सोनाली मिश्रा । पूर्व रॉ प्रमुख ए एस दुलत एक बार फिर से सुर्ख़ियों में हैं। क्योंकि उन्होंने कश्मीर फाइल्स को एक प्रोपोगंडा फिल्म बता दिया है। उन्होंने कहा है कि यह एक प्रोपोगंडा फिल्म है, वह इसे नहीं देखेंगे। उनके अनुसार वह सब सत्य नहीं है।
टेलीग्राफ को दिए गए इंटरव्यू में दुलत ने कहा कि जगमोहन को वीपी सिंह सरकार ने सत्ता में आने के बाद राज्यपाल नियुक्त किया था। दिसंबर 1989 में गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हुआ था, और उसकी रिहाई के बदले में पांच जेकेएलएफ आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था। इस घटना के बाद से कश्मीर वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था। लोगों को लगा अब उनके लिए आजादी जैसे आने ही वाली है।
उसके बाद वह कहते हैं कि जगमोहन बहुत शांत थे। जब कश्मीर से कश्मीरी पंडित जाने लगे तो जगमोहन खुश थे क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि पंडितों को यह जलन सहनी पड़े। तो जैसे ही उन्होंने घाटी छोड़ना शुरू किया तो जगमोहन बहुत खुश थे।”
दुलत ने आगे कहा कि “यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। अगर वह जा रहे थे तो अच्छा था, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं था, जिससे हम उन्हें सुरक्षा दे पाते क्योंकि चीज़ें इतनी बुरी थीं!”
उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर में हिन्दुओं के साथ साथ मुस्लिम भी मारे गए, और वहां से हिन्दू और मुस्लिम दोनों का ही पलायन हुआ। अमीर मुस्लिम दिल्ली चले गए और जब स्थितियां सामान्य हुईं तो वह वापस आ गए। परन्तु एक प्रश्न तो उठता है कि आखिर कश्मीरी हिन्दू क्यों नहीं आ पाए वापस? क्यों कश्मीरी पंडितों की वापसी नहीं हुई?
क्योंकि जो मुस्लिमों के लिए अशांत परिस्थितियाँ थीं, वही हिन्दुओं के लिए उनकी जातिविध्वंस की प्रक्रिया थी। बुरी स्थितियां सामान्य हो सकती हैं, परन्तु जाति विध्वंस का सपना जो पाले हुए हैं, क्या उन पर विश्वास करके कश्मीरी पंडित वापस जा सकते थे?
एक ट्वीट एक यूजर ने किया है
शेख अब्दुल्ला को लगता था कि कश्मीरी पंडितों के पास सरकार में अधिक पद हैं:
दुलत अपनी पुस्तक “कश्मीर द वाजपेई इयर्स” में एक अजीब बात लिखते हैं। उससे पाठकों को समझ आएगा कि क्यों कश्मीरी पंडित वापस नहीं जा सकते हैं।
वह लिखते हैं कि “अब्दुल्ला परिवार को ऐसा लगता था कि कई समस्याएं कश्मीरी पंडितों के कारण ही हैं, जिनके पास नेहरू और इंदिरा गांधी के कारण बहुत ही विषमतापूर्वक या कहें अनुचित रूप से सरकार में ताकतवर पद थे; अब्दुल्ला परिवार को यह भी लगता था कि कश्मीरी पंडित कई कहानियाँ दिल्ली ले जाते हैं और इस प्रकार उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।”
फिर वह अब्दुल्ला परिवार का कश्मीरी पंडितों पर अविश्वास कितना था यह बताते हुए कहते हैं कि “जम्मू और कश्मीर में आईबी में बहुत अधिक लोग कश्मीरी पंडित थे। और जब शेख अब्दुल्ला को षड्यंत्र के मामले में गिरफ्तार किया गया था, तो इसमें आईबी का भी योगदान था। कई साल मामला चला, मगर कुछ निकल कर नहीं आया, तो यह भावना थी कि यह आईबी के लोग भी सही लोग नहीं हैं। शेख साहब ने तो एक बार कहा था कि मैं एक दिन इन सभी को यहाँ से चले जाते हुए देखना चाहता हूँ!”
यह भी वह बार बार लिखते हैं कि वह और फारुख अब्दुल्ला बहुत अच्छे दोस्त हैं।
जब कोई रॉ का अधिकारी किसी राजनेता का इतना परममित्र होगा तो क्या वह निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकता है? यह बहुत ही साधारण प्रश्न है और जिज्ञासा है, जो जागती है!
कौन हैं ए एस दुलत
एएस दुलत कौन हैं, यह जिज्ञासा सभी के मन में होगी! एएस दुलत कश्मीर में वर्ष 1988-90 के दौरान इंटेलिजेंस ब्यूरो के जॉइंट डायरेक्टर थे। यह वही समय था जब आतंकवाद अपने चरम पर था, और यह वही राजीवगांधी की सरकार और वीपी सिंह की सरकार का समय था, यह वही समय है, जिस पर कश्मीर फाइल्स अपना सारा ध्यान केन्द्रित करती है।
इतना ही नहीं वह रॉ अर्थात रीसर्च एवं एनालिसिस विंग के पूर्व सचिव भी रहे हैं। उन्होंने रॉ में वर्ष 1990 से 2000 तक कार्य किया है। वह अटल बिहारी वाजपेई सरकार में जनवरी 2001 से 2004 तक कश्मीरी मामलों पर प्रधानमंत्री के सलाहकार रहे हैं। फिर उन्होंने वर्ष 2015 में पुस्तक लिखी कश्मीर: द वाजपेई इयर्स।
मगर उसके बाद उन्होंने वर्ष 2018 में एक पुस्तक लिखी और वह थी: द स्पाई क्रोनिकल्स: रॉ, आईएसआई एंड द अल्युजन ऑफ पीस! किताब लिखना अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, परन्तु यह किताब उन्होंने लिखी आईएसआई के पूर्व प्रमुख असद दुर्रानी और आदित्य सिन्हा के साथ! आदित्य सिन्हा पत्रकार रहे है और विकिपीडिया के अनुसार वर्तमान में वह डेक्कन हेराल्ड में एडिटर इन चीफ हैं, और वह न्यू इंडियन एक्सप्रेस और डीएनए के एडिटर इन चीफ रह चुके हैं। उन्होंने फारुख अब्दुल्ला पर Farooq Abdullah: Kashmir’s Prodigal Son नामक पुस्तक लिखी है।
आईएसआई के पूर्व प्रमुख दुर्रानी के साथ वर्ष 2018 में पुस्तक लिखने वाले एएस दुलत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड अर्थात नेशनल सेक्युरिटी एडवाईजरी बोर्ड में वर्ष 2015 तक सदस्य थे। वर्ष 2015 तक उनका कार्यकाल था, और उसके बाद उन्हें इस सरकार द्वारा विशेषज्ञ नहीं माना गया है!
आईएसआई के पूर्व प्रमुख के साथ किताब लिखने वाले एएस दुलत यह कह रहे हैं कि कश्मीर फाइल्स झूठी है। यह एकतरफा दिखाती है, प्रोपोगैंडा है!
इस किताब में मोदी के शासनकाल में कश्मीर अध्याय में लिखा है कि कश्मीर में जब बाढ़ आई, जिसमें लोग मरे, संपत्ति नष्ट हुई, मगर कुछ भी राहत के लिए नहीं आया। कश्मीरी लोगों को यह लगा था कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन से कुछ फायदा होगा, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
जबकि मोदी सरकार की ओर से उस समय भी एक हजार करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा हुई थी और सेना ने जो सहायता की थी, उसकी गवाही तो उस समय की कई तस्वीरें भी दे देंगी!
उसके बाद वह लिखते हैं कि भाजपा और पीडीपी के बीच झगड़ा चलता रहा और मुफ्ती साहब एक टूटी उम्मीद के साथ इस धरती से गए। महबूबा मुफ्ती ने शपथ लेने में तीन महीने लगा दिए और मुफ्ती साहब के जनाजे में केवल साढ़े तीन हजार लोग ही आए!
इस पर असद दुर्रानी लिखते हैं कि “इसे कहने के लिए धन्यवाद, हम उन गलतियों को गिन रहे हैं, जो आप लोगों ने कीं!”
अर्थात दुलत जो हैं, वह भारत सरकार के कदम को पाकिस्तान की दृष्टि से गलत ठहरा रहे हैं।
उनके विषय में उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार कंचन गुप्ता के विचार भी महत्वपूर्ण हैं। वह लिखते हैं कि “मुझे अपने पीएमओ के दिनों से याद आता है: एएस दुलत ने स्वयं को वाजपेई की टीम में यह कहकर सम्मिलित कराया था कि वह कश्मीर की समस्या का समाधान करेंगे। मगर उन्होंने बहुत ही छल से फारुक अब्दुल्ला की जहरीली “स्वायत्ता रिपोर्ट” (1953 से पूर्व की स्थिति को बनाए रखना) को बेचने की कोशिश की, और वह लगभग सफल भी हो गए थे। पर वह इसे बेचने में फेल हुए।
दुलत कई बार कह चुके हैं कि फारुख अब्दुल्ला के साथ उनके नज़दीकी सम्बन्ध हैं। इसके साथ ही पत्रकार आरती टिक्कू ने दुलत की असलियत बताते हुए एक वीडियो ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने कहा है कि दुलत डोक्ट्राइन पर बात होनी चाहिए। अब यह दुलत डोक्ट्राइन क्या है? अब यह दुलत सिद्धांत क्या है? वह कहती हैं कि कश्मीर के बारे में हर बात जानना जरूरी है। वह कहती हैं कि दुलत सिद्धांत यह था कि जो लोग कश्मीरी पंडितों को मारने के लिए, उन्हें उनके ही घर से, उनकी अपनी भूमि से भगाने के लिए जिम्मेदार थे, जो लोग कश्मीरी हिन्दुओं पर तरह तरह के अत्याचार करने के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें कश्मीर का गांधी कहा जाने लगा था, उन्हें कश्मीर का नेल्सन मंडेला कहा जाने लगा था।
दुलत किसे कश्मीर का नेल्सन मंडेला कहते हैं? किसे उन्होंने शांति का उपासक कहा है? उन्होंने कश्मीर का नेल्सन मंडेला कहा है अलगाववादी नेता शबीर शाह को। अपनी पुस्तक कश्मीर: द वाजपेई इयर्स में वह लिखते हैं कि शबीर को यह पसंद नहीं आया कि दिल्ली की ओर से किसी और से बात की गयी। शब्बीर को लगता था कि कश्मीर में उसे छोड़कर किसी और से कोई भी राजनीतिक बात नहीं होनी चाहिए, वह खुद को अगला शेख अब्दुल्ला ही नहीं मानता था, बल्कि साथ ही वह इस बात से भी नाराज था कि वह “कश्मीर के नेल्सन मंडेला” के रूप में प्रख्यात है।
जबकि यही शब्बीर कई आरोपों का सामना कर रहा है, जैसे मनी लांड्रिंग आदि! ईडी ने उसकी बीवी के नाम भी सम्मन जारी किया था।
https://indianexpress।com/article/india/ed-charge-sheet-against-shabir-shahs-wife-bilquis-6599660/
अर्थात जो अलगाव की बातें करते थे वह नेल्सन मंडेला हो गए! और कश्मीरी पंडित अपने आप चले गए! फारुख अब्दुल्ला के विषय में दुलत का कहना था कि
“कई लोगों को फारुक अब्दुल्ला पर संदेह था, और उनमें नरसिम्हा राव और वाजपेई जी भी शामिल हैं, मगर जो लोग फारुख के नज़दीक थे, वह यह बात जानते थे कि केवल फारुख ही इकलौते कश्मीरी हैं, जो भारत के लिए हैं। उन्होंने बार बार कहा है कि कश्मीर का भारत में विलय स्थाई है!”
उन्होंने एक और घटना में भारत को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है कि इरशाद मलिक ने एक और बात बताई कि पकिस्तान में लगभग 2400 कश्मीरी हैं, उनमें से 2000 अपनी गरीबी के कारण परेशान हैं। वह वापस आना चाहते हैं। उस समय के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने पुनर्वास कार्यक्रम की योजना बनाई थी, मगर भारत में हम इसे सफल नहीं कर सके। यह हमारे विश्वास की कमी दिखाता है। तो जाकर उन कश्मीरियों से कह दिया जाए कि हमें आपमें कोई इंटरेस्ट नहीं है। तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप यहाँ नहीं हैं!”
अर्थात कश्मीरी पंडितों के वापस आने पर कोई बात हो या न हो, जो मुसलमान अपनी मर्जी से पाकिस्तान गए थे, उन्हें अवश्य वापस आना चाहिए!
कश्मीरी आतंकवाद और हिन्दुओं का जातिविध्वंस उनके लिए विद्रोह या विप्लब है!
आईएसआई के प्रमुख द स्पाई क्रोनिकल्स: रॉ, आईएसआई एंड द अल्युजन ऑफ पीस किताब में 1990 में कश्मीर में जो पंडितों के साथ हुआ उसे अपराइजिंग अर्थात विद्रोह, विप्लव बताते हैं, जो किसी दुर्दांत सत्ता द्वारा किए गए अत्याचारों के विरोध में किया जाता है, इस पर दुलत कुछ नहीं कहते हैं। बल्कि एक तरह से समर्थन ही करते हैं और इसी पेज पर वह लिखते हैं कि हर कोई मुझे बताता है कि फारुख मेरे दोस्त हैं, और मैं बहुत खुश हो जाता हूँ।
कंचन गुप्ता जब कहते हैं कि दुलत फारुख के प्रस्ताव को लागू करवाना चाहते थे, तो वह सही कहते हैं, क्योंकि फारुख की दुलत इतनी इज्जत करते थे कि वह दुर्रानी से कह रहे हैं कि आप लिखकर रखवा लीजिये कि दिल्ली कभी भी कश्मीर पर फारुख को मध्यस्थ नहीं बनाएगी। केवल एक ही बात पर यह हो सकता है कि वह पकिस्तान जाएं, और पाकिस्तान में जाकर यह बात कहें, और फिर पाकिस्तान से भारत पर यह दबाव पड़े कि वह फारुख को चाहते हैं, तो ही कुछ हो सकता है।
दुलत को यह तक विश्वास था कि वर्ष 2019 के चुनावों में फारुख विपक्षी एकता में बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगे और वह एक शानदार विदेश मंत्री बनेंगे।
इस पर दुर्रानी कहते हैं कि हम उन्हें उप प्रधानमंत्री बना सकते हैं!
वह लोग इस बात से दुखी हैं कि फारुख को कुछ नहीं मिला, पर मुफ़्ती को पद्मश्री तो मरणोपरांत मिला था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था!
इस पुस्तक में दुरानी जो कहते हैं उस पर ध्यान देना चाहिए। इसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर के नेताओं को किसी भी चीज़ के लिए मना नहीं करना चाहिए। जितना मिले, उतना लेकर फिर कुछ दिन बाद और बात करना चाहिए।
इस पर दुलत का भी कहना था कि फारुख अब्दुल्ला बार बार कहते थे कि “जितना ले सकते हो, उतना ले लो!”
दुर्रानी ने बार बार 1990 के आतंकवाद को विप्लव, विद्रोह कहा है। और इसमें यह भी कहा है कि pakistan को यह नहीं अनुमान था कि जो असंतोष है वह कितने समय तक चलेगा।
इस पर दुलत कहते हैं कि कश्मीर बहुत ही जटिल विषय है और इसके लिए सब्र चाहिए। यहीं पर पाकिस्तान विफल हुआ।
उसके बाद वह कहते हैं कि पिछले तीन वर्षों में जो अनिश्चतता हमने बना दी है, उसने पाकिस्तान को दोबारा से वार्ता में ला दिया है!”
जिस अनिश्चितता की बात वह करते हैं वह क्या थी? वह थी बुरहान वानी की मौत! पाठकों को पता ही होगा कि इसपर कितना शोर मचाया गया था।
दुर्रानी ने इस दौर को भी विप्लव का दौर बताया है और कहा है कि जब यह अपराइजिंग हुआ तो मैंने लोगों से पूछा कि क्या बदलाव दीखता है, तो उन्होंने कहा कि पहले लड़ाई की बात करने वाले लोग अब शहादत की बात करते हैं। और जिसे भारतीय कैसे निपटाएंगे, पता नहीं!
उसके बाद वह बलूचिस्तान में हो रहे विद्रोहों की बात करते हैं, तो आदित्य सिन्हा पूछते हैं कि तो क्या अगले बीस वर्षों में और बुरहान वानी होंगे?
अर्थात इनकी योजना और कल्पना और इच्छा सब कुछ थी कि कश्मीर में और बुरहान वानी हों, और असंतोष हो!
दुलत ने माना कि यह आतंकवाद पाकिस्तान का किया हुआ था
इसी किताब में दुलत ने कहा है कि अमानुल्लाह खान के दामाद को आधा भाजपा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें आत्मविश्वास की कमी है, यही कारण है कि जब आन्दोलन शुरू हुआ, तो यह पाकिस्तान के भी नियंत्रण से बाहर हो गया।
रॉ के पूर्व प्रमुख का कोर्ट मार्शल क्यों नहीं हुआ?
एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब आरती टिक्कू ने उसे कई बार एक्सपोज़ किया, और तथ्य भी हैं, तो भी एएस दुलत को झूठ बोलने की आजादी कैसे मिली हुई है? क्यों आज तक उसे दण्डित नहीं किया गया है? आनन्द रंगनाथन ने भी यह प्रश्न अपने twitter हैंडल से किया है।
एक और यूजर ने लिखा कि एएस दुलत ने जो फार्मूला सुझाया था, वह ऐसा था जैसे किसी बलात्कार पीड़िता से कहा जाए कि वह अपना बलात्कार करने वाले शादी करे, और उसने उस किताब की भी समीक्षा की थी
दुलत का रॉ में एक वर्ष का कार्यकाल रहा था। और लोग अब यह प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर ऐसा क्या है कि उसके पास लंदन में एक बड़ा मेंशन अर्थात महल है? वह उस दौरान आईबी का स्टेशन प्रमुख था, जब कश्मीरी पंडित आईबी के मुखबिर के रूप में मारे जा रहे थे?
‘इसके साथ ही यह भी जांच नहीं होनी चाहिए क्या कि जब वह रॉ प्रमुख थे, तभी आईसी 814 का अपहरण हुआ था, और जिसके कारण तीन दुर्दांत आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था। और उन्होंने ही बाद में इस पूरे अभियान में हुई गलतियों को माना था। अपनी किताब कश्मीर: द वाजपेई इयर्स में उन्होंने लिखा है कि सीएमजी अर्थात क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप से निर्देशों में देरी हुई।
वहां पर नियुक्त सरबजीत ने कहा कि दिल्ली की तरफ से कोई निर्देश नहीं था कि आईसी814 को उड़ान नहीं भरने देनी है। जब 24 दिसंबर 1999 को सीएमजी यह बात ही कर रहा था कि कैसे इस अपहरण से निपटा जाए, उतनी ही देर में वह उड़ गया। वह हाथ से निकल गया।
एक और प्रश्न उठता है कि इतनी बड़ी घटना के बाद भी उन्हें प्रधानमंत्री के कार्यालय में नियुक्ति कैसे मिल सकती है?
जिन एएस दुलत पर इतने आरोप हैं, जिन्होनें आईएसआई के दुर्रानी के साथ किताब लिखी और कश्मीर का वह हल चाहा जो पाकिस्तान चाहता है, और दुर्रानी के साथ मिलकर पाकिस्तान के ही एजेंडे को द स्पाई क्रोनिकल्स: रॉ, आईएसआई एंड द अल्युजन ऑफ पीस में आगे बढ़ाया है, वह कह रहे हैं कि मुस्लिमों ने पंडितों को बचाया था! उनके लिए अलग से कॉलोनी बनाना ठीक नहीं है, इससे अलगाव वाद फैलेगा और पंडितों को अपने उन्हीं घरों में वापस जाना चाहिए!
मगर वह अपने इतिहास के विषय में नहीं बता रहे हैं कि वह हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं हैं? वह कश्मीरी हिन्दुओं को मारने वाले और कश्मीर को भारत से अलग करने वाले अलगाववादियों को नेल्सन मंडेला क्यों कह रहे हैं?
और उनके इस इतिहास के बाद भी वह कश्मीर विशेषज्ञ क्यों हैं?