हिंदी और अंग्रेज़ी के सुप्रतिष्ठित लेखक और अनेक कालजयी उपन्यासों के रचनाकार श्री Amarendra Narayan ने हिंदी में ‘एकता और शक्ति’ और अंग्रेज़ी में यूनिटी एण्ड स्ट्रेन्थ’ नामक उपन्यास लिखकर सरदार वल्लभभाई पटेल को राष्ट्र-निर्माण के उनके संकल्पित और निर्णायक प्रयत्नों के लिए, आदरांजलि अर्पित की है। श्री नारायण ने ‘भारत के लौहपुरुष’ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आपने अपनी लौह-लेखनी से अत्यन्त सराहनीय ढंग से रेखांकित किया है।
सरदार पटेल भारत के ‘सर्वांग एकीकरण’ के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि भारतवर्ष को आसेतुहिमाचल एक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखती थी और उनका मन-मन्दिर, भारतमाता की प्रदक्षिणा करता था। वह भारत को विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। यह कार्य भारत के अखण्ड हुए बिना सम्भव नहीं था। सौभाग्य से दैव ने यह महान् कार्य सरदार के लिए निर्धारित कर रखा था, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक संपन्न किया। लगभग पौने छह सौ देशी रियासतों को भारत में शामिल करने का कार्य सरदार पटेल जैसा कोई लौहपुरुष ही कर सकता था।
देशी राजाओं से मिलकर उनको भारत के विलय के लिए, विलय-पत्र पर हस्ताक्षर के लिए सहमत करना, सरदार पटेल के सिवा किसी अन्य नेता के बूते की बात भी नहीं थी। यह विराट्-सा दीखनेवाला लक्ष्य डेढ़ सालों के अन्दर-अन्दर पूरा हो गया। एक-एक राजा से मिलकर, किसी को वार्ता से, किसी को समझा-बुझाकर तो किसी को धमकाकर- अर्थात् जो जिस भाषा को समझता है, उसी भाषा में उत्तर देकर उससे व्यवहार करके उसके राज्य को भारतवर्ष की सीमाओं में ससम्मान सुरक्षित रखने की गारंटी देना— इन सबकी अपनी-अपनी कहानी है। पटेल कहा करते थे, ‘यदि हम राजाओं को अच्छी तरह समझाएँ और उनके साथ उचित व्यवहार करें, तो वे लोकहित में स्वयं अपनी सत्ता छोड़ देंगे।’ (एकता और शक्ति, पृ. 210)
सब लोग पटेल की बुद्धिमत्ता और उनकी प्रशासनिक क्षमता के कायल थे। यहाँ तक कि उनके कटु आलोचकों ने भी इतनी तेजी और सुगमता से राज्यों के भारतीय संघ में विलय पर उनका लोहा माना। कुछ इतिहासकारों ने उनको ‘भारत का बिस्मार्क’ तो कुछ ने ‘लौहपुरुष’ की संज्ञा दी। हालांकि पटेल को ‘भारत का बिस्मार्क’ कहना उनके व्यक्तित्व के साथ अन्याय है क्योंकि जर्मनी आकार में राजस्थान प्रांत के बराबर है और वहाँ एकीकरण की समस्या भी भारत जैसी जटिल नहीं थी।
हैदराबाद के मामले में निजाम की हठधर्मिता के कारण श्री पटेल को विशेष परिश्रम करना पड़ा। कश्मीर का मामला पं. नेहरू अपने पास न रखे होते, तो आज जो कश्मीर की हालत है, वह न होती। पाकिस्तान और चीन भी अपनी औकात में रहते। मुसलमानों को भी पटेल ने अधिक सिर नहीं चढ़ाया था।
सरदार पटेल ने वर्तमान के धरातल पर इतिहास से सबक लेने को कहा था। उनकी ये पंक्तियाँ उनकी सोच की गहराई को बयां करती हैं, ‘हमारे समक्ष भारत के इतिहास का एक नया अध्याय खुल रहा है। शताब्दियों में ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत अपने आपको सही अर्थों में एकीकृत कह सकता है। लेकिन हमें इस बात का दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि हम ऐसा कुछ न करें जिससे भारत पहले जैसा गुलाम हो जाये। हमें यह भी समझना चाहिए कि देशों के समूह में हमें अपना उचित स्थान अनायास नहीं मिलेगा, उसे पाने के लिए हमें कठोर परिश्रम करना पड़ेगा।’ (वही, पृ. 210)।
पटेल की हार्दिक इच्छा थी कि भारत को पूरी तरह सुरक्षित रखा जाए। उनके शब्द थे— ‘यह हर भारतीय का कर्तव्य होना चाहिए कि आन्तरिक और वाह्य सुरक्षा में कहीं कोई कमजोर कड़ी न रह जाये।’ (एकता और शक्ति, पृ. 210)।… हमारी स्वतंत्रता की भावना की जड़ें इतनी गहरी होनी चाहिए कि उसे हिलाया न जा सके।’ (वही, पृ. 212)।
सरदार पटेल किस प्रकार राष्ट्रीय एकता के लिए आजीवन प्रयासरत रहे, इस विषय को श्री अमरेंद्र नारायण ने औपन्यासिक शैली में और बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने सरदार पटेल के जीवन में सन् 1918 के खेड़ा-सत्याग्रह से लेकर अक्टबर, 1950 में उनके निधन तक घटित सभी महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों का अत्यन्त प्रभावशाली चित्र खींचा है। सरदार पटेल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ऐसी औपन्यासिक कृतियाँ कम ही आ देखने को मिलती हैं। इस दृष्टि से इस पुस्तक की महत्ता और भी बढ़ जाती है।
हिंदी में 285 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन ‘राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि.’ (7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002) और अंग्रेजी में 244 पृष्ठों में ‘बनयान ट्री बुक्स’ (पता वही) ने किया है। बढि़या काग़ज़ पर साफ-सुथरी छपाईवाली यह पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है।
यह पुस्तक ऑनलाइन बिक्री के लिए उपलब्ध है.