अजय शर्मा काशी । काशीमाहात्म्य में शिव नगरी काशी में शिवभक्त जीमूतवाही द्वारा स्थापित एक लिंग है,जिसे जीमूतवाहनेश्वर और विद्येश्वर नामों से पुकारा गया है,परंतु फल एक समान ही है।
कृत्यकल्पतरू-लिंगपुराण में देवाधिदेव महादेव माता पार्वती से अपने भक्त जीमूतवाही के द्वारा स्थापित लिंग के वर्णन में कहते हैं-हे देवि ! (ऋषिगोभिल के लिंग) के पश्चिम में विद्याधरों के अधिपति जीमूतवाही के द्वारा स्थापित किया गया पश्चिमकी ओर मुखवाला लिङ्ग स्थित है।चन्द्रेश्वर के पूर्व में विद्येश्वर नामक शुभ लिङ्ग विद्यमान है; उस लिङ्गके दर्शन से मनुष्य विद्याधर का लोक प्राप्त करता है–
तस्यैव पश्चिमे देवि लिङ्गं पश्चान्मुखं स्थितम् ।
विद्याधराधिपतिना कृतं जीमूतवाहिना ॥
चन्द्रेश्वरस्य पूर्वेण लिङ्गं विद्येश्वरं शुभम् ।
लभेद्वैद्याधरं लोकं तस्य लिङ्गस्य दर्शनात् ॥
जहाँ काशी में परम् सिद्धिप्रदायक पंचमुद्रा महापीठ पर देवाधिदेव महादेव एवं मातृकाओं के वरदान से तीनों लोकों में प्रसिद्ध भगवान् वीरेश्वर का स्वर्ग से बालक रूप में आगमन से पूर्व काशी पहुँचकर मातृकाओं से विकटा देवि बोलीं– हे देवि ! ब्रह्माणी ने कहा कि इसे योगपीठ ले जाओ, योगपीठ के दर्शन से यह बालक राज्य प्राप्त करने में समर्थ होगा। तत्पश्चात् सभी मातृकाओं ने उस बात का समर्थन किया । वे उसे विद्याधर लोक ले गयीं और उसे योगपीठ का दर्शन कराया–
ब्रह्माणी चाब्रवीद्देवि योगपीठं तु नीयताम् ॥
योगपीठेन दृष्टेन बालो राज्यक्षमो भवेत्।
सर्वाभिर्मातृभिश्चाथ तद्वाक्यमभिनन्दितम् ॥
नीतो विद्याधरं लोकं योगपीठं च दर्शितम्।।
काशीखण्ड अध्याय 97 में उक्त लिंग के वर्णन में कार्तिक जी अगस्त मुनि से कही जीमूतवाहनेश्वर और कही विद्येश्वर नाम से कहते है,–उसके दक्षिण अभिलषित वर देने वाला गोभिल लिंग है, जिसके पिछवाड़े जीमूतवाहनेश्वर नामक उत्तम लिंग है, उस लिंग की सेवा से मनुष्य विद्याधर होता है।चन्द्रेश्वर से पूर्व ओर एक विद्येश्वर नामक लिंग है ,उस लिंग के सेवन करने से सब विद्याएँ प्रसन्न रहती हैं,उसके दक्षिण भाग में महासिद्धि- विधायक वीरेश्वर लिंग है,–
तहक्षिणे गोभिलेशो महाऽभिलषितप्रदः।
जीमूतवाहनेशश्च तत्पश्चाल्लिङ्गमुत्तमम् ॥182
विद्याघरपदप्राप्तिस्तल्लिङ्गपरिसेवनात्।।183
चन्द्रेश्वरस्य पूर्वेण लिङ्गं वियेश्वराभिधम् ॥ 38
सर्वविद्याः प्रसन्नाः स्युस्तस्य लिङ्गस्य सेवनात् ।
तद्दक्षिणे तु वीरेशो महासिद्धिविधायकः ।।39
विद्याधर अर्थात् एक देवयोनि।
विद्याधर लोक–विजयार्य की उत्तर- दक्षिण दिशा की श्रेणी पर विद्याधर नगरियाँ बनी हुई हैं, जिसे विद्याधर लोक कहते हैं यहाँ सदैव चौथा काल ही रहता हैं ।
विज्जाहरा तिविज्जा वसंति छक्कम्मसंजुत्ता।
अर्थात्, विद्याधर लोग तीन विद्याओं से तथा पूजा उपासना आदि षट्कर्मों से संयुक्त होते हैं।
ण विज्जाहराणं खगचरत्तमत्थि विज्जाए विणा सहावदो चेव गगणगमणसमत्थेसु खगयत्तप्पसिद्धीदो।
विद्याधर आकाशचारी नहीं हो सकते, क्योंकि विद्या की सहायता के बिना जो स्वभाव से ही आकाश गमन में समर्थ हैं उनमें ही खचरत्व की प्रसिद्धि है। विद्याधर सुमेरु पर्वत पर जा सकते हैं। (महापुराण)
मध्यलोक के बीचों बीच में जम्बूद्वीप नाम का पहला द्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोल आकार वाला है। इसमें पूर्व-पश्चिम लम्बे छह कुलाचल हैं, जिनके नाम हैं- हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी।
इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र हो जाते हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत ये उनके नाम हैं। सर्वप्रथम भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के 190 वाँ भाग अर्थात् 5266/19 योजन है।
हर हर महादेव
पता विद्येश्वर महादेव ,सगरेश्वर महादेव CK 2 / 41 B, सिद्धेश्वरी मोहल्ला (संकटा मन्दिर के पास) चौक, वाराणासी