अजय शर्मा काशी। सत्य सनातन शिव नगरी काशी ही संसार में एक मात्र वह स्थान है, जहां शव को शिव के समान पवित्र माना गया है। इसलिए काशीवासी शव को देख भक्ति भाव से महादेव कहते और शिव पीछे चलते,लेकिन भूल से भी शिव का रास्ता रोकने का अपराध नही करते हैं…….
मृत्युकाल में प्राणियों के कर्णमूल (कान) में भगवान् शिव तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं और गली-गली में काशी-निवासी शिव भ्रमण करते रहते हैं–
जल्पन् जल्पन् प्रकृतिविकृतौ प्राणिनां कर्णमूले ।
वीथ्यां वीथ्यामटति जटिलः कोऽपि काशीनिवासी ॥
परंतु वर्तमान तथकथित विश्वेश्वर प्रभु को ढूंढने वाले भक्त आधुनिक काशी की पीढ़ी एवं प्रवासी भक्तों की भक्ति ऐसी है कि उन्हीं शव रूपी विश्वेश्वर प्रभु को अपवित्र मान शव का रास्ता रोक आगे निकलते है..
इन्हें तो यह ज्ञात ही नही कि-काशी में निवास करने वाला शिव का वैसा भक्त हो जाता है, जैसे भगवान् श्रीकृष्ण के परमभक्त अर्जुन हैं। उस भक्त को भगवान् शिव काशी क्षेत्र में अपने स्वरूप का दर्शन देते हैं–
शिवभक्तः काशिवासी ह्यर्जुनेन समोऽपि हि ।
यस्य स्वरूपं सर्वात्मा काश्यामुपदिशत्यलम्॥
भगवान विश्वेश्वर के एक अनन्य भक्त महर्षि संवर्त रहें,जो भगवान विश्वेश्वर का दर्शन शव और शिव दोनो स्वरूपों में किया करते थे।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 10 में संवर्त मुनि के संदर्भ में कथा राजा मरुत्त वर्णित। राजा मरुत को यज्ञ को लेकर दुखी देख देवऋषि नारद जी ने कहा- “राजन! अंगिरा के द्वितीय पुत्र संवर्त अपने भाई बृहस्पति के कटु बर्ताव से दुखी होकर, सब कुछ छोड़ कर मोहमाया से मुक्त हो गए हैं। यदि आप चाहें तो उन्हें राजी कर अपने यज्ञ का पुरोहित बना सकते हैं। तेजस्वी संवर्त आपका कल्याण करेंगे। तब अपने कुल मर्यादा के रक्षार्थ यज्ञकार्य की पूर्ति के लिए राजा मरुत्त आविक्षित संवर्त मुनि से मिलना चाहते थे, लेकिन इनके उन्मत्त अवस्था में इधर उधर भटकते रहने के कारण इनकी भेंट अत्यंत दुष्प्राप्य ही थी। अंत में इन्हें ढूँढते मरुत्त काशीनगरी आ पहुँचे। संवर्त ऋषि वहाँ नग्नावस्था में इधर उधर भटकते थे, एवं एक कुणप (शव) को काशीविश्वेश्वर मान कर उसकी पूजा करते थे। रास्ते में ‘कुणप’ को देख कर, जो व्यक्ति उस शव का वंदन करता हुआ उसके पीछे-पीछे जायेगा, वही संवर्त ऋषि होगा, ऐसी ही धारणा इनके संबंध में काशिवासियों में खूब प्रचलित थी। इसी धारणा के अनुसार, मरुत्त राजा ने एक कुणप ला कर उसे काशी के नगरद्वार में रख दिया, जिसका वंदन करने के लिए संवर्त वहाँ भी पहुँच गये। काशीवासी सदियों से इसी श्रद्धा भक्ति का पालन करते हुए काशी में शव देख भगवान शिव के शव स्वरूप से भी आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
भगवान विश्वेश्वर माता पार्वती से अपने प्रिय भक्त संवर्त मुनि द्वारा स्थापित लिंग का वर्णन इस तरह कहते है– हे देवि ! (मंगलेश्वर) के उत्तर में महात्मा पाण्डवों के द्वारा पश्चिमाभिमुख पाँच पुण्यप्रद लिङ्ग स्थापित किये गये हैं। हे देवेशि ! उनके सामने संवर्तेश्वर नामक पश्चिमाभिमुख लिङ्ग स्थित है, जिसे महर्षि संवर्त ने स्थापित किया है। हे सुरेश्वरि! उस लिङ्गमें मेरा अत्यन्त सान्निध्य रहता है। जो उस लिङ्गका अर्चन करता है, सिद्धि उसके हाथमें स्थित रहती है–
तस्यैव चोत्तरे देवि पाण्डवैः सुमहात्मभिः ॥
पञ्च लिङ्गानि पुण्यानि पश्चिमाभिमुखानि तु ।
तेषामेते तु देवेशि लिङ्गं पश्चान्मुखं स्थितम् ॥
संवर्तेश्वरनामानं स्थापितं यन्महर्षिणा।
ममैवात्यन्तसान्निध्यं तस्मिँल्लिङ्गे सुरेश्वरि ॥
तल्लिङ्गमर्चयेद्यो वै तस्य सिद्धिः करे स्थिता ।।
पुराणों के अनुसार भगवान ब्रह्मा पुत्र अंगिरा ऋषि के तीन पुत्रों में से एक है “संवर्त ऋषि”। इनके अन्य दो भाइयों के नाम बृहस्पति एवं उतथ्य है।इन्हें “वीतहव्य”’ नाम से भी जाना जाता है। एक वैदिक सूक्तद्रष्टा एवं प्राचीन यज्ञकर्ता के नाते भी ऋग्वेद में इनका निर्देश प्राप्त है।इन्हें मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित कहा गया है। यह एक महान् तपस्वी साधक थे, एवं जिस स्थान पर इन्होंने तपस्या की थी, वह आगे चल कर ,संवर्तवापी” नाम से सुविख्यात हुआ। इसकी अत्यधिक तपस्या के कारण समस्त देवता भी इनके अधीन रहते थे। मरुत्त के यज्ञ के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर, इन्होंने हिमालय के सुवर्णमय मुंजवत् पर्वत से विपुल सुवर्ण शिवप्रसाद प्राप्त किया। इन्होंने मरुत्त के यज्ञ के समय, साक्षात् अग्नि देव को जलाने की धमकी दे दी थी। इंद्र का वज्र भी इन्होंने स्तंभित कर दिया था, एवं इस प्रकार इन्द्र समस्त सारे देवी देवताओं को मरुत्त के यज्ञ में आने पर विवश किया था। इन्होंने सदा ही राजा मरुत्त की ही सहायता की और मरुत्त के साथ इनका स्नेह संबंध भी सदा बना रहा।
पता संवर्तेश्वर महादेव श्री संकठा माता मंदिर प्रांगण सिंधियाघाट , चौक वाराणसी