विपुल रेगे। विवेक अग्निहोत्री की द कश्मीर फाइल्स और स्टीवन स्पीलबर्ग की द शिंडलर्स लिस्ट ने समान रुप से जन चेतना जगाई है। इन फिल्मों ने न केवल सरकारों को सोचने पर विवश किया, बल्कि आम नागरिकों के बीच इस मुद्दे को लेकर स्वस्थ विमर्श को भी जन्म दिया है। हालाँकि दोनों फिल्मों को लेकर जन्मे दृष्टिकोण में बड़ा अंतर दिखाई देता है। कश्मीर फाइल्स को लेकर बहुत से लोगों का दृष्टिकोण नकारात्मक सा है जबकि शिंडलर्स लिस्ट के प्रदर्शित होने के बाद हिटलर के अत्याचारों की कस कर बाँधी गई फाइल पुनः खुल गई थी।
कश्मीर फाइल्स को प्रदर्शित हुए दो सप्ताह से अधिक हो चुका है। इस पखवाड़े में सिनेमा को लेकर दर्शकों की समझ भी परिपक्व होती दिखी। कश्मीरी पंडितों के जनसंहार को लेकर देश के नागरिकों में एक स्वस्थ चर्चा शुरु हुई। फिल्म ने राजनीतिक गलियारों की तपन भी बढ़ाई। शाम को होने वाली टीवी बहसों की आक्रामकता भी बढ़ती दिखाई दी। विभिन्न दलों के प्रवक्ता एक फिल्म को लेकर आपस में गुत्थमगुत्था हुए जा रहे हैं।
कश्मीर के नेता तो सीधे ही फिल्म की कथावस्तु को झूठा सिद्ध करने में लगे हुए हैं। नब्बे का इतिहास खोदकर निकाला जा रहा है। बहस इस बात पर भी है कि उस वक्त केंद्र में किसकी सरकार थी और तत्कालीन राज्यपाल किस पार्टी से संबंध रखते थे। नब्बे के दशक का सत्य विवादित बनाया जा रहा है। जबकि इसके विपरीत हम द शिंडलर्स लिस्ट देखे तो दृष्टिकोण भारत से सर्वथा विपरीत दिखलाई पड़ता है।
द शिंडलर्स लिस्ट एक नाज़ी उद्योगपति ऑस्कर शिंडलर की कथा पर बनाई गई थी। ऑस्कर ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय एक हज़ार से अधिक पोलिश-यहूदी शरणार्थियों को जनसंहार से बचाया था। इसके लिए उन्होंने अपनी संपत्ति तक बेच दी थी। उन्होंने हर व्यक्ति के लिए जर्मन सेना को एक तयशुदा रकम दी थी। इस कहानी पर स्टीवन स्पीलबर्ग ने अपने कॅरियर की सबसे महान फिल्म का निर्माण किया था।
जब ये फिल्म प्रदर्शित हुई तो जैसे पुराने जख्मों के कांटें उधड़ गए। जनसंहार को लेकर व्यापक पैमाने पर वैश्विक विमर्श शुरु हुआ। ये आवश्यकता महसूस की गई कि जनसंहार को लेकर विश्व को शिक्षित करना होगा। इस फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद दुनिया के कोने-कोने से वे लोग सामने आने लगे, जो युद्ध की विभीषिका का शिकार हुए थे या हिटलर के जनसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे।
जैसे कोई बांध टूट गया और पीड़ाओं के स्वर दूर-दूर से आकर समाहित होने लगे थे। इस फिल्म ने द्वितीय विश्व युद्ध और हिटलर की क्रूरता को अतीत की गहराइयों से निकालकर वर्तमान के माथे पर धर दिया था। स्वयं स्पीलबर्ग का जीवन इस फिल्म को बनाने के बाद बदल गया था। उन्होंने फिल्म बनाने से पूर्व उन लोगों और उनके वंशजों के इंटरव्यू लिए थे, जो ऑस्कर शिंडलर की मानवता के कारण बच सके थे।
स्पीलबर्ग ने एक USC Shoah Foundation की स्थापना की। ये एक गैर लाभकारी संस्था है। इसमें उन पचपन हज़ार लोगों के इंटरव्यू हैं, जिन्होंने जनसंहार की विभीषिका को सहा था। Shoah शब्द सन 1941 के बाद अविष्कृत हुआ था। इसका अर्थ भी जनसंहार ही होता है। यहाँ इसका अर्थ उस नृशंस हत्याकांड से है, जो सन 1941 से लेकर 1945 तक लगातार चलता रहा।
यही नहीं फिल्म की कथावस्तु की वास्तविकता को लेकर तार्किक समीक्षाएं की गई थी। शिंडलर्स लिस्ट से उपजे वैश्विक प्रभाव की तुलना द कश्मीर फाइल्स से करने पर हम पाते हैं कि भारत में इसे लेकर एक वर्ग विमर्श में बेईमानी दिखा रहा है। सबसे पहले तो कश्मीरी पंडितों के जनसंहार को राजनीतिक प्रेरित दिखाने का प्रयास हुआ है। उसके बाद फिल्म निर्देशक पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने पैसा कमाने के लिए ये फिल्म बनाई।
फिर केंद्र सरकार पर ये दोष मढ़ा गया कि वह चुनावी लाभ के लिए फिल्म का प्रदर्शन होने दे रही है। वहां शिंडलर्स लिस्ट प्रदर्शित होने के बाद कितना कुछ किया गया। जनसंहार को लेकर विश्व को शिक्षा देने की बात की गई। पीड़ितों के साक्षात्कारों को सुरक्षित रखने के लिए एक फाउंडेशन स्थापित किया गया। और भारत में कश्मीर फाइल्स के साथ क्या हो रहा है, सब देख रहे हैं।
कश्मीर फाइल्स प्रदर्शित होने के बाद कश्मीरी पंडितों का दर्द भारत की पीड़ा बनकर उभरा है। दो सप्ताह बाद भी फिल्म देखी जा रही है। फिल्म को लेकर सभी दल आपस में लड़ रहे हैं। कश्मीरी पंडितों को दर्दनाक मौत दी गई और उन्हें उनके घर से निकाल बाहर किया गया, ये सत्य भी भारत में समान रुप से स्वीकार्य नहीं किया जा रहा। हम दृष्टिकोण की क्या बात करें, भारत का दृष्टिकोण ऐसी घटनाओं पर कभी एक सा नहीं रहा है।