तो अंतत: अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रोने वाले जीत गए और उनके आगे एक प्रकाशक हार गया. सनद रहे कि जो bloomsbury India ने Delhi Riots: The Untold Story, प्रकाशित करने को लेकर पीछे हट गया, जिसे लेकर बाकायदा कांट्रेक्ट साइन हुआ था, उनकी लीगल टीम ने पूरे दस्तावेज़ पढ़े थे और जब उनमें कुछ गलत नहीं पाया गया था, जैसा उनकी पालिसी है, वही प्रकाशक बहुत गर्व से Shaheen Bagh: From a Protest to a Movement बहुत गर्व छापता है और वह आज के दिन ही उसका प्रचार करता है. Bloomsbury India ने Delhi Riots: 2020 से वापस हटते हुए यह कहा है कि यद्यपि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है, फिर भी उसकी एक नैतिक जिम्मेदारी है.
यह जिम्मेदारी तब कहाँ चली जाती है, तब देश की संप्रभुता को चुनौती देने वाले प्रोटेस्ट को मूवेमेंट तक बनने की यात्रा को वह सगर्व बताता है. जिस विरोध को देश की सर्वोच्च अदालत गलत करार दे चुकी है, जिस प्रोटेस्ट के कारण लाखों लोग पीड़ित रहे और जिस कथित प्रोटेस्ट की परिणिति दिल्ली दंगे हुए थे, इसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे, अंकित शर्मा का निर्दयता से खून किया गया था, उसका महिमा मंडन करते समय यह जिम्मेदारी कहाँ चली गयी थी?
यह bloomsbury india से पूछना ही चाहिए कि आखिर यह जिम्मेदारी कहाँ चली गयी थी जब वह इस झूठे आन्दोलन को सच्चा बनाकर प्रकाशित कर रहा था, क्या वह पूरे पचास लोगों की जान का दुश्मन नहीं है? क्या उसके खुद के हाथ खून से रंगे हुए नहीं है? क्या एक बार भी उन लोगों ने यह सोचा कि जो कागज वह प्रकाशित कर रहे हैं क्या वह सच हैं? क्या उनके लीगैलिटी है? नहीं! जिन लोगों ने यह किताब लिखी थी वह शाहीन बाग़ के देशद्रोही आन्दोलन के साथ जुड़े रहे थे, और इतना ही नहीं उन्होंने दिल्ली दंगों के गुनाहगार ताहिर हुसैन को भी क्लीन चिट दे दी थी.
Bloomsbury India जब शाहीन बाग़ पर किताब प्रकाशित कर रहा था क्या एक पल के लिए भी अंकित शर्मा के बारे में सोच पाया? नहीं! जिम्मेदारी की जो बात आज कर रहा है, दरअसल वह इनकी कायरता है!
जो दंगे पूरी तरह से भारत सरकार को सबक सिखाने के लिए और पूरी दुनिया में भारत का सिर नीचे झुकाने के लिए किए गए थे, उन दंगाइयों को क्लीन चिट देते हुए इस प्रकाशन हाउस की जिम्मेदारी कहाँ चली गयी थी? जिया उल सलाम का ट्विटर अकाउंट उसकी सारी चुगली करता है, और जिसमें यह साफ़ दिखाई देता है कि उसकी विचारधारा हिन्दुओं के लिए क्या है? वह तो दिल्ली दंगों को दंगा मानता ही नहीं है!
जाहिर है जो प्रकाशन ऐसी काल्पनिक और एक धर्म के खिलाफ किताब छापेगा वह सच कैसे देख पाएगा?
Delhi Riots 2020 को प्रकाशित न करने की घोषणा के बाद इस पुस्तक की लेखिका मोनिका अरोड़ा ने Bloomsbury india के पाखण्ड का पर्दाफाश करते हुए वह प्रक्रिया बताई जिस पर चलकर यह किताब अप्रूव हुई थी. उन्होंने लिखा कि
जैसे ही Bloomsbury UK की वामी इस्लामी लॉबी सक्रिय हुई , यहाँ के लोग जो सुबह तक अपने निर्णय पर अडिग थे, लड़खड़ा गए और यह दिखा दिया कि उनकी रीढ़ अभी भी विदेशी हुकुम की मोहताज है. मगर भारतीय लेखकों की नहीं! भारतीय विचारों वाले लेखकों में अभी भी रीढ़ है, वह इन विदेशी प्रकाशकों के पीछे नहीं भागेंगे जिनके अन्दर सच के पक्ष में खड़ा होने का साहस नहीं है!
जैसे ही आज Bloomsbury की तरफ से घोषणा हुई कि वह Delhi Riots: 2020 को प्रकाशित नहीं करेगा, वैसे ही प्रकाशन के खिलाफ गुस्से की एक लहर इन्टरनेट पर दौड़ गयी. इस प्रकाशन के साथ काम कर रहे लेखकों ने इस असहिष्णुता का विरोध करते हुए अपनी अपनी किताबें Bloomsbury से वापस लेने की घोषणा कर दी.
बेस्ट सेलर रह चुकी किताब कहानी कम्युनिस्टों की के लेखक संदीप देव ने फेसबुक और ट्विटर दोनों पर यह घोषणा की कि वह Bloomsbury के साथ अपने सारे रिश्ते खत्म कर रहे हैं. उन्होंने लिखा कि वह एक लेखक के रूप में bloomsbury से अपनी सारी किताबें वापस ले रहे हैं.
इतना ही नहीं sanjeev sanyal ने भी कहा कि वह कभी भी bloomsburry के साथ कोई किताब प्रकाशित नहीं कराएंगे
आनंद रंगनाथन ने भी अपनी सारी किताबें वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा कि अगर bloomsbury अपना फैसला वापस नहीं लेती है तो वह अपनी आने वाली पुस्तक के लिए दिया गया पैसा उन्हें वापस कर देंगे और किताब ऐसे किसी भी संस्थान से प्रकाशित नहीं कराएंगे जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं देता.
लेखक संजय दीक्षित ने भी अपने सारे रिश्ते bloomsbury से तोड़ते हुए ट्विटर पर घोषणा की कि वह जल्द ही bloomsbury को नोटिस भेजेंगे कि वह उनकी आने वाली Nullifying Article 370 and Enacting CAA को प्रकाशन से वापस ले रहे हैं और वह इस उद्देश्य का नोटिस भेजेंगे.
ट्विटर पर इस निर्णय की तीव्र प्रतिक्रिया हुई है और लेखक अपनी अपनी किताबें प्रकाशन से वापस ले रहे हैं. इस घटना से पत्रकारों में भी काफी रोष है और रोहित सरदाना, अनंत विजय, हर्ष’वर्धन त्रिपाठी जैसे कई पत्रकार इस निर्णय के विरोध में ट्विटर पर लिख रहे है.
इस विषय में कपिल मिश्रा ने ट्वीट किया है, कि न ये सड़क बंद कर पाए थे, और न ये किताब बंद कर पाएंगे:
पर सवाल उठता ही है क्या अब पञ्च मक्कार यह तय करेंगे कि भारतीय पाठक क्या पढ़े और क्या लिखे? क्या मुगलों का महिमा मंडन करने वाले आतिश तासीर जैसे लोग हमारे लिए यह तय करेंगे कि हम क्या लिखें और क्या न लिखें? और क्या यह मुट्ठी भर लोग तय करेंगे कि प्रकाशक क्या छापें या क्या न छापें? इस घटना ने वामी और इस्लामी समूहों के चेहरों पर खुशी ला दी है और यह खुशी आतिश तासीर के उस ट्वीट से झलक रही है जिसमें वह वामपंथी इतिहासकार William Dalrymple का धन्यवाद दे रहे है कि विलियम के कारण आज bloomsbury यह निर्णय ले पाया है. William Dalrymple ने भी आतिश का धन्यवाद करते हुए कहा है कि उन्होंने अभी देखा और इस पर कदम उठाया और साथ ही कई और लेखकों को भी टैग किया. गौर तलब है कि William Dalrymple, भारत सरकार के विरोधी ट्वीट को रिट्वीट करते हुए पाए जाते हैं और आज ही उन्होंने वायर का एक भारत सरकार विरोधी लेख जिसे shashi tharoor ने ट्वीट किया था, उसे रिट्वीट किया है.
तो इस विदेशी और देशी टुकड़े टुकड़े गैंग को यह सब करके उन्हें ऐसा लग रहा है कि उन्होंने एक विचार को कुचल दिया है, मगर यह उनकी गलत फहमी है. टुकड़े टुकड़े गैंग के लोग आज खुशी मना रहे हैं कि उन्होंने मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितलकर और प्रेरणा मल्होत्रा की किताब के बहाने यह लड़ाई जीत ली है, मगर यह सच नहीं है! यह घटना वामी-इस्लामी गठजोड़ की उस बेशर्मी को दिखाती है जिसे वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शोर के नीचे दबा लेते हैं. मगर वह यह भूल जाते हैं कि विचार मरते नहीं है, सच मरता नहीं है!
#Shame on Bloomsbury #TruthofDelhiRiots2020 #Urbannaxals #Freedom of Speech #Attackonfreedomofexpression
आप की हिम्मत और साहस सराहनीय है ,हम आप के साथ हैं
आपके यह लेख से पता चलता है कि कैसे आज तक हमसे सत्य छुपाया गया होगा।ऐसे कृत्यो का सामना जोर शोर से करना ही होगा, विश्व को पता चलना चाहिए कि भारत बदल चुका है।वह अब घरमें घुस कर जवाब देता है। सावधान?????