विपुल रेगे। प्रसिद्ध शिक्षिका सुधा मूर्ति ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान कह दिया कि वे यात्रा पर जाते समय अपना चम्मच भी साथ ले जाती है। उन्हें डर होता है कि बाहर से लिया चम्मच मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा होगा। एक बहुत सामान्य सी बात को ‘पंचमक्कार गिरोह’ ने अस्पृश्यता से जोड़ने का घृणित प्रयास किया है। सुधा मूर्ति इस समय ट्वीटर के अंध बुद्धि लोगों के लिए ‘पंचिंग बैग’ बनी हुई हैं।
शाकाहार पालन करने वाला व्यक्ति शुद्धता का बहुत ध्यान रखता है, ये एक सामान्य तथ्य है। इस तथ्य का जाति या छुआछूत का कोई लेना-देना नहीं है। बहुत से ऐसे समाज के लोग, जहाँ मांसाहार अनिवार्य जैसा है, मांस नहीं खाते और इसी तरह की शुद्धता का पालन करते हैं। ये सुधा जी का संवैधानिक अधिकार है कि उनकी जीवन शैली कैसी हो। पंचमक्कारों द्वारा पैदा किये गए इस जबरिया विवाद में सबसे बुरी बात है इसे जातिवाद से जोड़ना। लगभग छह दिन से ये विवाद चल रहा है।
इस समय सोशल मीडिया पर ऐसे मिम्स आ रहे हैं, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से सुधा मूर्ति पर हमला करते दिख रहे हैं। ‘गिरोह’ ने सुधा जी के पूरे इंटरव्यू में से केवल ‘चम्मच’ वाली बात उठाई है। स्पष्ट है कि उसी पॉइंट पर वे लोग कुछ उपद्रव कर सकते थे और वे कर रहे हैं। देश की एक प्रबुद्ध शिक्षिका को ये दिन भी देखना पड़ेगा, किसने सोचा था। दो रुपया प्रति ट्वीट के दूध पर पलने वाले सोशल मीडिया के अशिक्षित सर्प सभी को समान रुप से डंस लेते हैं। ये अशिक्षित सर्प किसी व्यक्ति की साधना और उपलब्धियों को नहीं देखते और गंदा से गंदा व्यवहार करते हैं। सुधा मूर्ति पर हमला करने वाले यही सर्प हैं।
सुधा जी खाने की शौक़ीन हैं। उन्होंने अपने इंटरव्यू में भारत के स्वाद को लेकर बहुत सी बातें की लेकिन उनके सुंदर मिम्स किसी ने नहीं बनाए। 72 वर्षीय सुधा ने इस इंटरव्यू में एक मूमेंट पर कहा ‘भारत कोई देश नहीं है, ये एक महाद्वीप है। हर 150 किलोमीटर पर खाना, स्वाद, पहनावा और बोलने का तरीका बदल जाता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक की तुलना में हुबली का स्वाद अलग है। मैसूरु, बेंगलुरु, कुद्रेमुख, कूर्ग आदि में स्वाद एक दूसरे से बहुत अलग हैं। भारत में, हमारे पास इतनी सारी किस्में, इतने सारे तरीके, इतने सारे संयोजन हैं।’ सुधा जी के भोजन में अनंत विविधताएं हैं, गौ मांस की वकालत करने वाले इसे क्या समझेंगे।
इंटरव्यू के एक हिस्से में सुधा ने कहा कि वे अपने काम के कारण दुनिया भर में घूमती रहती हैं। उन्होंने बताया वे शुद्ध शाकाहारी हैं। अंडा, लहसुन भी नहीं खातीं। उन्होंने यात्रा के दौरान शाकाहारी भोजन खोजने की प्रक्रिया में होने वाली आशंका पर कहा ‘मुझे डर है कि शाकाहारी और मांसाहारी दोनों एक ही चम्मच का उपयोग करते हैं। मैं बाहर जाती हूँ तो शाकाहारी रेस्तरां खोजती हूँ।’ इतने सुंदर इंटरव्यू पर भी ज़हर फेंका जा रहा है। हमारे सोशल मीडियाई समाज को ये क्या होता जा रहा है?
जब वे कुणाल के साथ मूंगफली कोशांबीर, नरम काजू और टोंडली सब्जी, रायता और दक्षिण भारतीय पुलाव, नारियल और गुड़ के साथ मीठी पोली, साबूदाना और सेवई खीर, और अक्की आटा या चावल के आटे की रोटी सहित मैसूर-व्यंजन का का भव्य आनंद ले रहीं थीं तो एक मूक संदेश दे रहीं थीं। वें बता रहीं थीं कि भारतवर्ष में इतना सुस्वादु भोजन, इतनी विविधताओं के साथ उपलब्ध है तो मूक पशु को काटकर खाना क्यों आवश्यक है। सुधा जी का विरोध करने वाले नियमित मांस भकोसने वाले लोग हैं। इनकी जिव्हा स्वाद की विविधताओं को समझ भी नहीं सकती। ये अच्छी बात है कि इस घिनौने विवाद में सुधा मूर्ति को भारतीय समाज भरपूर समर्थन दे रहा है।