की। सुदामाजी पोटली को बगल में दबाये द्वारका के लिये रवाना हुए परन्तु बड़े अचम्भे की बात यह हुई कि जो द्वारका सुदामा की कुटिया से कोसों दूर थी वह सामने दीखने लगी- उसके सुवर्ण-जटित प्रासाद आँखों को चकाचौंध करने लगे। झटसे सुदामाजी द्वारका पहुँच गये।
पूछते-पूछते भगवान्के द्वार पहुँचे। द्वारपाल को अपना परिचय दिया। भगवान्के दरबारमें भला दीन- दुखी को कौन रोक सकता है ? द्वारपाल झटसे श्रीकृष्ण के पास सुदामाजी के आगमन की सूचना नरोत्तमदासजी के शब्दों में यों देने गया
शीश पगा न अँगा तनमें
प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी अरु
पाँय उपानहुकी नहिं सामा ॥
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
रहो चकि सो वसुधा अभिरामा।
पूँछत दीनदयालको धाम
बतावत आपनो नाम सुदामा ॥
भगवान्ने अपने पुराने मित्र को पहचान लिया। वे स्वयं आकर महलमें लिवा ले गये। रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया, अपने हाथों से उनका पाँव पखारा, प्राचीन विद्यार्थी-जीवन की स्मृति दिलायी और भक्ति के साथ लाये हुए भाभीके द्वारा अर्पित चावलोंकी एक मुट्ठी अपने मुँहमें डाली, दूसरी मुट्ठीके समय रुक्मिणी ने उन्हें रोक दिया। सुदामा भगवान्के महलमें कई दिनोंतक सुखपूर्वक रहे; श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेमसे उन्हें विदा किया। सुदामा रास्ते में चले जाते थे और मन-ही-मन कृष्ण की बद्धमुष्ठिता पर खीझते थे। जब अपने घर पहुँचे तो उन्हें अपनी टूटी मढैया नहीं दीख पड़ी। उसके स्थानपर एक विशालकाय प्रासाद खड़ा पाया। पत्नी ने पति को पहचाना। जब वे महल के भीतर गये तब अपना ऐश्वर्य देख मुग्ध हो गये और भगवान्की दानशीलता और भक्तवत्सलता का अवलोकन कर वह अवाक् हो रहे। बहुत दिनों तक अपनी साध्वी पत्नी के साथ सुखपूर्वक दिन बिता अन्तमें भगवान्के चिरन्तन सुखमय लोक में चले गये।
सुदामा की भक्त-मनोहारिणी कथा संक्षेप में यही है जो ऊपर दी गयी है। भगवान्की दयालुता का यह परम सुन्दर निदर्शन है। यह कथा वास्तव में सच्ची है। साथ- ही साथ यह एक आध्यात्मिक रहस्य की ओर संकेत कर रही है जो विचारशील पाठकों के ध्यान में थोड़े-से मननसे स्वयं आ सकता है।
🪷 आध्यात्मिक रहस्य 🪷
अब पाठक जरा विचारिये कि यह सुदामा कौन हैं? उनकी पत्नी कौन हैं? वे तन्दुल कौन-से हैं? इत्यादि । यदि अन्तःप्रविष्ट होकर देखा जाय तो सुदामा की कथा में एक आध्यात्मिक रूपक है- भक्त और भगवान्के परस्पर मिलन की एक मधुर कहानी है। इसी रहस्य का किञ्चित् उद्घाटन थोड़े में किया जायगा।
‘दामन्’ शब्द का अर्थ है- रस्सी, बाँधने की रस्सी । यशोदा मैया के द्वारा बाँधे जाने के कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम है- दामोदर। इस प्रकार ‘सुदामा’ शब्द का अर्थ हुआ रस्सियों के द्वारा अच्छी तरह बाँधा गया पुरुष अर्थात् बद्धजीव, जो सांसारिक मायापाश में आकर ऐसा बंध गया है कि उसे अन्य किसी भी वस्तुकी चिन्ता ही नहीं।
सुदामा सान्दीपनि-मुनि के पास कृष्ण का सहाध्यायी है। जीव भी आत्मतत्त्व को प्रकाशित करनेवाले ज्ञानके सङ्ग होनेपर उस जगदाधार परब्रह्मका चिरन्तन मित्र है- सखा है। ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया।’ ज्ञान का आश्रय जब तक जीव को है, तबतक वह अपने असली रूपमें है, वह श्रीकृष्ण का – परब्रह्मका – सखा बना हुआ है, परन्तु ज्यों ही दोनों का गुरुकुलवास छूट जाता है-वियोग हो जाता है, जीव संसारी बन जाता है, वह माया के बन्धन में आकर सुदामा बन जाता है। वह अपने सखा को बिलकुल भूल जाता है। सुदामा की पत्नी बड़ी साध्वी है- जीव भी सात्त्वि की बुद्धि के संग चिरसुखी रहता है। सात्त्वि की बुद्धि जीव को बारम्बार उसके सच्चे मित्र की स्मृति दिलाया करती है। जीव संसार में पड़कर सब को – अपने सच्चे रूपको – भूल ही जाया करता है, केवल सत्त्वमयी बुद्धिका जब-जब विकास हुआ करता है, वह जीव को अपने प्राचीन स्थान की ओर लौट जानेके लिये – उस चिरन्तन मित्र परब्रह्मकी सन्निधि पाकर अपने समस्त बन्धनों को छुड़ा देनेके लिये – बारम्बार याद दिलाया करती है। सुदामाजी सदा अपने कुटिल भाग्य को कोसा करते थे। जीव भी भाग्य को उलाहना देकर किसी प्रकार अपने को सन्तुष्ट किया करता है।
आखिर सुदामाजी पत्नी के द्वारा संगृहीत चावल को लेकर द्वारका चले। चावल सफेद हुआ करता है। चावल से अभिप्राय यहाँ पुण्य से है। पुण्य का सञ्चय भी सात्त्विकी बुद्धि किया करती है। जीव जब जगदीश से मिलने के लिये जाता है तब उसे चाहिये उपायन। उपायन भी किसका ? सुकर्मों का – पुण्यका । सुकर्म ही सुदामाजी के तण्डुल हैं। जीव जबतक उदासीन बैठा हुआ है – अकर्मण्य बना हुआ है, उस जगदीश की द्वारका काले कोसों दूर है, परन्तु ज्यों ही वह पुण्य की पोटली बगल में दबाये सुबुद्धि की प्रेरणा से सच्चे भाव से उसकी खोज में चलता है वह द्वारका सामने दीखने लगती है। भला वह भगवान् दूर थोड़े ही हैं? दूर हैं वह अवश्य, यदि भक्त में सच्ची लगन न हो; परन्तु यदि हम सच्चे स्नेह से अपने अन्तरात्मा को शुद्ध बनाकर उसकी खोजमें निकलते हैं तो वह क्या दूर हैं? गरदन झुकाई नहीं कि वह दीखने लगे। बाबा तुलसीदास जी भी कह गये हैं-
सनमुख होय जीव मोहि जबहीं।
कोटि जन्म अघ नासौं तबहीं ॥
जो मनुष्य किसी वस्तु से विमुख है, समीप में होनेपर भी वह चीज दूर है, परन्तु सम्मुख होते ही वह वस्तु सामने झलकने लगती है। भक्तजन को चाहिये कि सुकर्मों की पोटली लेकर भगवान्के सम्मुख हों, भगवान् दूर नहीं हैं। सुदामा जी द्वारका में पहुँच गये, द्वारपाल से कहला भिजवाया, श्रीकृष्ण स्वयं पुरानी पहचान याद कर दौड़े हुए आये। जीव तो भगवदंश ही है, वह तो उसके साथ सदा विहार करनेवाला है। उसके अन्तर्मुख होते ही भगवान् स्वयं उसे लिवा ले जाते हैं। हिन्दी-कवियोंने लिखा है सुदामाकी दीन-दशा देख श्रीकृष्ण बहुत रोये- मनों आँसू बहाया। ‘देखि सुदामाकी दीन दशा करुणा करिके करुणानिधि रोये। ‘परन्तु भागवतमें लिखा है-
सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरङ्गसङ्गातिनिर्वृतः ।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुस्करेक्षणः ।।
अपने प्यारे सखा को इतने दिनों के बाद मिलने से श्रीकृष्ण अत्यन्त आह्लादित हुए- सुदामाजी के अंगस्पर्श से भगवान् आनन्दमग्न हो गये; उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। जिस प्रकार भगवान्को पाकर भक्तजन परम निर्वृतिको पाते हैं, उसी प्रकार भक्तके सङ्गसे भी उस आनन्दमय जगदीश के हृदय में आनन्द की लहरी उठने लगती है। क्या भक्त और भगवान् भिन्न-भिन्न हैं? ‘तस्मिन् तज्जने भेदाभावात्’ (नारदसूत्र)
सुदामाजी से श्रीकृष्ण पूछते हैं – कुछ उपायन लाये हो? भक्तजनों के द्वारा अर्पित की गयी थोड़ी भी चीज को भगवान् बहुत बड़ी समझते हैं-
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तंदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।।
सुदामाजी लज्जित होते हैं कि श्रीपति को भला इन चावलों को क्या दूँ? परन्तु भगवान् लज्जाशील सुदामा की काँख से पोटली निकाल चावल खाने लगते हैं। जीव भी बड़ा लज्जित होता है कि उस जगदीश के सामने अपने सुकर्मों को क्या दिखलाऊँ, परन्तु भगवच्चरण में अर्पित थोड़ा भी कर्म बड़ा महत्त्व रखता है। भगवान् उसके कियदंश से ही भक्तजन के मनोरथ परिपूर्ण करने में समर्थ हैं- सर्वस्व को स्वीकार कर समग्र त्रैलोक्य का आधिपत्य- स्वीयपद भी देनेके लिये तैयार हो जाते हैं, परन्तु श्री- भगवान्की ऐश्वर्यशक्ति – ऐसा करने नहीं देती। अस्तु, सुदामाको चाहिये क्या? वह तो इतनी प्रसन्नतासे कृतकृत्य हो गया और उसने भगवल्लोक को प्राप्त कर लिया। भक्तको भी चाहिये क्या ? भगवान्की सन्निधि में आकर अपने सञ्चित कर्मों को- ‘पत्रं पुष्पम्’ को-उसे अर्पण कर दिया। सुदामा की भाँति जीव कुछ देरतक संशय में रहता है कि अर्पित वस्तु का स्वीकार जगदीश ने किया या नहीं, परन्तु जब जीव अपनी कुटिया- भौतिक शरीर को देखता है, तब उसे सर्वत्र चमकती हुई पाता है, जन्म-जन्म की मलिनता धुल जाती है, वह पवित्र भवन बन जाता है, जिसमें वह अपनी सुबुद्धि के साथ निवास करता हुआ विषयों से विरक्त रह परम सौख्यका अनुभव करता है। भगवान्की अनुकम्पा का फल देरसे थोड़े मिलता है। भक्तजन इसी शरीर में उसका साक्षात् अनुभव करते हैं।
प्रेमीजन ! हम सबको सुदामा बनना चाहिये। हम अपने-अपने तण्डुल लेकर भगवान्के सामने चलें, वह करुणावरुणालय उसे अवश्य स्वीकार करेंगे, हमारा दुःख दूर कर देंगे, मायापाश से हमें अवश्य छुड़ा देंगे, परन्तु हम यदि सच्चे भाव से अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को उसी की सेवा में लगा दें। भागवत के इन पद्यरत्नों को स्मरण कीजिये-
सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।
स्मरेद् वसन्तं स्थिरजङ्गमेषु
शृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥
शिरस्तु तस्योभयलिङ्गमानमेत्
तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।
अङ्गानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥