“मैं उम्मीद करती हूँ, कि यह धर्मांतरण विरोधी नियम पूरे देश में लागू हो और इससे हम जैसी स्त्रियों का संघर्ष कम हो जो अंतर्जातीय (अंतर्धार्मिक) शादियों में मजहब के जहर से लड़ रही हैं। हमें बुरा बोलने वाला मना जाता है और हम पर अपने विचारों पर अडिग रहने के लिए तमाम तरह के आरोप लगते हैं। हमें हमारे मूल धर्म की बातों का पालन करने पर दोषी ठहराया जाता है।
इस धर्मांतरण चक्र में जो असली दुश्मन है, वह तो शुरू से ही “दुसरे मजहबों के प्रति नफरत है।” और एक मजहब जब खुले आम यह कहता है कि एक ही मजहब सच्चा है और उन्हीं का अल्लाह केवल असली भगवान है, समस्या वही है। मजहब अंतरों के सम्मान का कारण होना चाहिए न कि परिवारों के टूटने का”
यह शब्द पढ़कर कोई भी कथित उदारवादी, वामपंथी, और लेखक एवं लेखिकाओं की लॉबी आपको सहज शब्दों में केवल और केवल संघी, पिछड़ा, हिन्दू वादी आदि आदि ठहरा देगी। कहा जाएगा कि इन संघियों को कुछ काम नहीं है,
मुसलमानों को कोसने के अलावा, और यह लोग जहर की खेती कर रहे हैं। पर जब उन्हें यह कहा जाएगा कि यह सब खुद एक ऐसी लड़की ने लिखा है जो इस देश के वास्तविक अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। यह वह वर्ग है जो इस्लाम की कट्टरता से अपनी जान बचाकर ईरान से गुजरात के समुद्रतट पर आ पहुंचा था और वह भारत में ही मुट्ठी भर शेष हैं। तथा वह वर्ग अब भारत के सबसे संपन्न वर्गों में से एक है,
वह भी अल्पसंख्यक का रोना रोए बिना। यह शब्द हैं दिवंगत संगीत निर्देशक वाजिद खान की पत्नी कमालरुख खान के। जिन्होनें उत्तर प्रदेश सरकार के धर्मांतरण विरोधी अधिनियम के लागू होने पर खुशी व्यक्त की है। समझना होगा कि पीड़ा क्या है? क्या ऐसा दर्द था जो जब छलका तो उसने इस पूरे वामपंथी खेमे के दोगलेपन को खोलकर रख दिया। यह भी सवाल है कि कमालरुख खान का समर्थन करने के लिए अल्पसंख्यकों के वह ठेकेदार सामने क्यों नहीं आ रहे हैं जो अख़लाक़ के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिए थे?
वह सामने नहीं आएँगे क्योंकि वह अल्पसंख्यकों के नहीं बल्कि इस्लाम के पक्षधर हैं, और उन्हें वास्तविक अल्पसंख्यकों की पीड़ा से कोई भी सरोकार नहीं है।
कमालरुख खान ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखा है कि “मैं पारसी हूँ और वह मुस्लिम थे। हमें आप कॉलेज स्वीटहार्ट” की संज्ञा दे सकते हैं। और फिर हमारी शादी भी हुई और हमने स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत केवल और केवल प्यार के लिए शादी की। (यह एक ऐसा एक्ट है
जिसमें आप अपना मूल धर्म बनाए रखकर शादी कर सकते हैं।” मगर जब आप कमालरुख की ट्विटर की टाइमलाइन पर जाएंगे तो पाएंगे कि वह कहती हैं कि
हालांकि उन्होंने स्पेशल मैरिज एक्ट में शादी की, मगर फिर भी उन्हें अपना धर्म बदलने के लिए परेशान किया गया। उन पर दबाव डाला गया कि वह मुसलमान हो जाएं, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपने धर्म के लिए खड़ी रहीं।
उसका नतीजा यह हुआ कि जहाँ वह एक ऐसी ज़िन्दगी जी रही थीं जिसमें उनके साथ उनका पति नहीं था और न ही उनके बच्चों के साथ उनके पिता
थे।
अपनी इंस्टाग्राम की पोस्ट में वह आगे लिखती हैं कि “मेरे पारसी पालनपोषण ने मुझे एक बहुत ही लोकतांत्रिक मूल्य व्यवस्था दी थी। मेरे परिवार में विचारों की स्वतंत्रता थी और हम लोग खुलकर हर विषय पर बात करते थे। हमारे परिवार में शिक्षा भी थी। हालाँकि शादी के बाद, यही स्वतंत्रता, शिक्षा और लोकतांत्रिक मूल्य मेरे पति के परिवार के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया था।
वहां पर एक शिक्षित, विचारवान, स्वतंत्र स्त्री के जरूरत नहीं थी और वह लगातार धर्म बदलने का दबाव बनाते रहे थे। जबकि मेरे मायके में हर धर्म का आदर था।” जो लोग लव जिहाद को नकारते हैं और बार बार यही कहते हैं कि प्यार में धर्म का क्या काम, उन्हें कमालरुख खान का यह पोस्ट आँखें गढ़ाकर पढ़ना चाहिए।
जिसमें वह साफ़ साफ़ लिखती हैं कि उनके द्वारा इस्लाम अपनाने से इंकार करने पर उनके साथ क्या हुआ। कैसे उनके और
उनके पति के रिश्तों को इस मजहबी जहर ने मार डाला। वह आगे लिखती हैं। “जब मैंने इस्लाम को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया तो इसने मेरे और मेरे पति के बीच में दूरी को बढ़ा दिया और एक पति और पत्नी के रूप में हमारा रिश्ता इस हद तक बोझिल और कडवा हो गया कि वह न ही मेरे पति बन पाए और न ही मेरे बच्चों के पिता।”
बात बात पर पितृसत्ता का रोना रोने वाली लेखिकाओं की आँखों में उंगलियाँ डालकर कमाल उन्हें बताती हैं कि अंतत: पितृसत्ता क्या है? वह लिखती हैं
“जबरन इस्लाम क़ुबूल कराना, (धर्मांतरण) कोई मूल्य व्यवस्था न होकर उस समाज के भीतर धंसी और सड़ी गली पितृसत्ता का एक उदाहरण है, जो मैं बिलकुल भी अपने ऐसे बच्चों के लिए तय नहीं करना चाहती थी जिन्हें मैंने बहुत प्यार से पाला है।”
“मैंने अपना धर्म न बदलने की एक लम्बी लड़ाई लड़ी, जिसका नतीजा हुआ कि मुझे मेरे पति के घरवालों ने एकदम ही अपनी ज़िन्दगी से निकाल दिया। और उन्होंने हर तरह की चाल चली कि मैं अपने पति से तलाक ले लूं।” फिर एक और प्रश्न आता है कि क्या वाजिद की मृत्यु के उपरान्त भी ससुराल वालों के व्यवहार
में अंतर आया।
क्योंकि आम तौर पर यह होता है कि पति की मृत्यु के बाद ससुराल वाले उसके बच्चों में अपने ही बच्चे की तस्वीर देखते हैं, तो क्या इस मामले में भी यही हुआ। कमाल, वाजिद के परिवार वालों की खुद के प्रति बेरुखी को बताते हुए कहती हैं “वाजिद एक बहुत ही प्रतिभाशाली संगीतकार थे जिन्होनें अपना जीवन संगीत के लिए समर्पित कर दिया था।
मैं और मेरे बच्चे उन्हें मिस करते हैं और हमें लगता है कि काश उन्होंने और समय दिया होता। हम कभी भी उनके परिवार की मजहबी कट्टरता के कारण एक परिवार के रूप में नहीं रह पाए और आज भी उनके परिवार का मजहबी कट्टरता वाला बर्ताव चालू है और हमें परेशान किया जा रहा है। मैं अपने बच्चों के अधिकारों के लिए लडूंगी जिसके वह हक़दार है।
वह मुझे इसलिए परेशान कर रहे हैं क्योंकि वह मुझसे नफरत करते हैं, और यह नफरत केवल और केवल इसलिए है क्योंकि मैंने इस्लाम नहीं कुबूला, और आप उस नफरत का अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं जिसे उनके प्रिय की मृत्यु भी नहीं बदल सकी।”
यह पूरी पोस्ट उनके इन्स्टा और ट्विटर दोनों पर है और खासी चर्चित हो रही है। इनसे उनकी पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह जो दर्द है वह प्यार के कारण ही पैदा हुआ है। यदि कोई प्यार करता है, तो उस प्यार में अपनी प्रेमिका का धर्म बदलवाने की मजबूरी क्यों है भाई? यदि वह प्यार है तो उस प्यार में मजहबी कट्टरता क्यों है?
यदि यह केवल प्यार है तो केवल इस्लाम में ही मतांतरित करने की बाध्यता क्यों है? क्योंकि यह ख़त बहुत कुछ बातें बताता है, यह बताता है कि यह केवल प्यार नहीं है, यह केवल और केवल यह साबित करने की होड़ है कि एक ही अल्लाह है और वही सच है। यह वही सोच है जिसने पारसियों को ईरान से भागने पर मजबूर किया, जिसने कश्मीर को हिन्दू विहीन किया,
यह वही सोच है जिसके कारण पाकिस्तान में आज भी रोज़ हिन्दू लड़कियों को जबरन उठाकर निकाह कराया जा रहा है और यह वही सोच है जिसके कारण पश्चिमी उत्तरप्रदेश में लडकियां पीड़ित हो रही हैं। यह वही सोच है जो निकिता द्वारा मजहब में मतांतरित न होने पर उससे जिन्दा रहने का अधिकार छीन लेती है और यह वही सोच है जिसने परसों ही बलिया में एक पंद्रह साल की किशोरी की जान ले ली है!
यह सोच है “मेरे सिवा किसी को जीने का अधिकार नहीं है! मेरा मजहब ही अंतिम सत्य है” जो सेलेब्रिटी होती हैं, उन्हें बस जान से हाथ नहीं धोना पड़ता है, नहीं तो मानसिक शोषण उतना ही होता है जितना किसी आम लड़की का जो इस सोच के चलते निकाह कर लेती है कि
सभी धर्म एक समान हैं।
कमाल ने यह पोस्ट लिखकर अपने ही अपितु न जाने कितनी लड़कियों की पीड़ा को आवाज़ दी है! हमें नहीं पता होता है कि हमेशा चमकने वाले चेहरों के पीछे दर्द कितना होता है और चाहे संगीत हो, या अभिनय, मजहबी कट्टरता अन्धेरा कर ही देती है। मगर दुःख की बात यह है कि कई मीडिया रिपोर्ट कमाल को ही दोषी ठहराते हुए पोस्ट लिख रही हैं कि जहाँ अभी परिवार दुःख से उबरने की कोशिश में है,
वहीं कमालरुख खान अपनी अंतर्धार्मिक शादी का अनुभव लिख रही हैं। क्यों भाई, क्या अब दर्द को भी पूछकर लिखना होगा? क्या परिवार का दर्द उस स्त्री के दर्द से बढ़कर है जिसका पति और जिसके बच्चों के पिता ने सदा के लिए आँखें मूँद ली हैं। सवाल यह भी है कि क्या हमारा मीडिया और हमारा कथित बुद्धिजीवी वर्ग कभी असली अल्पसंख्यकों पर उस वर्ग द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को दिखा पाएगा जिसे वह अल्पसंख्यक कहते हैं,
जबकि वह वर्ग इतना शक्तिशाली है जिसने अपने लिए देश को तोडा है और आज तक वह घुलमिल कर रहने के स्थान पर केवल और केवल अपनी संख्या बढ़ाकर इस देश को तोड़ने का एक और सपना देख रहा है। उत्तर प्रदेश का यह धर्मांतरण विरोधी क़ानून दरअसल केवल और केवल प्यार करने वालों के लिए ही है जिसमें प्यार के नाम पर धर्म बदलने का दबाव न हो, क्योंकि जहाँ प्यार है वहां धर्मपरिवर्तन का क्या काम? प्यार है वह जो अपना लेगा किसी नेहा को बिना रेशमा बने, प्यार है तो वह अपना लेगा किसी अंकिता को बिना रजिया बनाए!
bahut khoob likha hai Sonali ji ne !
सुस्पष्ट विश्लेषणात्मक आलेख। अंतर धार्मिक विवाह के बाद धर्मांतरण के दबाव के कारण झेली गई भावनात्मक पीड़ा अक्सर बाहर बताने के लिए बहुत हिम्मत जुटानी पड़ती है। पर ये बातें बाहर आनी चाहिए। उनका विश्लेषण होना चाहिए। दूसरों के अनुभवों से सीख लेनी चाहिए। खासकर ऐसे अनुभव जो जीवन भर के लिए पीड़ादायी होते हैं और कोई ऐसा भावनात्मक निर्णय जो जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल देता है।